।। राजेंद्र तिवारी ।।
(कारपोरेट संपादक, प्रभात खबर)
अमर्त्य सेन और प्रो जगदीश भगवती के विकास मॉडलों को लेकर शुरू हुई तीखी चर्चा को योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया और कौशिक बसु ने यह कह कर शांत करने की कोशिश की थी कि दोनों में कोई अंतर्विरोध नहीं है. वित्तमंत्री पी चिदंबरम ने भी चालाक तरीके से शब्दों के खेल से दोनों को संतुष्ट करने की कोशिश की. लेकिन प्रो भगवती ने बिजनेस स्टैंडर्ड में एक बहुत तीखा आर्टिकल लिखा है. इसमें प्रो भगवती ने अहलूवालिया और बसु के बारे में कहा है कि ये दोनों ब्यूरोक्रेट हैं और इनसे ईमानदार राय की उम्मीद नहीं की जा सकती है.
कुछ लोग आस्ति–नास्ति के चक्कर में भ्रम की सांस्कृतिक परंपरा के शिकार हैं और कुछ लोग विद्वानों के समक्ष साष्टांग की मुद्रा में समर्पण कर देते हैं और कहने लगते हैं कि दोनों अलग–अलग तरह से एक ही बात कह रहे हैं. प्रो भगवती ने चिदंबरम की भी खिंचाई की है. चिदंबरम ने कहा था– भगवती हैज ए पैशन फार ग्रोथ, जबकि सेन हैज कंपैशन फार द पुअर. प्रो भगवती का कहना है कि चिदंबरम जैसा बुद्धिमान व्यक्ति यहां पर गलती कर रहा है.
इसके बाद प्रो भगवती यह बताने लगते हैं कि 1960 से वह (भगवती) योजना आयोग के लिए गरीबी उन्मूलन पर काम कर रहे हैं और उस समय प्रो सेन तो गरीबी के मसले पर कुछ नहीं कर रहे थे. मेरे मन में गरीबों के लिये ‘कंपैशन’ है और इसीलिए मैं ग्रोथ की बात करता हूं. वह सफाई देते हैं कि ग्रोथ हमारे लिए रणनीति है गरीबी उन्मूलन का लक्ष्य हासिल करने के वास्ते. वह प्रो सेन को आमने–सामने बहस के लिए ललकार भी रहे हैं.
उन्होंने लिखा कि विचारों के अंतर पर आमने–सामने की बहस होनी चाहिए. वह लिखते हैं– मैं तो राल्फ नाडर से दो बार, लोरी वैलेश, नाओमी क्लेन व पर्यावरणविद् गोल्डस्मिथ से एक–एक बार आमने– सामने की बहस कर चुका हूं. प्रो सेन को भी सामने आना चाहिए, मुझसे सीधी बहस के लिए. मैं उनसे कई बार बहस का आग्रह कर चुका हूं, लेकिन वे सामने आते ही नहीं.
शायद उनको अपने चाटुकारों के बीच ही रहना पसंद है. देखना है कि प्रो सेन क्या जवाब देते हैं. वैसे, प्रो भगवती व प्रो सेन के बीच बहस संसद को आयोजित करानी चाहिए और इस महाबहस का दूरदर्शन समेत सभी चैनलों पर सजीव प्रसारण करना चाहिए. आखिर देश के आमजन भी तो जानें कि गुजरात मॉडल क्या है और बिहार का मॉडल क्या है?
* गांधी के राज्य में हिटलर
पाकिस्तान में स्कूली पाठ्य–पुस्तकों में महात्मा गांधी को खलनायक के तौर पर पेश किये जाने की बात तो समझ में आती है, लेकिन महात्मा गांधी के प्रदेश में गांधी के असहयोग आंदोलन के नकारात्मक पहलू बच्चों को पढ़ाये जाते हैं और हिटलर, फासीवाद और नाजीवाद की तारीफ पढ़ायी जाती है.
मुझे गांधीवादी राजीव वोरा का कथन याद आ गया कि क्या अपने देश में कोई भारतीय राष्ट्रीय चेतना है जो हर नागरिक में एक ही स्वरूप में हो. वह यह सवाल भी पूछ रहे थे कि क्या कोई ऐसा एक आदर्श है हमारे देश के सामने, जिसको हासिल करने के लिए अंबानी से लेकर देश का सबसे गरीब व्यक्ति, यानी सभी देशवासी तत्पर हों? आप भी सोचिए इस सवाल पर.
* मुलायम का हल्लाबोल!
पिछले दिनों उत्तर प्रदेश में लेखक कंवल भारती को फेसबुक पर सरकार के खिलाफ टिप्पणी पोस्ट करने के आरोप में गिरफ्तार किया गया. अपने को लोहियावादी कहनेवाले मुलायम सिंह की पार्टी की सरकार से और उम्मीद ही क्या की जा सकती है. 1994 में तो तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह की पार्टी ने, खिलाफ रिपोर्टिग करने पर दो अखबारों के खिलाफ हल्लाबोल अभियान ही शुरू किया था. उस समय फेसबुक तो था नहीं, लेकिन उस समय बनारस के एक कवि बद्री वागीश की लिखी कविता की कुछ लाइनें थोड़े से संशोधन के साथ किसी ने इस बार फेसबुक पर डाली हैं–
अभिव्यक्ति पर रासुका लगायेंगे/ हम ऐसे हैं/ ऐसे ही सरकार चलायेंगे/कृष्ण हमारे पुरखे थे/बांसुरी बजाते थे/ हम उनके कुलदीपक हैं/ हम बांस बजायेंगे.
और अंत में..
आज (11 अगस्त) गोपाल सिंह नेपाली की जयंती है. पढ़िए, उनकी एक कविता :
राजा बैठे सिंहासन पर, यह ताजों पर आसीन कलम
मेरा धन है स्वाधीन कलम जिसने तलवार शिवा को दी
रोशनी उधार दिवा को दी
पतवार थमा दी लहरों को
खंजर की धार हवा को दी
अग–जग के उसी विधाता ने, कर दी मेरे आधीन कलम
मेरा धन है स्वाधीन कलम
रस–गंगा लहरा देती है
मस्ती–ध्वज फहरा देती है
चालीस करोड़ों की भोली
किस्मत पर पहरा देती है
संग्राम–क्रांति का बिगुल यही है, यही प्यार की बीन कलम
मेरा धन है स्वाधीन कलम
कोई जनता को क्या लूटे
कोई दुखियों पर क्या टूटे
कोई भी लाख प्रचार करे
सच्चा बनकर झूठे–झूठे
अनमोल सत्य का रत्नहार, लाती चोरों से छीन कलम
मेरा धन है स्वाधीन कलम