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क्षेत्रीय चेहरे तैयार करे भाजपा

प्रभु चावला एडिटोरियल डायरेक्टर द न्यू इंडियन एक्सप्रेस prabhuchawla@newindianexpress.com पराजय सबको धरातल पर ला देती है, पर मृत्यु के विपरीत यह एक महान शिक्षिका भी है. मिथकों की हवा निकालने में मतपेटियों का कोई सानी नहीं, जो हर चुनाव के बाद गहन आत्ममंथन तथा सुधार की जरूरत को जन्म देती है. ठीक जैसे जीत अहंकार […]

प्रभु चावला
एडिटोरियल डायरेक्टर
द न्यू इंडियन एक्सप्रेस
prabhuchawla@newindianexpress.com
पराजय सबको धरातल पर ला देती है, पर मृत्यु के विपरीत यह एक महान शिक्षिका भी है. मिथकों की हवा निकालने में मतपेटियों का कोई सानी नहीं, जो हर चुनाव के बाद गहन आत्ममंथन तथा सुधार की जरूरत को जन्म देती है.
ठीक जैसे जीत अहंकार को बढ़ावा देती है, पराजय व्यक्तिगत महिमामंडन को चूर कर देती है. दिल्ली में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की हार को केवल एक और हार नहीं माना जा सकता, बल्कि यह इसकी अब तक की इस छवि को भी चोट है कि एक पार्टी के रूप में भाजपा बाकी सबसे अलग है.
भले ही पार्टी का आत्मतुष्ट नेतृत्व 2015 के विधानसभा चुनाव की अपेक्षा अपने बढ़े हुए मत प्रतिशत में तसल्ली तलाश रहा हो, पर तथ्य यह है कि उसे मई में संपन्न लोकसभा चुनाव की तुलना में, जब पार्टी दिल्ली की सभी सात लोकसभा सीटों पर जीत हासिल करने में कामयाब रही थी, लगभग 15 प्रतिशत वोटों का भारी नुकसान उठाना पड़ा है.
पार्टी दिल्ली विधानसभा की सीटों में दहाई अंकों तक भी नहीं पहुंच सकी और पांच वर्ष पुरानी आम आदमी पार्टी (आप) ने 40 वर्ष पुरानी भाजपा को धराशायी कर दिया. हालांकि 2014 में धारण की गयी नरेंद्र मोदी की छवि आज तक भी अपरिवर्तित है, अरविंद केजरीवाल अपनी 2015 की छवि से बहुत आगे निकल चुके हैं. मोदी के नारे ‘सबका साथ, सबका विकास’ की ही पूंछ पकड़कर किसी वक्त सड़कों का योद्धा बना यह एक्टिविस्ट दिल्ली का चाणक्य बन चुका है, जो मुस्लिमों के निर्विवाद रहनुमा के रूप में कांग्रेस को पदच्युत करते हुए भी हनुमान भक्ति को सम्मान और आस्था को एक तमगे के रूप में धारण करता है.
भारत के राज्य मोदी को संकेत भेज रहे हैं कि वे हिंदुत्व की अपनी शैली की पुनर्परीक्षा करें. सांप्रदायिक रूप से नुकसानदेह इस चुनाव के बाद अमित शाह ने तो यह इशारा भी कर डाला कि नफरत के नारों ने दिल्ली में पराजय का मुंह दिखाया, जो महाराष्ट्र में सत्ताहानि और हरियाणा में एक स्थानीय पार्टी की दया पर निर्भर जीवन के बाद अगली चोट थी.
ये सभी उलटे पड़े दांव 2019 के गौरवशाली विजय के सात महीनों के अंदर ही सामने आ गये, जब पार्टी ने लोकसभा में 300 सीटों के साथ दूसरी बार सत्तासीन होने का श्रेय हासिल किया था.
दरअसल, वह मोदी की जीत थी, न कि भाजपा की, जो तब तक मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में हार चुकी थी. पिछले दो वर्षों के दौरान एक के बाद दूसरी हार यह संकेत कर रही है कि अकेले मोदी ही हर बार भाजपा को राज्यों की गद्दी नहीं दिला सकते.
वर्ष 2014 से 2017 तक यह पार्टी मोदी के नाम पर एक-एक कर महज पांच राज्यों की राजसत्ता से बढ़ते हुए अठारह राज्यों पर एकाधिकार तक जा पहुंची थी. इनमें से किसी भी राज्य में मतदाताओं ने मुख्यमंत्री का नाम तक नहीं पूछा और वे अपनी आंखें मूंदे मोदी के मुरीद बन वोट देते चले गये.
मोदी के विशाल होर्डिंगों से पूरा राष्ट्रीय सियासी क्षितिज पट-सा गया, जिसने केंद्र से लेकर राज्यों तक पार्टी का राजनीतिक भाग्योदय कर डाला. मोदी और उनके अत्यंत विश्वासपात्र तत्कालीन भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के सामने स्थानीय नेतृत्व या तो हाशिये पर चला गया अथवा उसने अपनी विश्वसनीयता खो दी.
पार्टी कैडर ने यह यकीन कर लिया कि भाजपा केवल मोदी के जन सम्मोहन एवं शाह के सांगठनिक कौशल के दम पर ही चुनाव जीत सकती है. इसलिए पूरी चुनावी रणनीति इन्हीं दोनों के इर्द-गिर्द घूमने लगी. शिवराज चौहान, वसुंधरा राजे और रमन सिंह जैसे स्थानीय क्षत्रप चुनावी दौड़ में बौने बन कर रह गये.
दिल्ली में भाजपा के पास एक ऐसे नेता की कमी थी, जो केजरीवाल के लिए एक मामूली खतरा भी पैदा कर सके. चुनावी प्रबंधन प्रकाश जावड़ेकर और हरदीप सिंह पुरी जैसे केंद्रीय मंत्रियों के हाथों सौंप दिया गया, जिनका दिल्ली से संपर्क बस ऊपरी ही था. अन्य राज्यों से अंग्रेजीभाषी नेता और उनके वैचारिक रूप से तटस्थ मित्र इस अभियान में झोंक दिये गये. फिर जैसे इतना ही काफी न हो, जड़विहीन स्थानीय तीसमारखानों ने मोदी और शाह को यह समझा दिया कि दिल्ली में पार्टी को स्पष्ट बहुमत हासिल हो जायेगा.
अब भाजपा इस अर्थ में कांग्रेस के ही समान हो चुकी है कि इसमें शिखर के भारी-भरकम नेताओं की बहुतायत तथा दूसरे स्तर की वैसी शख्सीयतों की कमी है, जो अपने क्षेत्रीय करिश्मे के बूते वोटरों को मोड़ सकें.
अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी ने राष्ट्रीय स्तर पर अपना चुनौतीविहीन नेतृत्व बरकरार रखते हुए भी अगली पीढ़ी के उदीयमानों की फौज तैयार की थी, जो राज्यों में गुल खिलाते हुए अखिल भारतीय भूमिकाओं में भी फिट बैठती थी. नरेंद्र मोदी, सुषमा स्वराज, अरुण जेटली, शिवराज सिंह चौहान, वसुंधरा राजे, प्रमोद महाजन, राजनाथ सिंह, उमा भारती, येदियुरप्पा, रमन सिंह और नितिन गडकरी पार्टी के क्षेत्रीय और राष्ट्रीय विमर्श पर अपना दबदबा रखते थे.
जहां कांग्रेस गांधियों का विकल्प तलाशने में विफल रही, वहीं भाजपा के पास ऐसे दर्जनों योग्य व्यक्ति विद्यमान थे, जो सरकार और पार्टी में शिखर के पदों का प्रबंधन कर सकते थे. वर्ष 2014 में मोदी सिर्फ अपनी कड़ी मेहनत के दम पर ही अपने प्रतिद्वंद्वियों और गुरु को पछाड़ कर भारत को हिंदुत्व के झंडे तले ला सके थे.
अब जबकि राज्यों के लिए चुनाव का अगला दौर शुरू होनेवाला है, तो मोदी और भाजपा को चाहिए कि वे एक सिद्धांत आधारित पार्टी की कीमत पर एक ही व्यक्ति पर अपनी अत्यधिक निर्भरता पर फिर से विचार करें.
हालांकि विपक्ष में राष्ट्रीय स्तर पर चुनौती देनेवाले नेताओं का अभाव है, पर अभी भी उसके पास केजरीवाल, ममता, भूपेंद्र हूडा, कमलनाथ, भूपेश बघेल, पीनराई विजयन आदि मौजूद हैं, जो सब मिलकर भगवा अश्वमेध का घोड़ा रोक सकते हैं. मोदी के राष्ट्रीय कद के सामने भाजपा दूसरी श्रेणी के नेताओं और अपने बड़े सिद्धांतों की चमक फीकी कर चुकी है. दूसरी ओर भाजपा विरोधी शक्तियों ने मंदिरों की यात्रा तथा प्रार्थनाओं के जाप कर नरम हिंदुत्व को अपना लिया है. भगवा पार्टी के लिए फिलवक्त की जरूरत यह है कि वह स्थानीय स्तर पर मोदियों की एक बड़ी तादाद विकसित कर वर्तमान मोदी राज्य को मजबूती दे, जिस पर खतरे के बादल मंडरा रहे हैं.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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