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।।सुरेंद्र किशोर।।(वरिष्ठ पत्रकार)इस देश में 1975 में लगे आपातकाल के खतरे को याद रखना जरूरी है. उसके खतरे को आज की पीढ़ी को भी जानना चाहिए, ताकि नयी पीढ़ी किसी तानाशाह को उसकी पुनरावृत्ति न करने दे. आपातकाल तो 25 जून को लगा, पर उसकी पृष्ठभूमि 12 जून को ही तैयार हो चुकी थी. दरअसल […]

।।सुरेंद्र किशोर।।
(वरिष्ठ पत्रकार)
इस देश में 1975 में लगे आपातकाल के खतरे को याद रखना जरूरी है. उसके खतरे को आज की पीढ़ी को भी जानना चाहिए, ताकि नयी पीढ़ी किसी तानाशाह को उसकी पुनरावृत्ति न करने दे. आपातकाल तो 25 जून को लगा, पर उसकी पृष्ठभूमि 12 जून को ही तैयार हो चुकी थी. दरअसल 12 जून को इलाहाबाद हाइकोर्ट का एक फैसला आया था.

अदालत ने भ्रष्ट तरीके अपनाने के आरोप में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का चुनाव रद कर दिया था. इंदिरा जी ने 1971 में रायबरेली लोकसभा क्षेत्र में सोशलिस्ट नेता राज नारायण को हराया था. इसके साथ ही गुजरात से भी कांग्रेस को एक बुरी खबर मिली थी. वहां के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की हार हो गयी थी.

इन दो फैसलों के बाद संजय गांधी ने केंद्र सरकार के कामकाज में भारी हस्तक्षेप करना शुरू कर दिया था. उन्हें संविधानेत्तर सत्ता का केंद्र कहा जाता था. तब इंद्र कुमार गुजराल सूचना व प्रसारण मंत्री थे. आइएएस अधिकारी बिशन टंडन प्रधानमंत्री सचिवालय में संयुक्त सचिव थे. टंडन डायरी लिखते थे. उन्होंने प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू को लोकतांत्रिक ढंग से काम करते हुए देखा था. इसके विपरीत इंदिरा और संजय गांधी के कामकाज उन्हें अटपटा लग रहे थे.

टंडन की डायरी प्रकाशित हो चुकी है. 21 जून, 1975 को अपनी डायरी में टंडन जी ने जो कुछ लिखा, वह यह समझने के लिए काफी है कि आपातकाल की आहट पहले ही से आने लगी थी. इंदिरा जी और संजय गांधी को खटकने लगा था कि गुजराल इंदिरा जी के पक्ष में मीडिया का भरपूर इस्तेमाल नहीं कर रहे हैं. टंडन जी लिखते हैं, ‘आज गुजराल से पता चला कि उन्हें संजय गांधी ने बुला कर बहुत फटकारा कि कल की रैली का प्रचार ठीक से नहीं हुआ. प्रधानमंत्री के पक्ष में जो प्रचार हो रहा है, वह भी अपर्याप्त है. गुजराल को बुरा लगा कि संजय उन्हें डांटे-फटकारे. उन्हें बुलाया गया प्रधानमंत्री के नाम पर, लेकिन मिलने को कहा गया संजय से.

प्रधानमंत्री से उनकी भेंट भी अप्रिय रही. प्रधानमंत्री ने प्रचार की अपर्याप्तता पर अप्रसन्नता प्रकट की और कहा कि मोरारजी देसाई के घर पर जो प्रदर्शन होगा, उसका बहुत व्यापक प्रचार होना चाहिए. प्रधानमंत्री ने इच्छा प्रकट की कि वे रेडियो और टीवी स्क्रिप्ट देखना चाहेंगी. और, केवल इसी घटना से संबंधित नहीं, हर समाचार बुलेटिन प्रसारित होने से पहले उन्हें दिखाया जाये. गुजराल ने प्रधानमंत्री से कहा कि स्क्रिप्ट बुलेटिन आदि तो सामान्यत: वे भी कभी पहले नहीं देखते. इस पर प्रधानमंत्री ने बिगड़ते हुए कहा कि यदि आप पहले से नहीं देखते तो सूचना मंत्री किस बात के हैं? खैर आप देखें या नहीं देखें, हम देखना चाहते हैं.

टंडन ने अपनी डायरी में लिखा कि बाद में पता चला कि 20-25 आदमी मोरारजी के घर गये थे. कुछ लोगों ने पथराव किया. पर जब तक मोरारजी बाहर निकले तो वे सब गायब हो गये. पता नहीं इसका कितना प्रचार रेडियो और टीवी ने किया. शेषन से गुजराल अपना दुखड़ा रो रहे थे. मैं चुपचाप सुन रहा था. शेषन तब प्रधानमंत्री के निजी सचिव थे. यदि गुजराल को इतना ही बुरा लग रहा है तो वे त्यागपत्र क्यों नहीं दे देते?

कांग्रेस नेताओं और मंत्रियों ने आज प्रधानमंत्री के विरुद्घ डर के कारण कुछ भी न कहने का जो रवैया अपना रखा है, उसी से तो प्रधानमंत्री की शक्ति इतनी बढ़ गयी है. एक ओर तो वे प्रधानमंत्री से सही और सच बात कहने से डरते हैं, पर दूसरी ओर इधर-उधर अपना रोना भी रोते हैं. पंडित नेहरू के समय उनके वरिष्ठ साथियों को उनसे खुल कर बात करने में कोई हिचकिचाहट नहीं थी और न पंडित जी को कभी यह बुरा लगता था. मुङो स्वयं यह जानकारी है कि गाजियाबाद में भूमि अधिग्रहण के समय उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्र भानु गुप्त ने प्रधानमंत्री को कितना स्पष्ट लिखा था. वही एक अवसर था, जब मैं पंडित जी से उनके कार्यालय में मिला था.

गुप्ता जी ने पंडित जी से कहा था कि यदि वे इस विषय पर विस्तार से बात करना चाहते हैं, तो वे मुङो उनके पास भेज देंगे. तब बिशन टंडन मेरठ के कलक्टर थे. बाद में मैं और ज्ञान प्रकाश पंडित जी से मिलने आये थे. स्वर्गीय अमीर रजा भी केंद्र की ओर से मौजूद थे. यह सितंबर, 1963 की बात है. अंतत: जिस आधार पर हम काम कर रहे थे, उसे ही पंडित जी ने भी स्वीकार किया. लेकिन आज यदि प्रधानमंत्री किसी बात पर अड़ जायें, तो उनके वरिष्ठ सहयोगी भी उनसे बात करने की हिम्मत नहीं रखते.

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