।। अजय सिंह ।।
(मैनेजिंग एडिटर, गवर्नेस नाऊ)
– शायद सुप्रीम कोर्ट में सिन्हा का हलफनामा अपने आप में इस तथ्य की मूक स्वीकृति है कि देश की शीर्ष जांच एजेंसी के पास अपने कामकाज संबंधी स्वायत्तता भी नहीं है. –
देश के दो प्रमुख विधि अधिकारियों ने सुप्रीम कोर्ट में कोयला घोटाले की स्टेटस रिपोर्ट की पूर्व जांच की बाबत झूठ बोलकर यूपीए सरकार की मदद की. यह बात अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल हरिन रावल द्वारा अपने बॉस- महान्यायवादी जी वाहनवति को लिखी चिट्ठी से साफ जाहिर हो रही है.
वाहनवति देश के सर्वोच्च न्यायिक अधिकारी हैं. सरकार ने सीबीआइ निदेशक रंजीत सिन्हा से भी उम्मीद लगायी, बल्कि वास्तव में उन्हें सरकारी लाइन पर चलते हुए सुप्रीम कोर्ट में शपथ लेकर झूठ बोलने का संकेत दिया.
रावल और वाहनवति दोनों ने सर्वोच्च न्यायालय में झूठ कहा कि कोयला घोटाले की सीबीआइ जांच की स्टेटस रिपोर्ट राजनीतिक मालिकों को दिखाई तक नहीं गयी. उसमें छेड़छाड़ का तो सवाल ही नहीं पैदा होता.
ये दोनों कानून मंत्री अश्विनी कुमार द्वारा सीबीआइ की स्टेटस रिपोर्ट पर ‘मुहर लगाने’ के लिए बुलायी गयी बैठक में मौजूद थे. इन दोनों ने अपनी रजामंदी से सरकारी झूठ को आगे बढ़ाया और इस तरह उस न्यायालय की गरिमा, प्रतिष्ठा और विश्वसनीयता की तौहीन की, जिसकी रक्षा करना उनकी संवैधानिक जवाबदेही है. देश इसके बारे में शायद ही कुछ नहीं जान पाता अगर सीबीआइ निदेशक ने भी सरकारी इशारे पर चलते हुए शपथ लेकर झूठ कह दिया होता.
सीबीआइ के शीर्ष सूत्रों का कहना है कि सरकार ने सीबीआइ प्रमुख पर कोर्ट में शपथ लेकर झूठ बोलने और झूठा हलफनामा दाखिल करने के लिए जबरदस्त दबाव बनाया था. सीबीआइ के शीर्ष अधिकारियों के साथ हुई कई दौर की बैठक के बाद सीबीआइ प्रमुख रंजीत सिन्हा ने सरकार की तरफ से आये निर्देशों को तवज्जो नहीं देने का मन बनाया.
इन बैठकों में सिन्हा के प्रमुख सहयोगियों ने उन्हें कहा कि कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा सीबीआइ निदेशक से अलग से यह घोषणा करने वाला हलफनामा मांगना कि ड्राफ्ट स्टेटस रिपोर्ट को राजनीतिक हाइकमान के साथ साझा नहीं किया गया है, सुप्रीम कोर्ट के गहरे संदेह को दिखाता है. यह भी संभव है कि उसके पास इस बात को झूठा साबित करनेवाले ठोस सबूत हों.
सीबीआइ के एक शीर्ष सूत्र का कहना है कि सिन्हा के सहयोगियों ने उन्हें कहा कि सीबीआइ निदेशक की तरफ से सुप्रीम कोर्ट में झूठा हलफनामा दाखिल करना गंभीर अनुचित व्यवहार और न्यायालय की अवमानना की तरह देखा जायेगा और इसके परिणाम अच्छे नहीं होंगे.
सिन्हा के सहयोगियों ने उन्हें समझाया कि इस मामले में राजनीतिक नेतृत्व का तो बाल भी बांका नहीं होगा, लेकिन कोर्ट की पूरी गाज उन पर ही गिरेगी और इसका परिणाम उन्हें बाकी चीजों के साथ ही जेल जाने के तौर पर भी भुगतना पड़ सकता है. सिन्हा का ध्यान इस तथ्य की ओर भी दिलाया गया कि उनकी नियुक्ति अभी तुरंत हुई है और दो साल के तय कार्यकाल के समाप्त होने से पहले सरकार उन्हें पद से नहीं हटा सकती. इसे सच के पक्ष में खड़े होने के लिए सकारात्मक स्थिति के तौर पर पेश किया गया.
सरकारी सूत्रों का कहना है कि हालांकि सिन्हा ने सरकारी लाइन पर न चलने का मन बना लिया था, लेकिन उनके प्रमुख सहयोगियों की सलाह ने उनके फैसले मजबूती देने और सरकार की ताकत के खिलाफ खड़ा होने और इतिहास के पन्नों में तत्कालीन सरकार के घोषित स्टैंड के विपरीत हलफनामा दाखिल करने वाले पहले सीबीआइ प्रमुख के तौर पर दर्ज होने की इच्छाशक्ति को मजबूत करने का काम किया.
सूत्रों का कहना है कि एक बार जब सिन्हा ने सरकार को यह बता दिया कि उन्होंने अपनी राह चलने का फैसला कर लिया है, सरकारी गलियारों में एक तरह का हड़कंप मच गया.
सच्चाई यह है कि सीबीआइ प्रमुख द्वारा स्टेटस रिपोर्ट सरकार को दिखाने की विवेकहीनता के बीज शीर्ष जांच एजेंसी की हर चीज के लिए सरकार पर अतिशय निर्भरता में छिपे हैं.
उदाहरण के लिए यह सिर्फ एक महीने पहले की बात है जब दिल्ली की सबसे आधुनिक इमारतों में शुमार किया जानेवाला सीबीआइ का भव्य मुख्यालय बाहरी दुनिया से पूरी तरह काट दिया गया था. इसका कारण यह था कि सर्विस प्रोवाइडर ने सीबीआइ मुख्यालय के सभी लैंडलाइन फोन कनेक्शनों को बिल का भुगतान न होने के कारण बंद कर दिया था. जब सैकड़ों छोटी-छोटी बातों के लिए सीबीआइ को सरकार पर इस तरह निर्भर रहना पड़ता है, तो ऐसे में यह सीबीआइ निदेशक के लिए भी संभव नहीं है कि वह सीधे सरकार के विरोध में जाये.
उच्च सूत्र ने कहा कि सिन्हा ने जो किया उसे इसी रोशनी में देखा जाना चाहिए. इसके लिए वे कहीं ज्यादा तारीफ के हकदार है, न कि उनकी इस बात के लिए आलोचना की जानी चाहिए कि उन्होंने सरकार को स्टेटस रिपोर्ट क्यों दिखायी! सीबीआइ की सरकार पर निर्भरता तो जगजाहिर है, पर इसकी जांच में अकसर अभियोजन शाखा द्वारा छेड़छाड़ की जाती है, जो सीधे कानून मंत्रालय के प्रति जवाबदेह है.
शायद सुप्रीम कोर्ट में सिन्हा का हलफनामा अपने आप में इस तथ्य की मूक स्वीकृति है कि देश की शीर्ष जांच एजेंसी के पास अपने कामकाज संबंधी स्वायत्तता भी नहीं है. जब सुप्रीम कोर्ट में सिन्हा का हलफनामा विचार के लिए आया, तब सीबीआइ सुप्रीम कोर्ट के साफ -साफ दिशा-निर्देशों के विपरीत जाकर रिपोर्ट को राजनीतिक आलाकमान को दिखाये जाने के लिए कोर्ट की फटकार सुनने को तैयार हो कर आयी थी. लेकिन उम्मीद यही थी कि सुप्रीम कोर्ट बस यहीं तक नहीं रुक जायेगा और वह उस सरकार को भी निशाने पर लेगा, जिसने शीर्ष अधिकारियों पर इस बात का दबाव बनाया कि वह देश के न्यायिक तंत्र, जो कि हमारे लोकतंत्र का आधार है, की पवित्रता के साथ खिलवाड़ करे.
सुप्रीम कोर्ट ने अपने निर्देश में ऐसा ही किया है. मंगलवार को आयी उसकी यह टिप्पणी दूरगामी असरवाली है कि कोयला जांच संबंधी रिपोर्ट की सूचना सरकार के साथ साझा किये जाने ने पूरी प्रक्रिया की बुनियाद को ही हिला दिया है. सुप्रीम ने कहा कि उसका पहला काम सीबीआइ को राजनीतिक दखल से मुक्त करना है और सीबीआइ की स्वतंत्र स्थिति बहाल होनी चाहिए.
सीबीआइ को स्वायत्तता देने की मांग काफी समय से हो रही है अब सुप्रीम कोर्ट की इस टिप्पणी ने कि सीबीआइ को अपने राजनीतिक मालिकों से निर्देश लेने की जरूरत नहीं है, सीबीआइ की स्वतंत्रता के लिए पहला जरूरी काम कर दिया है. यह पूरा मामला सरकार और सीबीआइ के रिश्ते को नये सिरे से गढ़ सकता है.