* मैट्रिक में अंगरेजी अनिवार्य
समय के साथ कदमताल करते हुए आगे बढ़ने में बाकी तमाम तत्वों के साथ ही भाषा की भी अहम भूमिका होती है. कोई भी समाज इस तथ्य को लगातार नजरअंदाज करता रहे, तो एक न एक दिन उसकी स्थिति गड़बड़ायेगी. एक–न–एक दिन उसे अपनी भूल का अहसास होगा.
इस मामले में बिहार अपवाद नहीं हो सकता. करीब साढ़े तीन दशक बाद प्रदेश में एक बार फिर स्कूलों में अंगरेजी की अनिवार्यता पर गंभीरता से विचार हो रहा है. इसमें दो राय नहीं कि बिहार जैसे प्रदेशों में आज भी हिंदी विकल्पहीन है. अर्थात् हिंदी तो रहेगी ही. पर, साथ में अंगरेजी होने और नहीं होने जैसी परिस्थितियां एक–दूसरे से विपरीत महत्व रखती हैं. और, इसका प्रभाव सामाजिक बदलाव व विकास की गति पर भी दिखता है. यह तर्क भी सही है कि अंगरेजी जाने बिना भी आदमी तरक्की की राह तय कर सकता है.
दुनिया के कई बड़े व अग्रणी देश इसके उदाहरण हैं. पर, सामाजिक, सांस्कृतिक व भाषाई दृष्टि से भारतीय समाज में जो विविधता दिखती है, वह अनोखी है, अद्वितीय है. इसे ध्यान में रखते हुए अंगरेजी के बारे में फिलहाल सोचना ही होगा. क्योंकि, अब तक भारतीय समाज ऐसी परिस्थिति पैदा नहीं कर सका है, जिसमें किसी एक भाषा का प्रभुत्व इसके तमाम सदस्यों के लिए स्वीकार्य हो.
इस तरह एक बहुभाषी समाज में भाषाई समन्वय के लिए भी अंगरेजी की जरूरत को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता. लोगों को याद रखना चाहिए कि तमाम प्रतिभाओं से संपन्न होने के बावजूद बिहार के युवाओं को यूपीएससी और आइआइटी आदि से संबंधित प्रतियोगी परीक्षाओं में अच्छा व पर्याप्त अवसर नहीं मिल पाता था.
ऐसी स्थिति पड़ोसी राज्य पश्चिम बंगाल में भी बनी हुई थी. वहां की सरकार ने काफी लंबे समय तक स्कूली शिक्षा से अंगरेजी को दूर कर रखा था. बाद में गलती का अहसास हुआ. हालांकि, इस दौरान वहां अंगरेजी के पक्ष में बड़े पैमाने पर विपक्षी आंदोलन भी चला रहे थे. खैर, आखिरकार वहां भी फिर से अंगरेजी की वापसी हुई.
35 वर्ष बाद ही सही, अंगरेजी को बिहार में मैट्रिक की परीक्षा के लिए अनिवार्य किये जाने की पहल का भी स्वागत होना चाहिए. इससे सूबे के छात्र व युवा वर्ग के लोगों को फिलहाल बिहार के बाहर अच्छे अवसर पाने की संभावना बढ़ जायेगी. कम से कम तब तक इससे जरूर राहत मिलेगी, जब तक हम केवल हिंदी के भरोसे पूरी दुनिया से अपना लोहा मनवाने जैसी स्थिति पैदा नहीं करते.