बिहार के बारे में सालाना हेल्थ सैंपल सर्वे (2012-13) की ताजा रिपोर्ट बताती है कि यहां पैदा होनेवाले बच्चों में से करीब 22 फीसदी, सामान्य से कम वजन के होते हैं.
नवजात के लिए ढाई किलोग्राम तक के वजन को सामान्य माना जाता है. इसी रिपोर्ट के मुताबिक ग्रामीण इलाकों की तुलना में शहरी इलाकों में कमवजनी बच्चों की संख्या ज्यादा है.
बिहार के ऐसे दस जिलों को चिन्हित किया गया है. यह तथ्य सचमुच चौंकाने वाला है कि जब ग्रामीण इलाकों की तुलना में शहरों में स्वास्थ्य सुविधाओं की पहुंच ज्यादा है, रहन-सहन का स्तर तुलनात्मक रूप से ऊंचा है और अपेक्षाकृत ज्यादा शिक्षित लोग रहते हैं, तो फिर ऐसी स्थिति क्यों? इस रिपोर्ट में उभरे तथ्यों को गहराई से समझने के लिए जरूरी है कि इसे बिहार के सामाजिक-आर्थिक ढांचे में रख कर देखा जाये. बच्चे कमवजनी पैदा हो रहे हैं, तो इसका सीधा अर्थ है कि गर्भवती माताओं की देखरेख में कहीं-न-कहीं कमी है. उन्हें समय पर डॉक्टरी सलाह नहीं मिल रही है. पौष्टिक भोजन में कमी है या फिर जरूरी दवाइयां नहीं मिल रही हैं. गर्भवती का सही तरीके से पोषण नहीं होगा, तो जाहिर है कि गर्भ में पल रहे शिशु पर इसका प्रभाव पड़ेगा.
ऐसी स्थिति के लिए हमारे परिवार व समाज का स्त्रियों के प्रति नजरिया भी जिम्मेवार है, जो हमारे जीवन शैली में रच-बस चुका है. यह रिपोर्ट उन सरकारी योजनाओं पर भी सवाल उठाती है, जो गर्भवती औरतों की देखरेख और उन्हें बेहतर स्वास्थ्य सुविधा मुहैया कराने के नाम पर चलायी जा रही हैं. कुछ योजनाएं समाज को जागरूक बनाने के नाम पर चलायी जा रही हैं, तो कुछ के तहत गर्भवती औरतों को चिकित्सकीय सहयोग दिया जाता है. इस रिपोर्ट के संदर्भ में ऐसी योजनाओं के कामकाज की गहन समीक्षा होनी चाहिए. यह मुद्दा इसलिए भी गंभीर है कि यह सीधे तौर पर प्रदेश के मानव संसाधन विकास से जुड़ा है. ऐसे में आंकड़ों का विश्लेषण कर सिर्फ चिंता प्रकट करने के बजाये स्थिति में सुधार के लिए ठोस कार्य योजना तैयार करने की जरूरत है. बच्चे कमजोर होंगे, तो निश्चित तौर पर उनकी प्रतिरोधक क्षमता कम होगी और उनमें बीमारी की आशंका ज्यादा होगी. सवाल है कि कमजोर नींव के बल पर बुलंद इमारत कैसे खड़ी की जा सकती है?