आगामी बजट सही मायनों में मोदी सरकार का पहला बजट होगा, जिसमें उसकी आर्थिक नीतियों की सही अभिव्यक्ति होगी. जुलाई में पेश बजट यूपीए सरकार के अंतरिम बजट का ही प्रतिरूप था, क्योंकि तब नयी सरकार के पास नीतिगत निर्णय लेने के लिए समय की कमी थी. हालांकि प्रत्यक्ष विदेशी निवेश एवं विनिवेश को लेकर घोषणाएं की गयी थीं, जिन्हें आगे बढ़ाने की कोशिश आगामी बजट में दिख सकती है.
वित्त मंत्री अरुण जेटली ने कहा भी है कि आगामी बजट में दूसरे दौर के आर्थिक सुधारों की दिशा में तेजी से कदम उठाये जायेंगे. इसी मंशा से बीमा क्षेत्र में विदेशी निवेश, श्रम सुधार, कराधान, भूमि-अधिग्रहण जैसे मसलों से जुड़े कानूनों में फेरबदल भी प्रस्तावित हैं. इस तथ्य से ज्यादातर लोग सहमत हैं कि पहले दौर के सुधारों की शुरुआत 1991 में ऐसे वक्त में हुई थी, जब भारत को कर्ज चुकाने के लिए सोना गिरवी रखना पड़ा था.
लेकिन, आर्थिक सुधारों के चलते पिछले 24 वर्षो में देश की आर्थिक स्थिति में बड़ा बदलाव आया है. हालांकि विदेशी निवेश की स्थिति अब भी संतोषजनक नहीं है. बीते सितंबर व अक्तूबर में निर्यात में भारी कमी से व्यापार घाटा भी बढ़ा है. जुलाई के बजट में मौजूदा वित्त वर्ष का वित्तीय घाटा 4.1 फीसदी निर्धारित किया गया था, जिसका 83 फीसदी वर्ष के मध्य में ही पूरा हो चुका है. ऐसे में सुधारों की प्रक्रिया को एक नये दौर में ले जाना जरूरी है. लेकिन, हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि सुधारों के पहले दौर में आर्थिक असमानता, भ्रष्टाचार और काला धन भी बढ़ा है. इस दौरान कई खामियां भी सामने आयी हैं.
मसलन, सीएजी की हालिया रिपोर्ट में कहा गया है कि स्पेशल इकोनॉमिक जोन (सेज) के रूप में आवंटित भूमि का करीब 50 फीसदी उपयोग में नहीं है, जिससे 2007 से 2013 के बीच संभावित 83 हजार करोड़ रुपये की आय नहीं हो सकी. सेज से जिस स्तर पर रोजगार, निवेश, निर्यात बढ़ने की बात कही गयी थी, वह भी नहीं हुआ. ऐसे में नीतिगत बदलावों के साथ यह भी जरूरी है कि आर्थिक सुधार के पहले दौर की यात्रा की गहन समीक्षा हो और खामियों से सबक लिये जायें. उम्मीद करनी चाहिए कि सरकार सुधारों को आगे बढ़ाने में ‘सबका साथ सबका विकास’ के अपने नारे का भी ख्याल रखेगी.