।। कृष्ण प्रताप सिंह ।।
(वरिष्ठ पत्रकार)
दूसरी ओर लोक को खंडित करके टकराव बढ़ाने व नाराज भीड़ें खड़ी करनेवाले नेता अपने ‘सबसे लोकप्रिय’ होने का दावा करते हैं. जैसे–जैसे 2014 के लोकसभा चुनाव निकट आयेंगे, ये ‘भस्मासुर’ अपने करतब दिखाने को और उतावले होंगे. ऐसे तिलिस्म रचेंगे कि लोकप्रियता के सच व भरम के बीच कोई बारीक–सी रेखा भी न रह जाये. ऐसे में मतदाताओं को ठीक से अपना फर्ज निभाने के लिए उनके ‘लोकप्रिय’ तिलिस्मों और मिथों के पार जाना होगा.
‘लोकप्रिय’ का समानार्थी अंगरेजी का ‘पापुलर’ शब्द मूलत: लैटिन टर्म है, जिसका अर्थ है– वेल ऐंड बेस्ट लाइक्ड ऐंड एडमायर्ड. यहां वेल और बेस्ट से अभिप्रेत है कि प्रियता व प्रशंसनीयता को अच्छे कारणों से और सर्वश्रेष्ठ रूप में होने पर ही लोकप्रियता कहा जा सकता है. इसीलिए कई शब्दशिल्पी लाइक्ड ऐंड एडमायर्ड के साथ व्यापकता की शर्त भी लगाते हैं यानी वेल और बेस्ट होने के बावजूद ऐटलार्ज या वाइड न होने पर उनसे विभूषितों को लोकप्रियता के आसन पर नहीं बैठाते. इसके लिए लोक में उनके एप्रीसिएशन यानी गुण–विवेचन को भी जरूरी मानते हैं. जाहिर है कि प्रगतिशीलता लोकप्रियता का सबसे जरूरी व निर्णायक तत्व है. इसीलिए संकीर्णताओं को सहलाने और समय के पहिये को पीछे ले जानेवालों की ‘लोकप्रियता’ की लोक में क्षीण–सी परंपरा भी नहीं है. वरना अब तक लोकप्रिय हत्यारे, लोकप्रिय माफिया और लोकप्रिय लुटेरे जैसे जुमले भी इस्तेमाल में आ जाते.
समाजशास्त्रीय अध्ययनों में आक्रामकता को, और खासकर ऐसी आक्रामकता को जो भावनात्मक क्षति पहुंचाये, उसमें कितना भी आकर्षण क्यों न हो, लोकप्रियता का निषेधक तत्व ही माना जाता है. इस दृष्टि से लोकप्रियता समष्टि का विश्वासपात्र बनने की वह योग्यता है, जो हर किसी से सहयोग को उद्यत रहने, सामाजिक चेतनाओं को उपयुक्त दिशा देने और सबके शुभ की चिंता करने से प्राप्त होती है. इसमें घृणा के लिए कोई जगह नहीं होती और जिनके पास हिकारत की निगाहें हैं, वे क्रुद्घ, नाराज अथवा अराजक भीड़ के ही प्रिय हो सकते हैं, लोकप्रिय नहीं. क्योंकि लोक सामूहिक व सकारात्मक दृष्टिबोध वाले समूहों का पर्याय है.
भीड़ आमतौर पर विवेकहीन होती है. इसलिए उसे बहकते देर नहीं लगती. इसके उलट लोक में बहुत आक्रांत होने पर भी इतना विवेक होता है कि वह अपनी आत्मालोचन की परंपरा को बचा कर रख सके. वह विवशता में अन्यायी के सामने नतशिर हो जाता है, खलों के बली हो जाने पर खुद को खलबली से नहीं बचा पाता, लेकिन उनके औचित्य को प्रश्नांकित करना नहीं छोड़ता. मुखरविरोध नहीं कर पाता तो मौन रहकर करता है. हमारे जैसे बहुभाषी–बहुधर्मी देश के संदर्भ में किसी नेता की लोकप्रियता की कसौटियां तो और भी बहुआयामी होंगी. न कि किसी कलाकार या अभिनेता की आभासी लोकप्रियता जैसी.
अभिनेता का काम इतने से चल जाता है कि वह ‘पीपुल लाइक अस’ कहने की हालत में रहे. वह इतने में खुश हो सकता है कि नेट पर लोग सबसे ज्यादा उसी का नाम सर्च करते हैं. इसे उसकी लोकप्रियता का संकेतक भी माना जा सकता है. लेकिन सस्ती लोकप्रियता से ‘सुख’ चाहनेवाले नेताओं की लोकप्रियता इतनी ‘सस्ती’ नहीं हो सकती. उसको अपनी अपेक्षाकृत गहरी परख के लिए तैयार रहना पड़ता है. वह तभी सच्ची मानी जाती है, जब लोक उसकी अगुआई में स्वेच्छया भविष्य की ओर चल पड़ने को तैयार हो और वहां उसकी स्वीकृति किसी थोथे चमत्कार की नहीं, बल्कि लोक के सपनों के साथ समझदारी भरी भावनात्मक साझीदारी का प्रामाणिक फल हो.
यह साझीदारी जरूरत पर अलोकप्रियता का जोखिम भी उठा सकती हो. बिना इसके वह सामाजिक फेनामेना ठीक से बन ही नहीं सकता, जो नेता के प्रभाव में इतनी नैतिक व विश्वसनीय चमक भर दे, कि वह जितनी बिखरे उतनी ही ज्यादा चमकीली होती जाये. इस कसौटी पर देखें तो चुनावों के मद्देनजर पार्टियां अपने नेता को सबसे लोकप्रिय साबित करने के लिए जो कवायदें कर रही हैं, वे लोकप्रिय शब्द को अर्थसंकोच का शिकार बना रही हैं. मतदाता इस संकोच से जितने बचेंगे, देश का भविष्य उतना उज्वल होगा.