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घातक है ‘चलता है’ की मनोवृत्ति

देश की अर्थव्यवस्था की बेहतरी और बड़े पैमाने पर रोजगार-सृजन के लिए निर्माण क्षेत्र को मजबूत करने के अलावा कोई विकल्प नहीं है. निर्यात की तुलना में आयात की मात्र बहुत अधिक होने से व्यापार संतुलन हमारे पक्ष में नहीं है. विदेशी पूंजी का निवेश भी संतोषजनक नहीं है. समुचित संस्थागत आधार के अभाव में […]

देश की अर्थव्यवस्था की बेहतरी और बड़े पैमाने पर रोजगार-सृजन के लिए निर्माण क्षेत्र को मजबूत करने के अलावा कोई विकल्प नहीं है. निर्यात की तुलना में आयात की मात्र बहुत अधिक होने से व्यापार संतुलन हमारे पक्ष में नहीं है.

विदेशी पूंजी का निवेश भी संतोषजनक नहीं है. समुचित संस्थागत आधार के अभाव में निर्माण की नयी संभावनाओं को वास्तविकता में बदलना तो दूर, निर्यात की वर्तमान क्षमता का भी सही दोहन नहीं हो पा रहा है. इस स्थिति में बिना किसी बड़ी और भरोसेमंद पहल के गरीबी, बेरोजगारी, महंगाई जैसी समस्याओं का मुकाबला कर पाना असंभव है. इसके लिए सरकारी संस्थाओं, नीतियों, नियमों और योजनाओं के परस्पर समायोजन के साथ दूरदर्शी राजनीतिक नेतृत्व की आवश्यकता है.

ऐसे में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा घोषित ‘मेक इन इंडिया’ की महत्वाकांक्षी पहल से भारत के आर्थिक विकास की नयी उम्मीदें जगी हैं. कुछ दशकों में ही चीन जिस गति से आर्थिक महाशक्ति बन कर उभरा है, उसके आधार में निर्माण क्षेत्र का विकास ही है. यह मात्र संयोग नहीं है कि नरेंद्र मोदी की ‘मेक इन इंडिया’ घोषणा के साथ ही चीन ने ‘मेड इन चाइना’ अभियान की शुरुआत कर दी है. चीन की यह त्वरित प्रतिक्रिया चुनौतियों का सीधे सामना करने की उसकी कार्यसंस्कृति का परिचायक है. एशिया में एक और विशाल निर्माण-क्षेत्र का विकास उसके प्रभाव और विस्तार पर नकारात्मक असर डाल सकता है.

स्वयं भारत का चीन के साथ व्यापार घाटा 36 अरब डॉलर है. भारत अपने निर्माण में तेजी लाकर इस घाटे को कम कर सकता है. चीनी पहल का जोर उच्च श्रेणी के तकनीक के आयात और शोध के स्तर को बढ़ाने पर है. इसके लिए करों में बड़े पैमाने पर छूट का भी प्रस्ताव है, जो 2013 में चीन के कुल नकद आमद का लगभग आठ फीसदी तक हो सकता है. ‘मेड इन चाइना’ की एक विशेषता उसके विकास के आधार लघु और मध्यम श्रेणी के उद्यमों की तकनीकी गुणवत्ता को बढ़ाना है. बहरहाल, मोदी के ‘मेक इन इंडिया’ को असली चुनौती जिनपिंग के ‘मेड इन चाइना’ से नहीं है.

भारत में संरचनात्मक परिवर्तन और विकास की परियोजना में सबसे बड़ा रोड़ा हमारे काम-काज और प्रबंधन का रवैया है. मोदी की योजना पर चीन समेत पूर्व एशिया के देशों में हुए त्वरित आर्थिक विकास के मॉडल का बड़ा असर है और हम आगे भी उन देशों से बहुत कुछ सीख सकते हैं, लेकिन उससे पहले हमें अपनी मूलभूत कमियों को दूर करना होगा. भारत समेत एशिया का तीन दशकों से अध्ययन कर रहे वरिष्ठ पत्रकार जॉन इलियट ने हाल में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘इंप्लोजन : इंडिया ट्रिस्ट विद रियलिटी’ में ‘जुगाड़’ और ‘चलता है’ की भारतीय मनोवृत्ति को देश की असफलता का कारण बताते हुए लिखा है कि ‘अपने ही बोझ से दबा भारत वह हासिल करने में असफल रहा है, जो वह हासिल कर सकता है और जो उसे हासिल करना चाहिए.’ शिथिल मानसिकता के साथ-साथ भ्रष्टाचार हमारे सार्वजनिक जीवन का कटु सत्य है.

इलियट ने रेखांकित किया है कि यह एक ऐसी जगह है, ‘जहां राजनेता और नौकरशाह व्यापारियों के साथ मिल कर देश की संपत्ति लूटते हैं, गरीबों को जीने की बुनियादी जरूरतों व मदद से वंचित करते हैं, जमीन से लेकर कोयला और वन्य-जीवों तक के प्राकृतिक संसाधनों की चोरी करते हैं तथा राजनीतिक वंशवाद की आड़ में धन का संरक्षण करते हैं.’ कुछ दिन पहले ही कोयला खदानों के आवंटन पर सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय और काला धन का मुद्दा इसके ठोस उदाहरण हैं.

इन मामलों में चीन हमसे बहुत अलग है. काम और लक्ष्य के प्रति अनुशासन, भ्रष्टाचार पर कठोर नियंत्रण और व्यापारिक प्रबंधन की गुणवत्ता में उससे हमारी कोई तुलना ही नहीं है. ‘मेक इन इंडिया’ की घोषणा के तुरंत बाद कांग्रेस ने दावा किया कि यूपीए सरकार ने ऐसी ही योजना 2010 में ही शुरू कर दी थी.

कांग्रेस को इस दावे के साथ यह भी बताना चाहिए कि उस योजना का परिणाम क्या हुआ. बिना किसी उत्तरदायित्व-बोध के श्रेय लेने का होड़ भी हमारे राजनीतिक तंत्र का चरित्र बन चुका है. अब जबकि वैश्विक अर्थतंत्र में हम काफी पीछे हैं, और चीन, जापान, दक्षिण कोरिया जैसे देश आर्थिक स्थिति में हमसे वर्षो आगे हैं, हमें अपने राष्ट्रीय चरित्र पर गंभीर आत्ममंथन करना होगा. इस प्रक्रिया में जॉन इलियट की यह सलाह बहुत महत्वपूर्ण है कि ‘सुदृढ़ और निष्पक्ष संस्थाओं के द्वारा संपत्ति व शासन में हिस्सेदारी के साथ समावेशी आर्थिक विकास सरकारों का मिशन होना चाहिए.’

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