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त्योहार वही जो चंदाखोरों को भाये

प्रथम वंदनीय गणपति की आराधना के साथ पर्व-त्योहारों का मौसम शुरू हो गया है. वैसे तो तिथियों के अनुसार पर्व मनानेवाले भारत देश में हर दिन कोई न कोई त्योहार रहता ही है, लेकिन गणोश चतुर्थी के बाद से त्योहारों का ‘पीक सीजन’ शुरू हो जाता है. अनंत चतुर्दशी से लेकर दुर्गापूजा, दीवाली, छठ, सरस्वती […]

प्रथम वंदनीय गणपति की आराधना के साथ पर्व-त्योहारों का मौसम शुरू हो गया है. वैसे तो तिथियों के अनुसार पर्व मनानेवाले भारत देश में हर दिन कोई न कोई त्योहार रहता ही है, लेकिन गणोश चतुर्थी के बाद से त्योहारों का ‘पीक सीजन’ शुरू हो जाता है. अनंत चतुर्दशी से लेकर दुर्गापूजा, दीवाली, छठ, सरस्वती पूजा और होली, बैसाखी तक हर दिन त्योहार का ही मूड रहता है. वैसे जीवन की एकरूपता के बीच थोड़ा ‘चेंज’ के लिए पर्व और त्योहार जरूरी भी हो जाते हैं.

लेकिन किसी भी त्योहार को मनाने से पहले उसकी शुरुआत के पीछे की कहानी, उसके भाव, उसके मर्म को जानना जरूरी है. ऐसा नहीं कि बिन मतलब लगा दिया डीजे और लगे नाचने, जैसा कि आजकल आम तौर पर होता है. यूं तो विविधताओं में एकतावाले देश भारत में हर क्षेत्र में किसी न किसी तिथि का खास महत्व है. और वहां कोई न कोई त्योहार विशेष रूप से मनाया जाता है. जैसे गणोश चतुर्थी मुख्यतया महाराष्ट्र में, दुर्गा पूजा बंगाल में, छठ बिहार में, बैसाखी पंजाब में मनाया जाता है. लेकिन यह शहरीकरण और मीडिया क्रांति की ही देन है कि आजकल हर त्योहार हर क्षेत्र में मनाया जाता है.

अलग-अलग क्षेत्रों और संस्कृतियों से जुड़े लोग अब देश के हर हिस्से में मौजूद हैं और जो जहां होता है, वहीं अपने पर्व-त्योहार अपने तरीके से मनाने लगता है. इन त्योहारों का महात्म्य जान कर और उनसे प्रभावित होकर दूसरे लोग भी उन्हें अपनाते हैं. त्योहारों के प्रचार-प्रसार में मीडिया भी बड़ी भूमिका निभाता है. दिन भर टीवी चैनलों में कहीं गणोश पूजा की धूम दिखायी जाती है, तो कहीं दही हांडी का ‘ह्यूमन पिरामिड’. इसी का असर है कि अब ऐसी-ऐसी जगहों पर भी दही हांडी की प्रतियोगिताएं आयोजित होने लगी हैं कि विश्वास नहीं होता. लेकिन त्योहारों के इस प्रसार से उनकी मूल भावना क्या वही रह पाती है? नहीं. आज हमारे लिए त्योहारों का सिर्फ एक ही मतलब रह गया है- इंटरटेनमेंट..इंटरटेनमेंट..इंटरटेनमेंट.

इसे आज की पीढ़ी ‘एक्साइटमेंट’ और ‘फन’ का नाम देती है. आज त्योहारों पर पूजा-अर्चना कम और नाचना-गाना, खाना-पीना ज्यादा होता है. और ऐसे त्योहारों की तो पूछिए ही मत, जिनके आयोजन के पीछे लोगों का समूह काम करता है. इसमें चमक -दमक के लिए भारी धनराशि का जुगाड़ करना होता है, जो जनसहयोग से ‘मैनेज’ होता है. यहां जनसहयोग का मतलब होता है चंदा. और चंदा का धंधा कितना बुरा होता है, यह तो आप जानते ही होंगे.

शर्ट की आस्तीन चढ़ाये चार-छह मुस्टंडे घरों, दुकानों, शोरूमों में कभी भी पहुंच जाते हैं. सड़कों को बांस लगा कर घेर देते हैं. मजाल है कि आप बिना पैसे चुकाये वहां से निकल पायें! आपकी दुकान या गाड़ी के शीशे झाड़ दिये जायेंगे और आप कुछ कह तक नहीं पायेंगे. जब तक सेर पर कोई सवा सेर भारी नहीं पड़ेगा, हर साल ऐसे ही होता है और आगे भी होता रहेगा.

राजीव चौबे

प्रभात खबर, रांची

askrajeev123@gmail.com

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