इन दिनों अलग-अलग टेलीविजन चैनलों पर ‘देवों के देव महादेव’, ‘धरती का वीर पुत्र महाराणा प्रताप’, ‘जोधा अकबर’ सहित कुछ ऐसे धारावाहिक प्रसारित किये जा रहे हैं, जो धार्मिक या ऐतिहासिक कथाओं पर आधारित हैं. लेकिन जिस तरह इनके शीर्षक में मुख्य किरदारों के नाम के साथ विशेषण जोड़े गये हैं, उसी तरह इन धारावाहिकों में ऐसे-ऐसे प्रसंग जोड़े जाते हैं कि जहां आम दर्शकों को वह कहीं-कहीं और कभी-कभी उबाऊ और यकीन से परे लगने लगता है, वहीं हुड़दंगियों को ऐतिहासिक या धार्मिक तथ्यों के साथ छेड़छाड़ के नाम पर उत्पात मचा कर अपनी पहचान बताने का मौका मिल जाता है. फिल्मों के मामले में भी ऐसा होता रहा है. मनोरंजन जगत इसे अपनी क्रिएटिव लिबर्टी बताता है और सृजनात्मक स्वतंत्रता के नाम पर दर्शकों को लीक से हट कर सामग्री पेश करता है.
आज सिनेमा से लेकर धारावाहिक और विज्ञापन तक में क्रिएटिव लिबर्टी का बोलबाला है. माना कि पुराणों में हरि अनंत हरि कथा अनंता कहा गया है, लेकिन अब हर कोई हरि तो नहीं हो सकता है न! बहरहाल, इसी बहाने मनोरंजन जगत को अपने कार्यक्रम आगे बढ़ाने और धारावाहिक की कड़ियां खींचने के लिए नये-नये विषय मिल जाते हैं. और वैसे भी, श्रीराम, शिव जी, हनुमान जी, महाराणा प्रताप, अकबर बादशाह के बारे में कौन नहीं जानता. लोग आपका कार्यक्रम तो तभी न देखेंगे, जब उसमें कोई नयी बात होगी! इसीलिए 25-50 सीमित कड़ियों की योजना वाले धारावाहिक दर्शकों के रिस्पॉन्स के आधार पर 400-500 कड़ियों तक लंबे खिंचते चले जाते हैं.
सन 2002 में संजय लीला भंसाली शाहरुख खान को लेकर ‘देवदास’ फिल्म बना रहे थे. दरअसल, शरतचंद्र चट्टोपाध्याय रचित देवदास का नायक उच्च शिक्षा के लिए कोलकाता जाता है, जबकि भंसाली की बनायी देवदास में नायक उच्च शिक्षा के लिए इंग्लैंड जाता है. इसकी सफाई में भंसाली ने क्रिएटिव लिबर्टी का हवाला दिया था. उसके बाद तो हर मुंबइया निर्माता-निर्देशक को तथ्यों से छेड़छाड़ के लिए क्रिएटिव लिबर्टी का जैसे बहाना मिल गया. फिर ‘जोधा-अकबर’ फिल्म बना रहे आशुतोष गोवारिकर को भी विवादों से बचने के लिए क्रिएटिव लिबर्टी का सहारा लेना पड़ा. इससे पहले उन्होंने इसी के सहारे ‘लगान’ फिल्म बनायी थी, जिसमें एक क्रिकेट मैच के जरिये एक गांव को आजादी मिली थी. फिल्म काफी सराही गयी और ऑस्कर के लिए नॉमिनेट भी हुई थी. आज क्रिएटिव लिबर्टी हर विषयवस्तु के साथ छेड़छाड़ की ढाल बन चुका है. लेकिन सन् 2008 में शाहरुख खान ने फिल्मों में धूम्रपान के दृश्य दिखाने को क्रिएटिव लिबर्टी बता कर एक तरह से इसका मखौल उड़ा दिया था. इसलिए ध्यान रहे कि क्रिएटिव लिबर्टी कहीं एब्सोल्यूट लिबर्टी में न बदल जाये!
राजीव चौबे
प्रभात खबर, रांची
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