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रेल बजट माने जादू का पिटारा!
देश में रेलवे का महा-विस्तार संभव है और इसकी मदद से बड़ी तादाद में नये रोजगार तैयार होंगे. इसका विस्तार दूसरे कारोबारों के विकास के लिए एक बुनियादी जरूरत है. लेकिन, हमें तय करना है कि हमारी प्राथमिकता में ‘बुलेट ट्रेन’ को होना भी चाहिए या नहीं. शेयर बाजार से खबरें हैं कि दो दिनों […]
देश में रेलवे का महा-विस्तार संभव है और इसकी मदद से बड़ी तादाद में नये रोजगार तैयार होंगे. इसका विस्तार दूसरे कारोबारों के विकास के लिए एक बुनियादी जरूरत है. लेकिन, हमें तय करना है कि हमारी प्राथमिकता में ‘बुलेट ट्रेन’ को होना भी चाहिए या नहीं.
शेयर बाजार से खबरें हैं कि दो दिनों से रेलवे से जुड़ी कंपनियों के शेयरों में उछाला दिख रहा है. ऐसी क्या खुशखबरी हो सकती है, जिसे लेकर शेयर बाजार खुश है? क्या निजी क्षेत्र की भागीदारी बढ़नेवाली है? क्या रेलमंत्री सामान्य यात्री सुविधाएं बढ़ा सकते हैं? तमाम खामियों के बावजूद हमारी रेल गरीबों की सवारी है. सिर्फ इसके सहारे वह अपनी गठरी उठाये महानगरों की सड़कों पर ठोकरें खाने के लिए अपना घर छोड़ कर निकलता है. किराया बढ़ने का मतलब है उसकी गठरी पर लात लगाना. रेलगाड़ी औद्योगिक गतिविधि भी है. वह बगैर पूंजी के नहीं चलती. मध्य वर्ग की दिलचस्पी अपनी सुविधा में है. सरकार को तमाम लोगों के बारे में सोचना होता है.
क्या राजधानी और शताब्दी का खाना बेहतर हो जायेगा? स्वच्छ भारत के इस दौर में क्या रेलवे प्लेटफॉर्मो की गंदगी कम होगी? क्या रेलवे रिजर्वेशन में दलालों का धंधा खत्म होगा? रेल बजट माहौल भी बनाता है. पिछले कई सालों से इसकी सफलता या विफलता किराये और माल-भाड़े में की गयी कमी-बेशी के आधार पर आंकी जाती रही है. या फिर इस बात से कि किस नेता या किस राज्य सरकार के अनुरोध पर किस शहर से किस शहर तक नयी रेलगाड़ी चलेगी. क्या इस बजट में बिहार के विधानसभा चुनाव के मद्देनजर ट्रेनों की घोषणा होगी? क्या पूर्वोत्तर में भाजपा की पैठ बनाने के लिए बजट का इस्तेमाल होगा?
रेल बजट को देखने के कई नजरिये हैं. राजनीति भी एक नजरिया है. 2012 में रेलमंत्री दिनेश त्रिवेदी को हाथों-हाथ बर्खास्त किया गया. ऐसा पहली बार हुआ जब रेल बजट एक मंत्री ने पेश किया और उसे पास करते वक्त मंत्री दूसरे थे. हर बजट में नयी ट्रेनों की घोषणाएं होती हैं. कौन देखता है कि सभी गाड़ियां चलीं या नहीं. पिछले साल 160 के आसपास गाड़ियों की घोषणा हुई थीं. कितनी चलीं, पता नहीं. कहा जा रहा है कि सुरेश प्रभु लोक-लुभावन घोषणाओं से बचेंगे. वे सुधार समर्थक हैं. आर्थिक सुधार भी हों और जनता भी खुश रहे, यह पेचीदा और मुश्किल काम है. इस लिहाज के रेल बजट जादू का पिटारा है.
पिछले साल एनडीए सरकार के रेल बजट में किराया और माल-भाड़ा बढ़ाने की घोषणा की गयी तो उसे आलोचना का सामना करना पड़ा था. मोदी सरकार के ‘अच्छे दिनों’ पर पहला हमला तभी शुरू हुआ था. किराया कम रखते हैं तो रेलवे-सेफ्टी, नयी लाइनों को बिछाने और विद्युतीकरण के कामों की अनदेखी होती है. सरकार लोकलुभावन तौर-तरीकों को अपनायेगी या रेलवे के दीर्घकालीन स्वास्थ्य के बारे में विचार करेगी, यह देखनेवाली बात होगी. इसमें सामान्य यात्री की सुविधाओं पर ध्यान होगा या बुलेट ट्रेन की चमक-दमक पर, यह आज पता चलेगा.
रेलगाड़ी हमारी विसंगतियों की कहानी कहती है. अंगरेजों को देश की तमाम खामियों-खराबियों के लिए कोसा जाता है. रेलगाड़ी के लिए हम उनका शुक्रिया अदा कर सकते हैं. उन्होंने अपने कारोबार के लिए ही इसे बनाया, पर राष्ट्रीय आंदोलन को पैर जमाने में भी इसकी भूमिका रही. दूसरी ओर महात्मा गांधी ने ‘हिंद स्वराज’ में आधुनिक सभ्यता के जिन दोषों को गिनाया है उनमें रेलगाड़ी भी है. उनके विचार से रेल नहीं होती तो अंगरेजों का जितना पक्का नियंत्रण हिंदुस्तान पर था, उतना नहीं होता. लोगों के एक जगह से दूसरी जगह जाने पर संक्रमण के कारण महामारी फैलती है. रेलगाड़ी के कारण अनाज वहां खिंच जाता है जहां उसकी ज्यादा कीमत मिलती है. इससे अकाल बढ़ते हैं.
गांधी की यह उलटबांसी आधुनिक सभ्यता और तकनीक के मर्म में छिपी इंसान विरोधी प्रवृत्तियों पर रोशनी डालती है. लेकिन गांधी ने देश को समझने के लिए रेल-यात्र ही की थी. उनके दरिद्र नारायण की सवारी है रेलगाड़ी. संचार और संवाद के लिहाज से आधुनिक भारत के सभी रंगों को एक साथ उभारने में रेलगाड़ी का जवाब नहीं. राष्ट्र राज्य को एक बनाये रखनेवाली जीवन रेखा है यह. नरेंद्र मोदी की ‘अच्छे दिनों की सौगात’ रेलगाड़ी पर सवार होकर ही आयेगी. रेलगाड़ी वैसी ही तकनीक है जैसे मोबाइल फोन. अमीर आदमी के इस्तेमाल की चीज गरीबों के इस्तेमाल में भी आ जाती है.
पिछले साल मोदी सरकार ने ‘मेक इन इंडिया’ और ‘जीरो डिफैक्ट, जीरो इफैक्ट’ के नाम से जो पहल शुरू की है, उसमें पहली कोशिश रक्षा और रेलवे के क्षेत्र में की गयी है. पिछले साल कैबिनेट ने रक्षा क्षेत्र में एफडीआइ की सीमा बढ़ा कर 49 और रेलवे के ढांचागत क्षेत्र में 100 फीसदी करने के प्रस्ताव को मंजूरी दी थी. इससे रेल परियोजनाओं के आधुनिकीकरण और विस्तार में मदद मिलेगी. एक अनुमान है कि इस क्षेत्र में हजारों करोड़ रुपये की नकदी की जरूरत है. एफडीआइ मंजूरी से प्रस्तावित हाई स्पीड रेल गलियारे की परियोजना में तेजी आयेगी. माल परिवहन के लिए विशेष रेल गलियारे को भी बढ़ावा मिलेगा.
भारतीय रेलवे 6000 हॉर्स पावर के डीजल इंजनों और 12000 हॉर्स पावर के विद्युत इंजनों के देश में ही निर्माण की योजना भी बना रहा है, जिसके लिए पूंजी के अलावा तकनीक की भी जरूरत होगी. इस दिशा में जापान-अमेरिका और कुछ यूरोपियन कंपनियों के साथ बात चल रही है. कारोबारी गतिविधियां बढ़ानी हैं, तो रेल परिवहन ठीक होना ही चाहिए. सौ-सौ डिब्बोंवाली मालगाड़ियां चलाने की जरूरत होगी. रेल परिवहन सड़क परिवहन की तुलना में किफायती है. सड़क परिवहन के मुकाबले इसमें चौथाई से भी कम इंधन लगता है और उससे चार गुना ज्यादा वजन ढोया जा सकता है. पर्यावरण प्रदूषण भी नियंत्रित रहता है.
देश में रेलवे का महा-विस्तार संभव है और इसकी मदद से बड़ी तादाद में नये रोजगार तैयार होंगे. इसका विस्तार दूसरे कारोबारों के विकास के लिए एक बुनियादी जरूरत है. हमारी रेल कई तरह की दिक्कतों और पूंजीगत तंगियों के बावजूद सफलता और कौशल की कहानी है. भारत के पास इस वक्त करीब 65 हजार किलोमीटर का रेलवे नेटवर्क है, जो दुनिया में तीसरे नंबर पर है. देश के तमाम शहरों का विकास रेलवे स्टेशनों के साथ हुआ है. रेलवे न होता तो वे शहर भी न होते. हमें तय करना है कि हमारी प्राथमिकता में ‘बुलेट ट्रेन’ को होना भी चाहिए या नहीं. इतनी महंगी तकनीक क्या व्यवहारिक होगी? क्या उसके पहले हमें सामान्य रेल व्यवस्था को ठीक नहीं करना चाहिए? पर तकनीक केवल शोशेबाजी ही नहीं होती. दिल्ली मेट्रो की सफलता ने देश के दूसरे शहरों का सपना जगाया है. देखना यह भी है कि इस सपने में क्या वे करोड़ों लोग शामिल हैं, जो सपने देख ही नहीं पाते.
प्रमोद जोशी
वरिष्ठ पत्रकार
pjoshi23@gmail.com
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