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तो न ही पूजें देश के महापुरुषों को!
देश के राजनेता और राजनीति किस दिशा में जा रहे हैं, इसका अंदाजा किसी को नहीं है. सभी भेड़चाल के शिकार हो रहे हैं. नेता मनमाने तरीके से कभी मतदाताओं को तो कभी जाति और धर्म को बांट रहे हैं. यह नेताओं की ही देन है कि आज देश में दो तरह की विचारधारा ने […]
देश के राजनेता और राजनीति किस दिशा में जा रहे हैं, इसका अंदाजा किसी को नहीं है. सभी भेड़चाल के शिकार हो रहे हैं. नेता मनमाने तरीके से कभी मतदाताओं को तो कभी जाति और धर्म को बांट रहे हैं.
यह नेताओं की ही देन है कि आज देश में दो तरह की विचारधारा ने जोर पकड़ रखा है. एक तरफ सांप्रदायिक विचारधारा के कट्टर राष्ट्रवादी और हिंदूवादी लोग हैं, दूसरी ओर धर्मनिरपेक्ष कहे जाने वाले लोग हैं. देश के नेताओं ने फूट की पराकाष्ठा को पार करते हुए अब तो महापुरुषों का भी बंटवारा कर लिया है. देश में जबसे भाजपानीत गंठबंधन की सरकार बनी है, विपक्षी विचारधारा के महापुरुषों की जन्मतिथि और पुण्यतिथि पर श्रद्धासुमन अर्पित करने का कार्यक्रम सरकारी कैलेंडर से गायब हो गया है.
इससे पहले यदि कांग्रेसनीत गंठबंधन की सरकार थी तो तथाकथित राष्ट्रवादी- हिंदूवादी महापुरुषों का नाम व कार्यक्रम गायब हो गया था. यह समझ में नहीं आता कि राजनेता और देश के ये शासक जिन-जिन महापुरुषों को अपने कैलेंडर से अपने-अपने शासन में गायब करते हैं, क्या उनकी देश की आजादी में भूमिका नहीं रही है? क्या वे लोग भारत के महान सपूत नहीं थे? क्या भगत सिंह और सरदार पटेल सिर्फ हिंदूवादियों के ही महापुरुष हैं या फिर पंडित नेहरू और महात्मा गांधी सिर्फ कांग्रेसियों के ही महापुरुष हैं?
क्या रवींद्र नाथ टैगोर, सुभाष चंद बोस, खुदीराम बोस और बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय सिर्फ बंगाल के ही महापुरुष थे? इसका एक ही जवाब है कि नहीं. ये सभी देश के सर्वमान्य और सार्वभौमिक नेता और महापुरुष हैं. लेकिन देश के नेताओं ने जिस तरह से इनका बंटवारा शुरू किया है, उससे तो अच्छा यही है कि देश के महापुरुषों को कोई न ही पूजे.
यांचा कुमारी, हंटरगंज
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