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बेहद कारगर है ओबामा की सीख

राष्ट्रों के रिश्ते नेताओं की आपसी समझ पर नहीं, राष्ट्रों के हितों पर आधारित होते हैं. लेकिन, इस सबसे महत्वपूर्ण बात, शायद वह समझ है, जो ओबामा हमें जाने-अनजाने दे गये. मनुष्य को मनुष्य समझने की समझ. धर्मो और जातियों की दीवारों को ढहाने की समझ. बहुत अच्छा तो नहीं लगता, जब कोई बाहरी आकर […]

राष्ट्रों के रिश्ते नेताओं की आपसी समझ पर नहीं, राष्ट्रों के हितों पर आधारित होते हैं. लेकिन, इस सबसे महत्वपूर्ण बात, शायद वह समझ है, जो ओबामा हमें जाने-अनजाने दे गये. मनुष्य को मनुष्य समझने की समझ. धर्मो और जातियों की दीवारों को ढहाने की समझ.

बहुत अच्छा तो नहीं लगता, जब कोई बाहरी आकर यह बताये कि हमें क्या करना चाहिए और क्या नहीं, लेकिन जब कोई ओबामा हमें आकर बताता है कि हमारे संविधान की धारा 25 में दिया गया धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार महान राष्ट्र का आधार है और हमें इसका सम्मान करना चाहिए, तो बुरा भी नहीं लगना चाहिए. अपनी तीन दिन की भारत-यात्र में अमेरिकी राष्ट्रपति ने जो कहा, उस पर न जाने कितने दिन तक चर्चा चलती रहेगी; इस बात का विश्लेषण व्यक्ति और पक्ष अपने-अपने हिसाब से करते रहेंगे कि उन्होंने जो कहा, वह क्यों कहा. लेकिन, यात्र के आखिरी दिन 35 मिनट के भाषण में राष्ट्रपति ओबामा ने कुछ ऐसे महत्वपूर्ण मुद्दे उठाये, जिनके बारे में हमें सोचना होगा कि उन्होंने वह बातें करना जरूरी क्यों समझा. इन बातों में सबसे महत्वपूर्ण बात धार्मिक स्वतंत्रता की है. उन्होंने यह बताना जरूरी नहीं समझा कि इस मुद्दे को उठाने का संदर्भ क्या था, लेकिन यह बात सहज समझनेवाली थी कि वे जो कह रहे हैं, वे क्यों कह रहे हैं.

पिछले कुछ महीनों से देश में धर्मातरण को लेकर बहस चल रही है. एक कहता है, कि भारत में जन्मा हर व्यक्ति हिंदू है; दूसरा कहता है जन्म के समय हर व्यक्ति मुसलमान होता है. एक कहता है हम जबरन किसी को अपने धर्म में नहीं लाते; दूसरा कहता है हम चोरी गये अपने ‘माल’ को वापस ला रहे हैं- घर वापसी है यह! सवाल यह नहीं है कि दोनों में से सही कौन है. समझने की बात यह है कि अपने संविधान के माध्यम से हमने संकल्प किया था कि स्वतंत्र भारत में धर्म या जाति या वर्ण-वर्ग के आधार पर किसी प्रकार का भेदभाव नहीं होगा. यह कर्तव्य भी कि कोई भी नागरिक किसी दूसरे की धार्मिक भावनाओं को आहत नहीं करेगा.

विडंबना यह नहीं कि हम अकसर भूल जाते हैं, विडंबना यह है कि सात समंदर पार से आकर कोई ओबामा हमें याद दिलाता है कि सौ साल पहले स्वामी विवेकानंद ने अमेरिका में ‘बहनों और भाइयों’ को मनुष्य धर्म का पाठ पढ़ाया था; गांधीजी ने सभी धर्मो को एक ही बगीचे के सुंदर फूल कहा था. ओबामा हमारे ऋषि-मुनियों की भाषा बोल रहे थे, जब उन्होंने यह कहा कि जिस विश्व-शांति की तलाश हम कर रहे हैं, उसकी शुरुआत मनुष्य के हृदय से होती है और उसकी अभिव्यक्ति तब होती है, जब हम हर आत्मा का सौंदर्य देख कर प्रफुल्लित होते हैं. आखिर हमारे पूर्वजों द्वारा बार-बार पढ़ाया गया पाठ हम भूल क्यों जाते हैं?

इन प्रश्नों के उत्तर मुश्किल नहीं हैं. हमारा मनुष्य होना हमारे हिंदू या मुसलिम या सिख या ईसाई होने से अधिक महत्वपूर्ण है. गणतंत्र दिवस के अवसर पर राष्ट्र की सैन्य-शक्ति का प्रदर्शन और सांस्कृतिक विरासत को याद करना गौरव का अहसास अवश्य कराता है, पर इससे कहीं अधिक महत्वपूर्ण वह भाव है, जो अपने राष्ट्र-ध्वज को फहरता देख कर हमारे मन में उमड़ता है. जब हम राष्ट्र-ध्वज के सम्मान में खड़े होते हैं तो इस देश की उस संपूर्ण विवधता का सम्मान कर रहे होते हैं, जिसकी एकता हमारी ताकत है. अनेक भाषाएं अनेक बोलियां, अनेक धर्म, अनेक विश्वास हमारी ताकत हैं, हमारी समृद्धि का प्रमाण हैं. इन सबका साथ रहना हमारे अस्तित्व को अर्थवान बनाता है, सार्थक करता है.

ओबामा ने एक बात और कही थी- ‘मुङो अपनी आस्था से ताकत मिलती है. ऐसे भी मौके आये हैं, जब मुङो न जाननेवालों ने मेरी आस्था पर प्रश्नचिह्न् लगाया है. जब उन्होंने कहा है कि मैं दूसरे धर्म का हूं, जैसे यह कोई बुरी बात हो. अपने धार्मिक विश्वासों में आस्था का दावा करनेवाले जब असहनशीलता, हिंसा और आतंक का उदाहरण बनते हैं, तो वे वस्तुत: अपने विश्वास के साथ गद्दारी कर रहे होते हैं.’ क्या यह जरूरी नहीं कि हम सब खुद को इस तराजू पर तोलें?

बावजूद इस तथ्य के कि राष्ट्रों के रिश्ते नेताओं की आपसी समझ पर नहीं, राष्ट्रों के हितों पर आधारित होते हैं, यह माना जा सकता कि इस यात्र से दोनों देश एक-दूसरे के नजदीक आये हैं. लेकिन, इस सबसे महत्वपूर्ण बात, शायद वह समझ है, जो ओबामा हमें जाने-अनजाने दे गये. मनुष्य को मनुष्य समझने की समझ. धर्मो और जातियों की दीवारों को ढहाने की समझ. इस बात को समझना, और याद रखना जरूरी है कि हमारा संविधान जब बन रहा था, तो देश बंटवारे के परिणामों की पीड़ा भोग रहा था. इसके बावजूद हमारे संविधान-निर्माताओं ने धार्मिक स्वतंत्रता के महत्व को समझा और स्वीकारा था. इसके विरुद्ध कोई भी तर्क भारत देश और भारतीय समाज को बांटनेवाला ही हो सकता है. संविधानसभा में दिये अपने आखिरी भाषण में बाबा साहेब आंबेडकर ने कहा था कि संविधान हमें राजनीतिक समानता तो देता है, लेकिन हमें सामाजिक विषमता के साथ जीना सीखना होगा. आवश्यकता इस विषमता को एक समरसता में बदलने की है. हम सब एक शानदार वृक्ष की टहनियां हैं. आइए, इस पर हम सब गर्व करें.

विश्वनाथ सचदेव

वरिष्ठ पत्रकार

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