चूंकि अधिकतर लोकगीत स्त्रियों द्वारा ही सामूहिक रूप से रचे और गाये जाते हैं, इसलिए उनमें स्त्री-जीवन का विस्तार बहुत है. एक गीत में प्रसव-पीड़ा का जैसा सांगोपांग वर्णन मिलता है, वैसा अन्यत्र दुर्लभ है.
पिछले पखवारे में पूरे मिथिलांचल में विद्यापति समारोहों की धूम रही. पहली बार मैंने अनुभव किया कि उस क्षेत्र में विद्यापति समारोह महज साहित्यिक उत्सव नहीं, बल्कि सामाजिक पर्व हो गया है. उनमें भी दरभंगा के विद्यापति समारोह की सुगंध तो देश की सीमा के पार भी जाती है. विशेष बात यह हुई कि इस वर्ष पहली बार मुङो उसमें आमंत्रित किया गया और ‘मिथिला विभूति’ सम्मान से नवाजा भी गया. इसी बहाने, मिथिला के विभिन्न क्षेत्रों की यात्र करते हुए मुङो मैथिली लोकगीतों से बहुत दिनों के बाद रूबरू होने का मौका मिला.
मैथिली लोकगीतों में आराध्य दंपति के रूप में शिव-पार्वती और राम-सीता के जीवन के मनोरम चित्र आंके गये हैं. ये चित्र शास्त्रीय वृत्तांतों से बिलकुल भिन्न हैं. अधिकतर पार्वती और सीता की व्यथा और सामथ्र्य पर ही ध्यान दिया गया है. एक गीत में गौरी को उस पर्वतीय मां के रूप में चित्रित किया गया है, जो घर का सारा काम करती है, दोनों बेटों का झगड़ा छुड़ाती है और समय पर भांग न पीसे जाने से नाराज होकर घर से भाग गये बौराहे पति को दौड़-दौड़ कर ढूंढ़ती भी है:
कातिक गनपति झगड़ा कैलनि, आपस में दुनू भाइ।
भांग छोड़ि हम झगड़ा छोड़ैलहुं, ततबहि गेला पड़ाय।।
हे बौरहवा रूसल जाय..
विवाह के बाद गौरी की गृहस्थी कैसे चलती है? महादेव मांग-चांग कर दो तम्मा धान लाते हैं और उसे बाघछला पर पसार देते हैं; बसहा (नन्दी) आकर उसे खा जाता है. गौरी अदहन चढ़ा कर नगर में चावल उधार मांगने जाती हैं, मगर भिखारी की पत्नी को कोई उधार नहीं देता है. गौरी को दिन भर यही चिंता सालती है कि शाम को जब महादेव आयेंगे, तो उन्हें क्या खाने को देगी!
मांगि-चांगि अयलन्हि महादेव तुम्मा दुइ धान। बाघ छाल देलनि पसारि, बसहा फुजि खायल। अधन जे देलनि चढ़ाय कि पैंचि जोहे गेलन्हि। केहन नगर केर लोक, पैंचि नहि देलन्हि। अदहन जे देलनि उतारि, बैसल मन मारि। आहे सांझ खने अओता महादेव, की लए बोधव हे..
पति या पुत्र चाहे कितना निकम्मा हो, उसके भरण-पोषण की चिंता भारतीय स्त्रियां अगर आज भी करती हैं, तो इसका कारण उनका गौरी को अपनी आराध्य आदर्श मानना भी है.
पार्वती की मां मेना नारद को कोसती हुई कहती हैं कि गौरी मात्र आठ बरस की है, जबकि शिव अस्सी बरस के बूढ़े हैं. दोनों का विवाह कैसे हो? केवल उम्र ही नहीं, पहनावा और खानपान भी भिन्न है:
हमरो गौरी छथि आठे बरस के। बुड़हा के असी उमेरिया हो।।
हमरो गौरी पहिरथि पीयर पिताम्बर। बूढ़ के सोभै बघम्बर हे।।
हमरो गौरी खाथि पूरी जिलेबी। बूढ़ के आक धथूर हे।।
मां पार्वती शिशु कार्तिकेय और गणपति को छाती से चिपका कर लेटी हैं कि शिव उन्हें उठ कर भांग पीसने का आग्रह करते हैं. पार्वती दोनों शिशुओं को छोड़ कर भांग पीसने से मना कर देती हैं:
भै गेल भांग क बेरा, उठू हे गौरा।
हम कोना उठब ईसर महादेव, कार्तिक गनपति मोरा कोरा।।
आसन खसाय दिय, कार्तिक सुताय दिय।
पीसि दिय भांग क गोला।
ने घर सासु, ननदियो नहि छथि। के राखत कार्तिक कोरा?
वन में सीता जब पुत्र को जन्म देती हैं, तो सर्वत्र हरियाली छा जाती है, क्योंकि वह धरती की बेटी हैं. वे चिंतित हैं कि वन में शिशु का गर्भनाल कौन काटेगा और कौन अयोध्या जाकर राम को सूचना देगा?
के मोरा मरुअन काटत, के खिरहर बुनत रे।
ललना के मोरा जायत, अजोध्या कि राम जनायत रे।।
इसमें सीता की एक इच्छा सुन कर किसी का भी मन भीग जायेगा:
मन छल पीयर पहिरतहुं, होरिला के गोदी लेतौं रे।
ललना राम दहिन भए बैसितहुं, कौसल्या रानी चुमबितथि रे।।
रामायण में लक्ष्मण सीता को रथ पर चढ़ा कर वाल्मीकि आश्रम पहुंचाते हैं, मगर लोकगीत की सीता वन में पैदल जाती हैं. रास्ते में उन्हें प्राणांतक प्रसव-पीड़ा शुरू हो जाती है, वनवासी स्त्रियां उन्हें सहारा देती हैं. शिशु का जन्म होता है. सीता का पत्र लेकर, वन का हजाम अयोध्या जाता है और राजा दशरथ, रानी कौशल्या, भाई लक्ष्मण को दिखाता है, मगर राम को नहीं दिखाता. निछावर में दशरथ धोती का जोड़ा, कौशल्या आभरण और लक्ष्मण सिर से पाग उतार कर उसे देते हैं. दतुवन करते हुए राम की नजर हजाम पर पड़ती है. वह बताता है कि वह सीता का पत्र लेकर आया है, जिसमें पुत्र होने की सूचना है. इसके बाद का चित्रण मार्मिक है. अत्यंत दुखी होकर राम अपने हाथ की उस मुद्रिका को देखते हैं, जिसे उन्होंने कभी सीता का पता लगाने के लिए हनुमान को दिया था और युद्ध समाप्ति पर सीता ने पुन: उनकी उंगली में पहनाया था. वे राम के दोषों को भूल कर सीता से अयोध्या लौट जाने का संदेश भेजते हैं, मगर अपमानित सीता अपने पत्र लिखने पर ही पछताने लगती है:
हंसि कए देखलनि लोचन हाथ क मुद्रिका रे।
ललना रे गुन अवगुन सीता बिसरथु आबथु अवधपुर रे।।
चूंकि अधिकतर लोकगीत स्त्रियों द्वारा ही सामूहिक रूप से रचे और गाये जाते हैं, इसलिए उनमें स्त्री-जीवन का विस्तार बहुत है. एक गीत में प्रसव-पीड़ा का जैसा सांगोपांग वर्णन मिलता है, वैसा अन्यत्र दुर्लभ है. जिस ग्रामीण स्त्री को रात में प्रसव-पीड़ा उठे और पास में कोई न हो, उसकी मन:स्थिति क्या होगी, इसका बहुत मार्मिक चित्रण इस गीत में है:
सासु जे सुतली मुनहर घर, ननदो कोहबर घर रे।
गोतनी जे सुतली अपन घर, कौने जगाएब रे।।
मिथिलांचल में नदियों का वर्चस्व है. प्राय: सभी नदियों को मां का दर्जा दिया गया है, मगर मां भागीरथी का स्थान सर्वोपरि है. एक गीत में गंगा को सिर पर बांस की छितनी में उठा कर चलते हुए किशोर वय के भगीरथ का मनोरम वर्णन किया गया है:
छोट मोट भगीरथ, छितनी कपार।
सेहो पुनि लओलाह सुरसरि धार।।
तिरहुत की नदियों में कमला और बलान की धार कोसी की भांति ही उग्र है. एक गीत में दोनों को मनाने के लिए तांत्रिक उपाय किये जाते हैं:
कथी दए बोधबन्हि मैया कमलेश्वरी, कथी दए बोधबन्हि बलान।
पाठी दए बोधबन्हि मैया कमलेश्वरी, परवा दए बोधबन्हि बलान।।
डॉ बुद्धिनाथ मिश्र
वरिष्ठ साहित्यकार
buddhinathji gmail.com