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ओबामा यात्रा : खुशी है, खुशहाली नहीं
क्या ओबामा यात्रा के बाद भारत में निवेश बढ़ेगा? क्या नये रोजगार तैयार होंगे? क्या इंफ्रास्ट्रर में तेजी आयेगी? इन सवालों के जवाब भी चाहिए. विश्व-मंच पर रसूख बढ़ना अच्छी बात है, पर देश में खुशहाली भी तो हो. बराक ओबामा की हालिया भारत-यात्रा के बाद वैश्विक मंच पर भारत का रसूख बढ़ेगा, पर क्या […]
क्या ओबामा यात्रा के बाद भारत में निवेश बढ़ेगा? क्या नये रोजगार तैयार होंगे? क्या इंफ्रास्ट्रर में तेजी आयेगी? इन सवालों के जवाब भी चाहिए. विश्व-मंच पर रसूख बढ़ना अच्छी बात है, पर देश में खुशहाली भी तो हो.
बराक ओबामा की हालिया भारत-यात्रा के बाद वैश्विक मंच पर भारत का रसूख बढ़ेगा, पर क्या यह हमारी बुनियादी समस्याओं के हल करने में भी मददगार होगी? शायद नहीं. जिस बड़े स्तर पर पूंजी निवेश की हम उम्मीद कर रहे हैं, वह अभी आता नजर नहीं आता. उसके लिए हमें कुछ व्यवस्थागत बदलाव लाने होंगे, जिसमें वक्त लगेगा. आर्थिक गतिविधियों को बढ़ाने के लिए इस क्षेत्र में शांति का माहौल चाहिए. इस यात्रा पर पाकिस्तान और चीन की प्रतिक्रियाओं से संदेह पैदा होता है कि यह क्षेत्र भावनाओं के भंवर से बाहर निकल भी पायेगा या नहीं. डर यह है कि हम नये शीतयुद्ध की ओर न बढ़ जायें!
जब ओबामा दिल्ली में थे, पाक सेनाध्यक्ष चीन यात्रा पर गये थे. उसी दौरान चीन के किसी नेता ने पाकिस्तान को पक्का और पुराना दोस्त बताया. दूसरी ओर चीन के सरकारी मीडिया ने कहा कि अमेरिका भारत को अपने फंदे में फंसा रहा है. एक टिप्पणी में भारत की महाशक्ति बनने की महत्वाकांक्षा का मजाक भी उड़ाया गया. ओबामा यात्रा का दिल्ली की किरण-केजरीवाल कथा से लेकर चीन-जापान रिश्तों तक असर पड़ेगा. खबर है कि द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्ति की 70वीं वर्षगांठ पर चीन ने एक भव्य परेड की योजना बनायी है, जिसमें मुख्य अतिथि रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन होंगे. साथ ही, उत्तर कोरिया के शासनाध्यक्ष किम-जोंग उन भी होंगे. इसके पहले मई में रूस में ऐसी ही एक परेड होनेवाली है, जिसमें चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग शिरकत करेंगे. 1949 में साम्यवादी क्रांति की स्मृति में चीन हरेक दशक में ऐसी परेड आयोजित करता है. पिछली परेड 2009 में हुई थी. अगली परेड 2019 में होगी, पर लगता है कि चीनी राष्ट्रपति चार साल रुकना नहीं चाहते.
भारत ने पिछले छह महीने में जिस आक्रामक राजनय का सहारा लिया है, वह भी अनायास नहीं है. इसकी भूमिका दस साल पहले 2005 में हुए भारत-अमेरिका सामरिक सहयोग समझौते से बन गयी थी, जिसे अब दस साल के लिए बढ़ा दिया गया है. पर भारत-अमेरिका सामरिक सहयोग की शुरुआत 1992 से हो गयी थी, जब दोनों देशों की नौसेनाओं ने ‘मालाबार युद्धाभ्यास’ शुरू किया था. सोवियत संघ के विघटन और शीतयुद्ध की समाप्ति के एक साल बाद. सन् 1998 में भारत के एटमी परीक्षण से रिश्ते बिगड़ गये. मालाबार युद्धाभ्यास भी बंद हो गया. पर 11 सितंबर 2001 की घटना के बाद अमेरिका और भारत की विश्व-दृष्टि में बदलाव आया. 2002 से यह युद्ध अभ्यास फिर शुरू हुआ और भारत धीरे-धीरे अमेरिका के महत्वपूर्ण सहयोगी के रूप में उभर रहा है.
बराक ओबामा के पहले, पिछले साल जापानी प्रधानमंत्री शिंजो एबे गणतंत्र परेड में मुख्य अतिथि थे. 2002 के बाद से भारत, जापान और अमेरिका के बीच त्रिपक्षीय सामरिक संवाद चल रहा है. 2007 में शिंजो एबे की पहल पर अमेरिका, जापान, ऑस्ट्रेलिया और भारत के बीच ‘क्वाड्रिलेटरल डायलॉग’ शुरू हुआ. जिस वक्त यह संवाद शुरू हुआ, ऑस्ट्रेलिया में जॉन हावर्थ प्रधानमंत्री थे. उनके बाद प्रधानमंत्री बने केविन रड, जिनके कार्यकाल में सामरिक चतुष्कोणीय संवाद की पहल धीमी पड़ गयी. लगता है अब चतुष्कोणीय संवाद फिर से शुरू होगा.
चीनी उभार को लेकर अमेरिका और जापान चिंतित हैं. आनेवाले समय में एशिया-प्रशांत क्षेत्र शीतयुद्ध का केंद्र बने, तो आश्चर्य नहीं होगा. सागर मार्गो की सुरक्षा एक पहलू है. दूसरा पहलू है भविष्य की ऊर्जा जरूरतों को पूरा करना. दक्षिण चीन सागर में पेट्रोलियम की प्रचुर संभावनाएं हैं. पर चीन और उसके पड़ोसी देशों के बीच सीमा को लेकर विवाद हैं. वियतनाम ने भारत को इस क्षेत्र में तेल खोज का काम सौंपा है. इस क्षेत्र में वियतनाम भी हमारे खास मित्र देश के रूप में उभरा है.
ओबामा और मोदी की वार्ता के बाद जारी संयुक्त बयान में कहा गया है कि दक्षिण चीन सागर में विवादों का समाधान अंतरराष्ट्रीय कानूनों और संधियों की रोशनी में होना चाहिए. किसी पक्ष को ताकत के इस्तेमाल की धमकी नहीं देनी चाहिए. प्रकारांतर से यह चीन को चेतावनी है. हमारी विदेश नीति सामरिक गंठबंधनों से अलग रहने की रही है. पहली बार भारतीय विदेश नीति में आक्रामकता का पुट शामिल हुआ है. ओबामा की यात्रा के एक महीने पहले रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन भारत आये थे. यूक्रेन और क्रीमिया से जुड़ी नीतियों के कारण रूस इन दिनों अमेरिका और पश्चिमी देशों के आर्थिक प्रतिबंधों का सामना कर रहा है. भारत ने रूस के साथ न केवल शस्त्र परियोजनाओं को जारी रखने की घोषणा की है, बल्कि आर्कटिक क्षेत्र में रूस के साथ मिल कर तेल-गैस खोज का काम करने का समझौता भी किया है. लगभग इसी प्रकार का सहयोग चीन के साथ रखने की मंशा भारत ने जाहिर की है.
पचास के दशक में पश्चिमी देशों के पाकिस्तान के प्रति झुकाव ने भारत को गुट-निरपेक्षता की ओर जाने पर मजबूर किया था. साठ के दशक में नेहरू और इंदिरा गांधी का सोवियत संघ की ओर झुकाव राजनीतिक फैसला था. 1977 में जनता पार्टी की सरकार ने और अस्सी के दशक में इंदिरा गांधी ने इस दृष्टि को बदला और पश्चिम का रुख किया. राजीव गांधी और पीवी नरसिंह राव ने इसे बढ़ाया और पश्चिम के साथ-साथ इजरायल के साथ सामरिक रिश्ते बनाये. अटलजी की एनडीए सरकार ने अमेरिका के साथ सामरिक साङोदारी की ओर पहला कदम बढ़ाया. उसी कदम को मनमोहन सिंह सरकार ने पुख्ता किया. भारत के सामने इस वक्त सामरिक और विदेश नीति के कुछ महत्वपूर्ण बिंदु इस प्रकार हैं : दक्षिण एशियाई देशों के साथ संबंध; हिंद-प्रशांत क्षेत्र की भावी राजनीति; अमेरिका के साथ वैश्विक-सामरिक सहयोग; यूरोपीय संघ के साथ भावी आर्थिक रिश्ते; रूस के साथ बदलते रक्षा-संबंध.
नवंबर, 2010 में ओबामा ने भारत-यात्राा के दौरान कहा था कि अमेरिका कोशिश करेगा कि भारत को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् का स्थायी सदस्य बनाने के लिए समर्थन जुटाया जाये. इस बार भी उन्होंने यही कहा. अमेरिका भारत को चार अंतरराष्ट्रीय समूहों में प्रवेश दिलाने का प्रयास कर रहा है- न्यूक्लियर सप्लायर ग्रुप, मिसाइल टेक्नोलॉजी कंट्रोल रेजीम, 41 देशों का वासेनार अरेंजमेंट, ऑस्ट्रेलिया ग्रुप. ये चारों समूह सामरिक तकनीकी विशेषज्ञता के लिहाज से महत्वपूर्ण हैं.
मोदी-ओबामा वार्ता के ठीक पहले न्यूक्लियर डील को लागू करने की बाधाएं पार हो गयी हैं, पर अभी इस समझौते की व्यवस्थाएं पूरी तरह स्पष्ट नहीं हैं. पर हमारे सारे मसले सामरिक नहीं हैं. क्या ओबामा यात्रा के बाद भारत में निवेश बढ़ेगा? क्या नये रोजगार तैयार होंगे? क्या इंफ्रास्ट्रर में तेजी आयेगी? इन सवालों के जवाब भी चाहिए. विश्व-मंच पर रसूख बढ़ना अच्छी बात है, पर देश में खुशहाली भी तो हो.
प्रमोद जोशी
वरिष्ठ पत्रकार
pjoshi23@gmail.com
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