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लज्जा केवल ‘कामायनी’ में है?

।। रविभूषण ।।(वरिष्ठ साहित्यकार)– निर्लज्ज पूंजी से निर्लज्ज राजनीति जुड़ी हुई है और राजनीति से जुड़े लोगों को इसकी परवाह नहीं है कि उनके संबंध में दूसरे लोग क्या सोचते हैं, कैसी धारणा रखते हैं. – जिन नेताओं और अधिकारियों को कला, साहित्य, संस्कृति से थोड़ा भी लगाव होगा, वे महान काव्यकृति ‘कामायनी’ से अवश्य […]

।। रविभूषण ।।
(वरिष्ठ साहित्यकार)
– निर्लज्ज पूंजी से निर्लज्ज राजनीति जुड़ी हुई है और राजनीति से जुड़े लोगों को इसकी परवाह नहीं है कि उनके संबंध में दूसरे लोग क्या सोचते हैं, कैसी धारणा रखते हैं. –

जिन नेताओं और अधिकारियों को कला, साहित्य, संस्कृति से थोड़ा भी लगाव होगा, वे महान काव्यकृति ‘कामायनी’ से अवश्य परिचित होंगे. जयशंकर प्रसाद का यह महाकाव्य छायावाद की अकेली ‘राजरचना’ है. 15 सर्गों के इस काव्य का छठा सर्ग ‘लज्जा’ है.

लज्जा एक मनोवेग है. दो प्रमुख राष्ट्रीय राजनीतिक दलों- कांग्रेस और भाजपा के बीच जिस प्रकार की तू-तू, मैं-मैं होती है, वह कम गर्हित नहीं है. राजनीति में निर्लज्जता बढ़ना चिंतनीय है. राजनीति लोक-विमुख होकर निर्लज्ज हो रही है. लज्जा और ग्लानि उत्तम कोटि के मनुष्यों को ही होती है और राजनीति में उत्तम कोटि के मनुष्य नदारद हैं. आज के नेताओं में शील-संकोच का अभाव है. जिनमें शील-संकोच नहीं होता, वे मनुष्य कहलाने योग्य नहीं हैं. अपने दुष्कर्मो पर पश्चाताप नहीं करना बेशर्मी है. रामचंद्र शुक्ल ने ‘लज्जा और ग्लानि’ निबंध में लिखा है-‘मैंने कुत्ते के कई शौकीनों को अपने कुत्ते की बदतमीजी पर शरमाते देखा है.’

नेहरू के समय राजनीति कम सही, कुछ उसूलों पर कायम थी. कुछ मूल्य और संकल्प उस समय मौजूद थे. इंदिरा गांधी के समय से भारतीय राजनीति में विकृतियां बढ़ीं. बाद की नवउदारवादी अर्थव्यवस्था ने, जिसका वित्तीय और बाजार पूंजी से संबंध है, जीवन के विविध क्षेत्रों को अपनी पैठ के जरिये पूर्ववत नहीं रहने दिया.

चंचल और आवारा पूंजी ने मानव-संबंधों में ही नहीं, हमारे भावों-मनोविकारों में भी जो परिवर्तन किये हैं, उन पर कम ध्यान दिया गया है. इसने शालीनता नष्ट की है. ‘कामायनी’ में लज्जा ने श्रद्धा से अपने द्वारा ‘गौरव महिमा’ और ‘शालीनता’ सिखलाने की बात कही है. चंचल पूंजी ने चित्त की चंचलता बढ़ायी है.

निराला ने अपनी एक कविता में मन को चंचल न करने की बात कही है-‘मन चंचल न करो.’ बुद्धि-विवेक पर हिंदी के कवि-लेखक तीस के दशक (बीसवीं सदी के) में अधिक विचार क्यों कर रहे थे? हिंदी आलोचना में यह विचार नहीं हुआ है कि क्यों परतंत्र भारत में एक विशेष समय में रामचंद्र शुक्ल ‘लज्जा और ग्लानि’ निबंध लिख रहे थे, सरदार पूर्ण सिंह ‘आचरण की सभ्यता’ पर बल दे रहे थे और ‘कामायनी’ के ‘लज्जा’ सर्ग में प्रसाद लज्जा को ‘सोच-विचार’ से जोड़ रहे थे-‘मैं एक पकड़ हूं, जो कहती ठहरो कुछ सोच-विचार करो.’ लज्जा हमें सावधान करती है-‘ठोकर जो लगनेवाली है, उसको धीरे से समझाती.’

मनुष्य सामाजिक प्राणी है, पर पिछले कुछ समय से उसकी सामाजिकता घटी है. भारत का शिक्षित समुदाय लोकबद्ध न होकर स्वबद्ध हुआ है. सामाजिक प्राणी होने के कारण मनुष्य को अपने संबंध में समाज की अच्छी धारणा की अपेक्षा रहती थी. अब उसे समाज की कम चिंता है और समाज की धारणा उसके लिये अधिक महत्वपूर्ण नहीं है. भारतीय मध्यवर्ग ने व्यापक समाज से अलग अपना एक सीमित- सुविधापूर्ण समाज बना लिया है. लज्जा का संबंध दूसरों की धारणा से है. स्वबद्ध व्यक्ति अन्य के संबंध में नहीं सोचता. दूसरे हमें किस निगाह से देखते हैं, यह अब कम लोगों के लिए विचारणीय है. मनुष्य की लोकबद्धता में जब कमी आयेगी, लज्जा और ग्लानि भी नहीं होगी.

अपने मन से चालित होना, समाज की परवाह न करना, सामाजिक मूल्यों की उपेक्षा करना, दूसरों को गौण समझना भारतीय समाज में पहले अधिक नहीं था. वित्तीय और आवारा पूंजी दूसरों को कम महत्व देती है. इस पूंजी ने मनुष्य की सामाजिकता को सर्वाधिक क्षति पहुंचायी है.

आज के अधिसंख्य नेता सामान्य जन से कट चुके हैं, वे ‘जन’ के नहीं ‘धन’ के प्रतिनिधि हैं. राजनीतिक दलों के अधिवेशन-महाधिवेशन पांच सितारा होटलों की सुख-सुविधाओं में संपन्न होते हैं. आज की सत्ता राजनीति कुकर्म और दुष्कर्म से अधिक जुड़ रही है. प्रत्येक दिन सरकार की अकर्मण्यता-अक्षमता और दायित्वहीनता के उदाहरण दिखाई पड़ते हैं. मीडिया, सर्वोच्च न्यायालय और कैग के कारण सच्चई बाहर आ रही है. लूट और झूठ का व्यापार फैला हुआ है. लज्जा घट रही है और निर्लज्जता बढ़ रही है.

बुरे और गलत काम करने के बाद भी लज्जित न होना भारतीय समाज की एक नयी परिघटना है. गलत कार्यो में लिप्त रहने के बाद भी अब बहुत कम लोगों की आंखें नीची होती हैं. जिनका सिर नीचा होना चाहिए, वे सिर तान कर चल रहे हैं. अपराधी माला पहन रहे हैं. येन-केन प्रकारेण धन प्राप्त करना, धनवान बनना जीवन का एकमात्र लक्ष्य बन गया है. विश्व में भारत की एक नयी ‘इमेज’ बन रही है. राजनीति का अब लज्जा, शर्म, हया, संकोच से कोई रिश्ता नहीं है. भ्रष्ट और पतित-दूषित राजनीति लज्जाहीनता को बढ़ावा देती है. ‘निपट निर्लज्ज’ दूसरों की बुरी धारणा की चिंता नहीं करते हैं.

लोक संपर्क से लज्जा अनुभव होता है. ‘लोक’ की चिंता अब किसे है? भारतीय लोकतंत्र से ‘लोक’ की विदाई हो रही है. शुक्ल जी के अनुसार ‘लोक-रक्षा और लोक रंजन की सारी व्यवस्था का ढांचा इन्हीं (भाव या मनोविकार) पर ठहराया गया है’ और ‘लोक-कल्याण के व्यापक उद्देश्य की सिद्धि के लिए मनुष्य के मनोविकार काम में लाये गये हैं.’ नवउदारवादी अर्थव्यवस्था केवल आर्थिक क्षेत्र तक ही सीमित नहीं है. उसने हमारे भाव-मनोविकारों को भी प्रभावित कर डाला है. कोई भी राजनीतिक दल इस अर्थव्यवस्था के विरोध में नहीं है. लेखक बंधुओं की चिंता में भाव-मनोविकार में हो रहे परिवर्तन गौण हैं.

निर्लज्ज पूंजी से निर्लज्ज राजनीति जुड़ी हुई है और राजनीति से जुड़े लोगों को इसकी परवाह नहीं है कि उनके संबंध में दूसरे लोग क्या सोचते हैं, कैसी धारणा रखते हैं. अपने विषय में दूसरों की धारणा का ध्यान रखने से हमारा आचरण जुड़ा है. रामचंद्र शुक्ल के अनुसार ‘हम बुरे न समझे जाएं, यह स्थायी भावना जिसमें जितनी ही अधिक होगी, वह उतना ही लज्जाशील होगा. ‘कोई बुरा कहे चाहे भला’ इसकी परवाह न करके जो काम किया करते हैं, वे निर्लज्ज कहलाते हैं.’

तामसी वृत्ति वाला व्यक्ति मात्र अपने को, ‘स्व’ को देखने के कारण निर्लज्ज होता है और राजसी वृत्ति वाला मनुष्य ‘पर’ या ‘अन्य’ को देखने के कारण सलज्ज होता है. लज्जा और ग्लानि से हम मनुष्य बने रहते हैं. सोच-विचार कर कार्य न करने से ही सरकारें ठोकरें खाती हैं, अलोकप्रिय होती हैं. क्या सचमुच अब ‘लज्जा’ का हमारे जीवन से लोप हो रहा है और वह केवल ‘कामायनी’ का एक सर्ग मात्र है?

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