पिछले महीने गंभीर विचार राजेश्वर सक्सेना ने बिलासपुर में एक बातचीत में हिंदी के प्रमुख समकालीन कवि अरुण कमल की मशहूर काव्य-पंक्ति ‘सारा लोहा उन लोगों का, अपनी केवल धार’ के तर्ज पर यह पंक्ति कही थी- ‘सारा लोहा मनमोहन का, मोदी की बस धार.’ मनमोहन सिंह और नरेंद्र मोदी में किसी प्रकार की तुलना या समानता कइयों को गलत लग सकती है, पर सच्चई यह है कि दोनों की आर्थिक नीतियों में कोई भिन्नता नहीं है.
राजिंदर पुरी ने अपनी एक संक्षिप्त वैचारिक टिप्पणी ‘मोदी-मुक्त भारत’ (द स्टेट्समैन, नयी दिल्ली, 13 अक्तूबर 2014) में मोदी को अपने द्वारा मनमोहन सिंह के ‘हृष्ट-पुष्ट रूपांतर’(मसक्यूलर वर्जन) पहल कहे जाने की बात कही है. वे मनमोहन सिंह और नरेंद्र मोदी दोनों को ‘अंतरराष्ट्रीय कॉरपोरेट लॉबी की सृष्टि’ (क्रीचर्स) कहते हैं. दोनों में कोई भिन्नता नहीं है. राजिंदर पुरी ने प्रश्न किया है कि क्या वे राहुल और सोनिया गांधी की तुलना में एक ‘अच्छे कांग्रेसी’ हैं? सरकार बदल चुकी है और राजनीतिक संस्कृति और व्यवस्था में परिवर्तन हुआ है. नीतियों में नहीं.
मनमोहन सिंह ने जिस ‘एनिमल स्पिरिट’ (जिंदादिली) की बात कही थी, वह उनमें नहीं थी. नरेंद्र मोदी में है. कॉरपोरेट भारत के निर्माण में मनमोहन सिंह की भूमिका है और उसके विकास में नरेंद्र मोदी की. भारत कॉरपोरेटीकरण की प्रक्रिया से गुजर रहा है. इस समय उन राजनीतिक दलों का महत्व नहीं है, जो कॉरपोरेट संस्कृति को समझने में असमर्थ हैं. कांग्रेस राजनीतिक दल से कहीं अधिक एक संस्कृति थी- सत्ता-संस्कृति, जिसके प्रभाव या अनुकरण में सभी दल कमोबेश शामिल हुए. वामपंथी दलों ने भी कांग्रेस संस्कृति अपना कर, समय-समय पर उनका साथ देकर अपनी पहचान नष्ट की. भाजपा भी कांग्रेस संस्कृति को अपना रही थी. कांग्रेस संस्कृति को कॉरपोरेट संस्कृति ने समाप्त किया. अर्थशास्त्री मनमोहन सिंह के वित्त मंत्री बनने (1991) के बाद भारतीय राजनीति और अर्थव्यवस्था में जो बदलाव आरंभ हुए, वे नेहरू की राजनीति व अर्थव्यव्यवस्था से सर्वथा भिन्न थे.
पटरियां जल्द बदल नहीं सकती थीं, पर उसका ब्लू-प्रिंट सामने था. यह कार्य 1999 से आरंभ होने लगा. तीन नये राज्यों का गठन बहुत सोच-समझ कर किया गया. इक्कीसवीं सदी का भारत बीसवीं सदी के भारत से सर्वथा भिन्न है. इतिहास फैसला करेगा कि एक दशक तक मनमोहन सिंह का प्रधानमंत्री बने रहना कांग्रेस और भारत के लिए कितना लाभदायक रहा या यंत्रणादायक? सेंसेक्स जितना उछला हो, लोकतंत्र में गिरावट आयी. भारत में लोकतंत्र पर सर्वाधिक विचार पिछले दो दशकों में हुआ. विपक्ष निरंतर कमजोर होता रहा और आज हालत यह है कि लोकसभा में कोई विपक्षी दल नहीं है. हरियाणा विधानसभा चुनाव में भाजपा कॉरपोरेट ग्रोथ की तरह चार से 47 पर पहुंच चुकी है. महाराष्ट्र में भाजपा को कभी 122 सीट नसीब नहीं हुई थी. चुनाव होते रहेंगे, सरकार बनती रहेगी. इससे कोई बड़ा फर्क नहीं पड़ता. बड़ा फर्क नीतियों से पड़ता है.
मनमोहन सिंह की नीति और मोदी की नीति में क्या सचमुच कोई फर्क है? नीतियों के कार्यान्वयन में फर्क दिखाई देगा, पर नीतियों में नहीं. लोहा वही है, धार कहीं अधिक तेज, पैनी और नुकीली है. इस धार से बहुत कुछ कटता चला जायेगा. इसमें बाजार, प्रचार, विज्ञापन और मीडिया की धार भी शामिल है. मोदी लहर यही धार है. अमित शाह जब बार-बार मोदी लहर को सुनामी लहर कहते हैं, तो वे यह भूल जाते हैं कि सुनामी ने कितनी क्षति पहुंचायी थी! सुनामी का दूसरा अर्थ तबाही भी है. धारदार नीतियों में कितनी धारणीय हैं- यह भी देखना चाहिए. बहुत कुछ स्वत: कटता चला जायेगा.
कल तक नेताओं के हाथों में समारोहों-आयोजनों में तलवारें रहा करती थीं. अब उनकी जरूरत नहीं होगी. मोदी के सामने सब हक्के-बक्के हैं. लगभग निरूपाय. उनके हक्काहक्क (चुनौती, ललकार) से सब परिचित हैं. वे अपने हक्कार (आह्वान, पुकार) से लोगों को प्रभावित कर रहे हैं. निरंतर सुर्खियों में वे हैं. उनका दिमाग कहीं अधिक तेज है. विज्ञापन प्रचार-कला में वे दक्ष हैं. गांधी के बाद उन्होंने नेहरू और इंदिरा को कांग्रेस से लगभग छीन लिया है. आयोजन-कार्यक्रमों की घोषणा के तहत. दूसरी ओर नेहरू संघ के निशाने पर हैं. अभी भाजपा नेता गोपाल कृष्णन ने यह कहा है कि गोडसे को गांधी की हत्या न करके नेहरू की हत्या करनी चाहिए थी. 31 अक्तूबर अब राष्ट्रीय एकता दिवस घोषित किया जा रहा है.
मनमोहन सिंह में यह कला नहीं थी. नवउदारवादी अर्थव्यवस्था लागू करने के बाद भी वे यह समझने में असमर्थ रहे कि इसके साथ बाजार, विज्ञापन और मीडिया है. वे खांटी कांग्रेसी भी नहीं थे. उनके कार्यकाल में जितने घोटाले हुए, वे उदाहरण हैं. मोदी अनेक कलाओं में निष्णात हैं. उनकी वक्तृत्व-कला से सब प्रभावित हैं, पर उनके मुहावरों के वास्तविक आशयों-अर्थो पर लोगों का कम ध्यान जाता है. कॉरपोरेट की तरक्की में भारतीय कानून व्यवधान है. मोदी कानून खत्म करने की बात करते हैं. कानून रहते सब निरंकुश नहीं हो सकते. कानून की समाप्ति का संबंध न्यायपालिका से है. मीडिया वास्तविक भारत से मुंह फेर चुका है. न्यायपालिका पर, कम ही सही, कुछ उम्मीदें टिकी हुई हैं.
मोदी की ‘लोकप्रियता’ लोककल्याणकारी नीतियों के कारण नहीं है. उसके पीछे अपने प्रति लोगों को भरोसा दिलाना है. जनता राजनीतिक दलों और नेताओं से लगभग ऊबी हुई है. महाराष्ट्र में कांग्रेस-राकांपा का शासन लंबे समय से था. अब वहां कांग्रेस तीसरे नंबर पर है. हरियाणा में भी. महाराष्ट्र में भाजपा की सरकार बनेगी. 288 विधायकों में से वहां 165 विधायकों पर आपराधिक मुकदमे दर्ज हैं. पचास प्रतिशत से अधिक विधायक ‘अपराधी’ हैं. भाजपा के 74 विधायकों (लगभग साठ प्रतिशत) पर आपराधिक केस हैं. क्या भावी मुख्यमंत्री देवेंद्र फड़नवीस का इस ओर ध्यान रहेगा?
पुराना बहुत कुछ मिटेगा. मिलाया जायेगा. आस्था बढ़ेगी. धर्म के प्रति लोगों को उन्मुख किया जायेगा. कई स्तरों पर, कई रूपों में कार्य होंगे. हो रहे हैं. मोदी अकेले मार्गदर्शक हैं. आडवाणी-जोशी कहने के लिए ‘मार्गदर्शक’ हैं. उन्हें मार्ग दिखाया जा चुका है. परतंत्र भारत में यह प्रश्न प्रमुख था ‘ह्विदर इंदिया.’ इक्कीसवीं सदी के भारत का मार्ग भारतीय नेताओं ने नहीं, कॉरपोरेट, निगमों ने, अमेरिका ने बना डाला है. यह ‘विकास-मार्ग’ है. भारत में मनमोहन सिंह इसके जनक थे, मोदी ‘फॉलोअर’ हैं. अब वे मनमोहन सिंह से कहीं बड़े हैं. मनमोहन सिंह के लोहे में धार कम थी. मोदी के यहां केवल धार है.