अखबार हाथ में आते ही सवेरे-सवेरे बेबाक सिंह का मूड खराब हो गया. ऊपर से पत्नी ने हाथ में झोला थमाते हुए राशन लाने का फरमान जारी कर दिया. किचकिच तो तभी शुरू हो जाती, लेकिन दिन अभी बाकी था और बेबाक सिंह उसे खराब नहीं करना चाहते थे.
अखबार मेज पर रखते हुए झोला उठाकर पैदल ही जाने लगे. पत्नी ने तुरंत टोका, ‘‘सामान क्या सर पर लायेंगे?’’ ‘‘नहीं, ट्रक पर लायेंगे’’, बेबाक सिंह ने झुंझलाते हुए कहा और बुलेट ट्रेन की तरह सरपट निकल पड़े. दुकान पर ‘अच्छे दिन’ के पोस्टर लगे हुए थे. भीड़ अच्छी-खासी थी, लेकिन मुस्कान सिर्फ दो ही जगह दिखायी दे रही थी- या तो पोस्टर में या फिर दुकानदार के चेहरे पर. सरसों तेल की कीमत में 9 रुपये का इजाफा हो गया था. रिफाइंड भी चार रुपये चढ़ गया था. दुकानदार बार-बार ग्राहकों को कह रहा था, यही मौका है ले लीजिए वरना कीमतें और बढ़ने वाली हैं. मेरे पास स्टॉक है, इसलिए पुराने ग्राहकों को पुराने रेट पर दे रहा हूं, नहीं तो बाजार में पता कर लीजिए कि चीजों के दाम कैसे आसमान पर हैं. बेबाक सिंह असमंजस में. पैसे तो पहले जितने ही लाये थे, पर कीमतें बढ़ गयी थीं.
अब एक ही उपाय था कि सामान कम किया जाये, सो वह समझ-समझ कर दुकानदार को सामान की मात्र लिखवा रहे थे. दुकानदार तो कुछ बोल नहीं पाया, लेकिन पीछे वाले सज्जन चुप नहीं रह पाये, कहा-‘‘सिंह साहेब, घर से ही लिस्ट तैयार करके लाते. दूसरों का नंबर तो आने दीजिए.’’ बेबाक सिंह का धैर्य जवाब दे गया, ‘‘लिस्ट तो घर से तैयार करके ही लाया था, लेकिन दाम बढ़ने का पता तो दुकान में आकर चला न! जिस रफ्तार से चीजों की कीमतें बढ़ रही हैं, उससे तो लगता है कि ‘अच्छे दिन’ सिर्फ कुछ लोगों के लिए ही आये हैं.’’ दुकान में जब किसी ने जवाब नहीं दिया तो बात खत्म हो गयी और झोला कंधे पर रखे बेबाक सिंह घर पहुंचे. पहुंचते ही पत्नी ने पूछ लिया-‘‘बाइक क्यों नहीं ले गये थे? झोला कंधे पर टांगे आ रहे हैं.
इज्जत-विज्जत का ख्याल है कि नहीं?’’ अब बेबाक सिंह से नहीं रहा गया. पत्नी पर ऐसे फट पड़े, जैसे मनाव बम बन गये हों-‘‘अपनी इज्जत का ख्याल करूंगा तो सबको भूखे ही रहना पड़ेगा. केंद्र ने पेट्रोल की कीमत कम की, तो झारखंड सरकार ने बढ़ा दी. अनाज खेत में है तो मिट्टी और दुकान में पहुंचा तो सोना. तीन साल पहले खेत सरकार ने ले लिया था, अब तक मुआवजा नहीं मिला. रोजाना नीतियां बदल रही हैं. नहीं बदल रही है तो किसान की किस्मत. खेत देकर किसान मजदूर बन गया और साहूकारों की चांदी हो गयी. जनता की आमदनी तो लूपलाइन में खड़ी ट्रेन जैसी है, लेकिन साहूकारों का ब्याज बुलेट ट्रेन से भी तेज है. अब इस हिसाब से देखो तो अच्छे दिन आये हैं, लेकिन सेठ, साहूकार और पूंजिपतियों के. जनता तो तब भी वेंटीलेटर पर थी और अब भी है.’’
कुणाल देव
प्रभात खबर, जमशेदपुर
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