* खास पत्र
।। रवींद्र पाठक ।।
(आदित्यपुर, जमशेदपुर)
केंद्र सरकार की महत्वाकांक्षी मिड डे मील योजना अब धीरे–धीरे मौत परोसने वाली योजना बनती जा रही है. आये दिन खाने में कभी छिपकली तो कभी सांप गिरने से लेकर स्कूली बच्चों के बीमार होने या उनके असमय काल कवलित होने की खबरें अखबारों की सुर्खियां बन रही हैं.
ऐसी घटनाओं के बाद फिर वही दिखावटी जांच के आदेश, शिक्षकों का निलंबन और दोषियों को दंडित करने का फरमान जारी कर व्यवस्था को चाक–चौबंद करने की औपचारिकताएं पूरी की जाती हैं. प्रश्न है कि स्कूलों में मौत परोसने वाली थालियां आखिर क्यों और कब तक? विद्यालयों में बनायी गयी तमाम प्रबंधन व शिक्षण समितियों की मौजूदगी के बीच शिक्षकों पर ही एमडीएम की जिम्मेवारी क्यों? देश के होनहारों का भविष्य गढ़नेवाले शिक्षक आखिर कब तक स्थानीय प्रतिद्वंद्विताओं, संघर्ष और राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं की बलि चढ़ते रहेंगे? क्या शिक्षकों का कार्य अब अध्ययन–अध्यापन छोड़ मध्याह्न भोजन चखना, संबंधित रिपोर्ट तैयार करना व खाता बहियों को अद्यतन संधानित करना मात्र रह गया है?
यदि हां, तो फिर शिक्षा के बाल अधिकार अधिनियम लागू करने और शिक्षा की गुणवत्ता पर हाय–तौबा मचाने का क्या औचित्य है? माना जा सकता है कि ग्रामीण स्कूलों में दोपहर का भोजन गरीब बच्चों को एक वक्त की भूख मिटाने के लिए बड़ा आधार हो, साथ ही इस योजना से नियमित स्कूल आनेवाले बच्चों की संख्या में भी इजाफा हुआ हो, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि शिक्षकों को सीधे किचेन मॉनिटरिंग में लगा दो. शिक्षकों का कार्य शिक्षा में गुणवत्ता लाना एवं शिक्षण में नया आयाम ढूंढना है, न कि मिड डे मील चखना एवं खाना पक रहे किचेन में हमेशा निगाहें टिकाये रखना. उन्हें बच्चों का भविष्य गढ़ने दिया जाये.