उत्पादन और मांग में कमी की वजह से कमजोर होती अर्थव्यवस्था की मार रोजगार के मोर्चे पर भी पड़ी है. केंद्रीय श्रम एवं रोजगार मंत्रालय ने संसद को बताया है कि 2013-14 में जो बेरोजगारी दर 3.4 फीसदी थी, वह 2017-18 में छह फीसदी हो गयी. यह आंकड़ा 45 सालों में सबसे अधिक है.
आर्थिक गतिविधियों के कमजोर होने के कारण इस दर में बढ़ोतरी जारी है. पिछले महीने जारी सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, शहरी बेरोजगारी की दर इस साल जनवरी से मार्च के बीच 9.3 रही थी. कृषि संकट और फसल की गिरती कीमतों से जूझ रहे ग्रामीण क्षेत्रों में स्थिति चिंताजनक है. ऐसे इलाकों में 2013-14 में बेरोजगारी दर 2.9 फीसदी थी, जो 2017-18 में 5.3 फीसदी जा पहुंची. ओडिशा, उत्तराखंड, दिल्ली, मध्य प्रदेश, असम, तमिलनाडु, छत्तीसगढ़, आंध्र प्रदेश और पंजाब में यह दर राष्ट्रीय औसत से बहुत ऊपर है.
राष्ट्रीय सांख्यिकी संगठन के सर्वेक्षण की मानें, तो 15 से 29 साल के युवाओं में इस साल के शुरुआती तीन महीनों में बेरोजगारी दर 22.5 फीसदी थी. अगर इस पहलू को भी ध्यान में रखा जाये कि इस आयु वर्ग में ऐसे किशोर व युवा भी हैं, जो पढ़ाई या कौशल प्रशिक्षण में लगे हैं, तब भी यह आंकड़ा परेशान करनेवाला है.
इसके साथ एक और आंकड़ा रखना जरूरी है. अजीम प्रेमजी विवि के एक अध्ययन के अनुसार, 2011-12 से 2017-18 के बीच 90 लाख रोजगार समाप्त भी हुए हैं. बीते वर्षों में अर्थव्यवस्था को सुचारू रूप से संचालित करने के उद्देश्य से सरकार ने सुधारों के लिए ठोस पहलकदमी की है. जानकारों का मानना है कि ऐसे कदमों का भी नकारात्मक असर रोजगार पर पड़ा है, किंतु पारदर्शिता व औपचारिकता स्थापित होने के बाद उनके लाभ मिलने लगेंगे.
स्व-रोजगार व उद्यमशीलता बढ़ाने के लिए वित्तीय उपलब्धता और नियमन में सरलता की दिशा में प्रयास जारी हैं. किंतु इसी बीच घरेलू व अंतरराष्ट्रीय कारकों की वजह से आर्थिकी में पैदा हुई उथल-पुथल ने ऐसे प्रयासों को कुछ कुंद किया है. रोजगार और आमदनी का सीधा संबंध उत्पादन एवं मांग से है. निर्यात और निवेश के पहलू भी इससे जुड़े हुए हैं.
इस समीकरण के किसी एक अवयव में कमी आती है, तो पूरे परिदृश्य को मुश्किल होती है. यह भी उल्लेखनीय है कि हमारी अर्थव्यवस्था ने तीन दशकों में भले ही तेज बढ़त हासिल की हो और उसका फायदा सभी वर्गों व क्षेत्रों को कमोबेश हुआ है, परंतु रोजगार के मामले में अपेक्षित सफलता नहीं मिल सकी है. इसीलिए इस बढ़त को ‘रोजगारविहीन वृद्धि’ की संज्ञा भी दी जाती है. वृद्धि का एक नकारात्मक आयाम आर्थिक विषमता भी है, जिसके कारण पूंजी, निवेश व व्यय का संतुलन प्रभावित हुआ है.
आर्थिक, सामाजिक व क्षेत्रीय विकास को सुनिश्चित करने के लिए जरूरी है कि रोजगार के संबंध में दीर्घकालिक रणनीति बनायी जाये, जो भविष्य की जरूरतों के अनुरूप भी हो. वर्तमान संकट के आलोक में इस दिशा में तुरंत पहल होनी चाहिए.