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सरकारी पाखंड का मूलाधार चक्र!

आज का कटु यथार्थ यह है कि करोड़ों रुपये हर साल कर्मचारियों के निमित्त हिंदी प्रोत्साहनों और राजभाषा समारोहों पर खर्च करने के बावजूद केंद्र सरकार के कार्यालयों में हिंदी कामकाज की भाषा नहीं बन पायी है. भारत सरकार के समस्त कार्यालयों, बैंकों और उपक्रमों में राजभाषा हिंदी का प्रयोग बढ़ाना एक व्यापक काम है, […]

आज का कटु यथार्थ यह है कि करोड़ों रुपये हर साल कर्मचारियों के निमित्त हिंदी प्रोत्साहनों और राजभाषा समारोहों पर खर्च करने के बावजूद केंद्र सरकार के कार्यालयों में हिंदी कामकाज की भाषा नहीं बन पायी है.
भारत सरकार के समस्त कार्यालयों, बैंकों और उपक्रमों में राजभाषा हिंदी का प्रयोग बढ़ाना एक व्यापक काम है, जिसके समन्वय का भार गृह मंत्रालय को दिया गया, क्योंकि सरकारी नौकरशाही की विशाल सेना का नियंत्रण यही मंत्रालय करता है. सोचा यह गया था कि गृह मंत्रालय अपने नौकरशाहों को यदि राजभाषा के कार्यान्वयन में लगा देगा, तो संविधान द्वारा निर्धारित 15 वर्ष की अवधि में केंद्र की राजभाषा हिंदी सरकारी कार्यालयों में बहुत हद तक अंगरेजी का स्थान ले लेगी. इसके लिए गृह मंत्रालय में विशाल ‘राजभाषा विभाग’ खोला गया, जिसमें अन्य विभागों की भांति ही सचिव, संयुक्त सचिव, उपसचिव, निदेशक, उपनिदेशकों की सेना तैयार की गयी.
ब्रिटिश सरकार ने आइसीएस सेवा (जो स्वतंत्र भारत में आइएएस बन गया) अपने वफादार व चालाक लोगों को तमाम अधिकारों से लैस कर भारतीय रैयतों पर डंडामार हुकूमत करने के लिए बनायी थी. उनके जाने के बाद इस सेवा का डीएनए बदल जाने की आशा थी, जो मूर्खतापूर्ण साबित हुई. वे लोग ‘सेवा’ का बिल्ला लगा कर भी ‘शासन’ ही करते रहे. आदतन वे शासन की भाषा अंगरेजी मानते रहे, क्योंकि इससे उनके बच्चों को ग्रामीण प्रतिभाशाली बच्चों से रसूखदार पद छीनने में सुविधा होती. इसलिए राजभाषा विभाग में सचिव या संयुक्त पद पर उनकी तैनाती उनके लिए असहज थी. यह वैसे ही है, जैसे भोजपुरी कहावत में कहा गया है- ‘चाम की चालान, कुकुर रखबार’ यानी चमड़े की चलनी का रखवाला कुत्ते को बना दिया जाये.
पूरा राजभाषा विभाग तदर्थ रूप से प्रतिनियुक्ति के आधार पर रचा गया ‘ताश का महल’ है. जब सचिव स्वयं इस विभाग में आकर ‘दंडित’ अनुभव करता है, तब उसका उद्देश्य अपने पद के दायित्वों का निर्वाह करना न होकर किसी तरह इस सरकारी दंडकारण्य से निकल भागना होता है. जिस प्रेरणा और प्रोत्साहन से राजभाषा हिंदी को आगे बढ़ाने की अपेक्षा की गयी, वह ऊपर से नीचे की ओर बहता है. राजभाषा विभाग में निराशा और अकर्मण्यता का वातावरण ऊपर से नीचे तक ऐसा फैला है कि उसकी दिशाहीनता का असर पूरी सरकारी मशीनरी पर पड़ रही है. ऐसे में जो अधिकारी या कर्मचारी हिंदी में काम करना भी चाहते हैं, वे हतोत्साहित होते हैं. अपवादों को छोड़ दें, तो पूरा राजभाषा विभाग दृष्टिहीन, लक्ष्यहीन और संकल्पहीन कार्मिकों का बहुत बड़ा बंगला है.
राजभाषा विभाग के तीन खंड हैं. पहला- हिंदी शिक्षण योजना. इसके माध्यम से सर्वप्रथम हिंदीतर भाषी कार्मिकों को हिंदी सिखाने का प्रयास किया गया. यह आज से पचास साल पहले शुरू हुआ था. मगर क्या आज भी हिंदी न जाननेवाले कार्मिकों की नियुक्त कर उन्हें दो साल तक कार्यालयीन समय में पढ़ाने और भांति-भांति का पारितोषिक देने का कोई औचित्य? दूसरा-‘केंद्रीय अनुवाद ब्यूरो’ है. इसका काम सरकारी कार्यालयों के स्थायी दस्तावेजों का अनुवाद करना और उपयुक्त कार्मिकों को अनुवाद कार्य का प्रशिक्षण देना है. तीसरा खंड ‘क्षेत्रीय कार्यान्वयन कार्यालय’ है, जो अपने क्षेत्र के कार्यालयों में राजभाषा की प्रगति का ‘निरीक्षण’ करता है. इसमें सामान्यत: उप-निदेशक स्तर का अधिकारी तैनात होता है. एक क्षेत्र में सात-आठ राज्य होते हैं.
प्रत्येक राज्य में कम से कम 14 सौ सरकारी कार्यालय होते हैं. क्या एक व्यक्ति इतने कार्यालयों का निरीक्षण कर सकता है!
अगर सरकारी कार्यालयों में राजभाषा हिंदी का प्रयोग अभी तक अपेक्षित सीमा तक नहीं बढ़ा है, तो इसका एक बहुत बड़ा कारण गृह मंत्रालय का राजभाषा विभाग है, जिसके पास कोई संकल्प शक्ति नहीं है. ऊपर से शीर्ष अधिकारीयों की कुंठा इसे और दिग्भ्रमित करती है. जिस सरकारी हिंदी की लोग आलोचना करते हैं, वह अनुवाद की भाषा होती है, क्योंकि साहब लोग मां के पेट से ही अंगरेजी में काम करना सीख कर आते हैं. पढ़े-लिखे जानते हैं कि अनुवाद करना विशेषज्ञता का काम है. मगर सरकारी साहबों ने इसे लिपिकीय काम मान लिया और दफ्तरों में अनुवादकों की भर्ती लिपिक श्रेणी में कर दी गयी. अनुवाद करने के लिए दो-दो भाषाओं पर ही नहीं, संबंधित विषय पर भी पकड़ होनी चाहिए. क्या यह किसी लिपिक से अपेक्षा की जा सकती है!
राजभाषा विभाग साहित्यिक पुस्तकों से लेकर पत्र-पत्रिकाओं की सूची तैयार करता है. अब इसकी साहित्यिक समझ कितनी होती है, यह मत पूछिए. भाषा का शिक्षण साहित्य के माध्यम से सदियों से होता रहा है, मगर इस विभाग ने साहित्य को भाषा-शिक्षण में अनुपयुक्त घोषित किया और इसके प्रबोध-प्रवीण-प्राज्ञ तीनों परीक्षाओं के पाठ्यक्रम नीरस और उबाऊ पाठ्यक्रम हैं. ऐसे लोग जब साहित्यिक पुस्तकों की सूची बनायेंगे, तो अनर्थ होना स्वाभाविक है. इस विभाग के नेतृत्व के लिए पहले किसी वरेण्य साहित्यकार को चुना जाता था. राष्ट्रकवि ‘दिनकर’ इसका नेतृत्व कर चुके हैं और उनके कार्यकाल में इसने कुछ बुनियादी काम भी किये थे, मगर बाद में आइएएस लॉबी को लगा कि सचिव पद तो उसकी बपौती है, उस पर कोई मसिजीवी कैसे बैठ सकता है?
आज का कटु यथार्थ यह है कि करोड़ों रुपये हर साल कर्मचारियों के निमित्त हिंदी प्रोत्साहनों और राजभाषा समारोहों पर खर्च करने के बावजूद केंद्र सरकार के कार्यालयों में हिंदी कामकाज की भाषा नहीं बन पायी है, जबकि वहीं, राज्य सरकार के कार्यालयों में शत-प्रतिशत काम हिंदी में होता है. जब तक राजभाषा के नाम पर उत्सव और दिखावा होता रहेगा और शीर्ष अधिकारी साल में एक दिन राजभाषा दिवस पर उपदेश देते रहेंगे, तब तक केंद्रीय कार्यालयों, राष्ट्रीयकृत बैंकों और सार्वजनिक उपक्रमों में ‘राजभाषा पकौड़े’ छनते रहेंगे और संविधान में राजभाषा हिंदी उसी ‘होगी’ की टंगनी पर भीगी साड़ी की तरह टंगी रहेगी.
मोदी सरकार बनने के बाद सवा सौ करोड़ जनता में राजभाषा की प्रगति की आशा भी बढ़ी है. गृह मंत्रालय के अंतर्गत कई दशकों तक राजभाषा विभाग को रखने का परिणाम यही दिखा कि सरकारी महकमों में राजभाषा का प्रयोग सरकारी पाखंड का शिकार हो गया है, जिसका मूलाधार चक्र निस्संदेह ब्यूरोक्रेसी-चालित राजभाषा विभाग है. बहरहाल, अपने अनुभवों के आधार पर मैं यह कह सकता हूं कि राजभाषा हिंदी को प्रशासनिक बनाने के काम को पिछले साठ बरसों में नहीं किया जा सका, उसे मेरे सुझाये उपायों से मात्र साठ दिनों में किया जा सकता है. जब तक पूर्ण बदलाव नहीं होता, तब तक सरकारी कार्यालय हर साल इसी तरह 14 सितंबर को राजभाषा दिवस मना कर, कुछ प्रतियोगिताएं कर, कुछ सांस्कृतिक कार्यक्रम कर संतोष करते रहेंगे.
डॉ बुद्धिनाथ मिश्र
वरिष्ठ साहित्यकार

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