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इमरजेंसी से आगे का रास्ता

।। रामबहादुर राय ।।(वरिष्ठ पत्रकार)– इमरजेंसी के समाप्त होने पर लोकतंत्र की वापसी हुई. यह समझ लेने की जरूरत है कि भारत स्वभावत: एक लोकतांत्रिक राष्ट्र है, जिसे 1947 में एक राज्यतंत्र मिला. – इमरजेंसी से 1975 में इंदिरा गांधी की तानाशाही कायम हो गयी. उसे अनेक रूपों में याद किया जाता है. कुछ लोग […]

।। रामबहादुर राय ।।
(वरिष्ठ पत्रकार)
– इमरजेंसी के समाप्त होने पर लोकतंत्र की वापसी हुई. यह समझ लेने की जरूरत है कि भारत स्वभावत: एक लोकतांत्रिक राष्ट्र है, जिसे 1947 में एक राज्यतंत्र मिला. –

इमरजेंसी से 1975 में इंदिरा गांधी की तानाशाही कायम हो गयी. उसे अनेक रूपों में याद किया जाता है. कुछ लोग उसे भयावह रात मानते हैं, तो कुछ ऐसे भी हैं जो समझते हैं कि उस समय की सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक परिस्थितियों के कारण इंदिरा गांधी को इमरजेंसी लगानी पड़ी. जो ऐसा समझते हैं, वे एक तथ्य भूल जाते हैं.

12 जून, 1975 को अगर इलाहाबाद हाइकोर्ट ने इंदिरा गांधी के खिलाफ फैसला न सुनाया होता, तो इमरजेंसी नहीं लगती. उस फैसले से उन्हें प्रधानमंत्री पद छोड़ना पड़ता, जो उन्हें मंजूर नहीं था. अगर इसका सबूत चाहिए, तो शाह आयोग की रिपोर्ट में पश्चिम बंगाल के पूर्व मुख्यमंत्री सिद्धार्थ शंकर रे की गवाही को केवल पढ़ लें.

इंदिरा गांधी के साथ सिद्धार्थ शंकर रे 25 जून की सुबह राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद से मिलने गये. रास्ते में इंदिरा गांधी ने उनसे पूछा कि इमरजेंसी लगाने का निर्णय वह मंत्रिमंडल को बताये बिना लेना चाहती हैं. इसका उपाया क्या है? जो उपाय रे ने बताया उसे ही इंदिरा गांधी ने लागू किया. 26 जून की सुबह इंदिरा ने अपने मंत्रिमंडल को इसकी सूचना दी. इमरजेंसी का सिर्फ एक ही मकसद था- इंदिरा गांधी को प्रधानमंत्री पद पर बनाये रखना. इसके अब तो कई प्रमाण आ गये हैं.

लेकिन यह भी एक सच्चाई है कि इमरजेंसी के शुरुआती दिनों में जब देश सदमें था तब हालात सुधरने के भी लक्षण दिखे और वे आज भी लोगों को याद हैं. इसी कारण आज की जो भी परिस्थितियां हैं उन्हें देखते हुए कुछ लोग बोल पड़ते हैं कि इससे तो इमरजेंसी ही बेहतर थी. यह कुछ वैसा ही है जैसे कभी-कभार यह सुनने को मिल जाता है कि इससे से बेहतर तो अंग्रेजों का ही जमाना था. यह जटिल परिस्थिति का सरलीकरण है. भारत महादेश है. इसकी अपनी समस्याएं हैं. कुछ लोग उन समस्याओं को संकट के नजरिये से देखते हैं. समस्याएं अलग होती हैं और संकट अलग होता है.

इमरजेंसी के समाप्त होने पर लोकतंत्र की वापसी हुई. यह समझ लेने की जरूरत है कि भारत स्वभावत: एक लोकतांत्रिक राष्ट्र है, जिसे 1947 में एक राज्यतंत्र मिला. वह राज्यतंत्र औपनिवेशिक था और आज भी है. जिसे बदलने के प्रयास अनेक स्तरों पर आजादी के बाद से ही होने लगे थे. लेकिन, जिस तेजी से बदलाव होना चाहिए और जिसकी लोगों को अपेक्षा रहती है, वह नहीं हो पा रहा.

कुछ बुनियादी बातें हैं, जिनकी निरंतर उपेक्षा की जा रही है. उदाहरण के लिए यहां दो बातें बताना जरूरी है. पहली बात यह कि हमारा संविधान हमारी जरूरतों के मुताबिक नहीं बना है, पर जिन परिस्थितियों में संविधान बना वह असाधारण थी. इसीलिए बीएन राव के प्रारूप को मामूली फेरबदल से संविधान सभा ने स्वीकार कर लिया. किस प्रकार का लोकतंत्र हमारे लिए उपयोगी होगा, इस पर संविधान सभा की पूरी कार्यवाही में ढूंढ़ने पर भी कुछ नहीं मिलता. नेहरू ने मन बना लिया था और उसे लागू करा दिया. बगैर बहस हमने संसदीय लोकतंत्र अपना लिया.

हमारा संविधान 1935 के कानून की नकल है. उसकी यात्रा 1861 के इंडियन काउंसिल ऐक्ट से शुरू होती है. महारानी विक्टोरिया की घोषणा और 1861 का कानून अंग्रेजी साम्राज्यवाद का अगला चरण था. वहां से जो संवैधानिक सुधारों का सिलसिला चला, वही 1935 के कानून में क्रमश: रूपांतरित हुआ. इसे अगर किसी एक व्यक्ति ने तुरंत समझा, तो वह जयप्रकाश नारायण थे. उन्होंने अपने मित्र नेहरू को लिखा कि भारतीय राज्य व्यवस्था की पुनर्रचना जरूरी है.

यह बात 1959 की है. उसी जयप्रकाश नारायण ने इमरजेंसी से पहले के आंदोलन में ‘संपूर्ण क्रांति’ का नारा दिया. वह उसे परिभाषित करने के लिए समय नहीं निकाल सके. उसे जमीन पर उतारने के लिए एक लोकतांत्रिक ढांचा भी नहीं बना पाये. लेकिन वह विचार इतना ताकतवर है कि उससे अनेक शाखाएं फूटी हैं. उससे इतना तो हुआ ही है कि तमाम पश्चिमी विद्वानों की घोषणाओं को झूठा साबित करते हुए भारत एक लोकतांत्रिक देश बना हुआ है.

चुनाव समय पर हो रहे हैं. चुनाव से राजनीतिक वैधता प्राप्त हो रही है. संसदीय लोकतंत्र अपनी गति से चल रहा है. लेकिन, जो समस्याएं आजादी के वक्त थीं, वे ही अब विकराल रूप में सामने आ रही हैं. अंग्रेजों ने इंडिया बनाया. वह फलफूल रहा है. जो भारत है, वह समस्याओं से ग्रस्त है. उनसे पार पाने के लिए कोई भी तबका यह नहीं कहता कि देश में एक तानाशाह की जरूरत है. लेकिन, इसका खतरा बढ़ रहा है कि इसी लोकतांत्रिक प्रक्रिया से कोई तानाशाह पैदा हो जाये. ऐसा तभी हो सकता है जब लोग चारों ओर से निराश हो जाएं. निराशा के लक्षण कम नहीं हो रहे हैं, बढ़ ही रहे हैं.

फिलहाल देश एक गंभीर बहस के बीच है. यह बहस कई स्तरों पर चल रही है. उसका एक स्वरूप जो आम है, वह है- व्यवस्था परिवर्तन की बलवती हो रही मांग. इसका एक अर्थ यह है कि बहस का केंद्रीय बिंदु लोकतांत्रिक राजनीति है. दूसरा अर्थ भी इसी से जुड़ा है कि इस लोकतांत्रिक राजनीति में नागरिक समाज और गैरदलीय राजनीति की सहभागिता कैसे हो और उसका स्वरूप क्या हो? पहले से एक फर्क आया है. राजनीतिक दलों का रुख बदला है. उनमें भी सोच-विचार प्रारंभ हुआ है. पहले वे नागरिक समाज की भूमिका को हस्तक्षेप से अधिक संदेह की नजर से देखते थे. अब इस हकीकत को स्वीकार किया जाने लगा है.

देश में हर जगह अपने-अपने स्तर पर बदलाव के संस्थाबद्ध प्रयास हो रहे हैं. हालांकि उनमें तालमेल का अभाव है. इनमें विविधता भी है और परस्पर विरोधी रुख भी है. लेकिन एक बात माननी होगी कि इन प्रयासों से राज्यतंत्र में कुछ खुलापन और जवाबदेही का तत्व आया है. हम जानते हैं कि संसदीय लोकतंत्र की बुनियाद में जवाबदेही का सिद्धांत होता है.

सूचना के अधिकार का कानून आखिरकार सरकार को बनाना पड़ा. लेकिन राज्यतंत्र उस पर नियंत्रण के उपाय भी खोजता रहता है. जो बड़ी मांग है और वह आज की नहीं, 45 साल पुरानी है, वह लोकपाल के गठन की है. ऐसा भी नहीं है कि उसके गठन मात्र से भ्रष्टाचार समाप्त हो जायेगा, लेकिन इतना तो होगा ही कि लोकतांत्रिक राजनीति को एक बड़ी सफलता मिलेगी.

भारत में लोकतंत्र और कॉरपोरेट तंत्र का जो द्वंद्व दो दशक से छिड़ा हुआ है, वह हमारी समस्याओं को संकट में बदल रहा है. उत्तरपूर्व के राज्यों की अशांति, आतंकवाद और माओवादियों की राजनीतिक चुनौती को उदाहरण के तौर पर लिया जा सकता है. इनका सामना और समाधान कैसे हो? भारत के राज्यतंत्र के लिए यह यक्ष प्रश्न है. हमें संस्थाओं, चाहे वह संसद हो या राजनीतिक दल या अफसरशाही या न्यायपालिका की गिरावट पर चिंता प्रकट करने के बजाय यह सोचना होगा कि लोकतांत्रिक राजनीति का नया रूप क्या हो, जिसमें साधारण नागरिक अपने अधिकार पा सकें.

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