क्षमा शर्मा
वरिष्ठ पत्रकार
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अक्सर गांव में चाची कहती थीं कि बूढ़े बाबा के ढिंग जा रही हैं. यानी बहुत पुराने बरगद के पेड़ के पास बैठने जा रही हैं. बरगद की जटाएं जमीन तक लटकी हुई थीं. बूढ़े लोगों ने बचपन से इस पेड़ को ऐसे ही देखा था. पेड़ पर कौए, गिलहरियां, तोते, बंदर यानी हर एक के लिए जगह थी. कभी-कभी बिल्लियां भी उस पर चढ़ जाती थीं.
नागार्जुन का उपन्यास ‘बाबा बटेसरनाथ’ ऐसे ही एक बरगद की कहानी है. हाल ही में फहीम अहमद की भी एक बाल कविता ‘बरगद बाबा की चिट्ठी’ पढ़ी. इसमें बरगद एक बच्चे को चिट्ठी लिखता है. जिसमें बताता है कि अड़ोस-पड़ोस के बहुत से पेड़ कट गये हैं. अब मुझे आकर बचा लो. सिर्फ बरगद ही नहीं पीपल, आम, अमरूद, नीम, बेर आदि न जाने कितने पेड़ों को आदरणीय मान कर, उनकी उम्र का मनुष्य की तरह लिहाज करके बाबा कह कर पुकारा जाता था. पश्चिमी उत्तर प्रदेश में दादा को बाबा कहते हैं.
ग्रामीण समाजों का अपने पेड़-पौधों और वनस्पतियों आदि से अभूतपूर्व रिश्ता रहा है. हमारे चबूतरे या आंगन में नीम आज भी दिखायी दे सकते हैं.
जगदीश चंद्र बसु ने तो बाद में यह खोज की होगी कि पेड़ों में भी जीवन होता है, लेकिन गांव के हर आदमी को मालूम था कि पेड़ भी सोते हैं. यही नहीं, उनकी उपस्थिति को किसी मनुष्य की तरह ही दर्ज किया जाता था.
किसी वार-त्योहार पर न केवल उनकी पूजा, बल्कि घर में बने पकवानों का भोग भी लगाया जाता था. इसके अलावा किसी जन्म, किसी की शादी को याद करने के लिए भी पेड़ों का उदाहरण दिया जाता था कि अरे मुन्ना तो तब पैदा हुआ था, जिस साल इस आम पर इतने आम लगे थे, जो पहले कभी नहीं लगे. या कि रश्मि और इस पेड़ की उम्र तो एक ही है.
या कि घर में गाय उस दिन आयी थी, जब इस पेड़ पर पहली बार बौर लगा था. कहने का अर्थ यह है कि पेड़ किसी घर के सदस्य की तरह हमारे हर सुख-दुख में शामिल रहते थे. घर के आंगन में लगे नीम के पेड़ के कारण चाहे दादी को उसे कई बार बुहारना पड़ता था, मगर यह बात उनके दिमाग में कभी नहीं आयी कि पेड़ के कारण कूड़ा फैलता है, इसलिए उसे कटवा दिया जाये.
लेकिन जैसे-जैसे हम बढ़े, गांव की दहलीजों से बाहर निकले, रोटी-रोजगार के लिए दुनिया नापने लगे, प्रकृति के साथ हमारा रिश्ता खत्म होता गया. पेड़-पौधे सिर्फ पार्कों या सड़क के किनारे देखने की चीज रह गये. वे हमारे परिवारों से बेदखल कर दिये गये. आज शहरों में बच्चों से पूछें, तो वे बहुत कम पेड़ों के नाम बता सकते हैं. इसीलिए जब आज किसी पेड़ पर कुल्हाड़ी चलती है, तो हमें दर्द नहीं होता.
हालांकि, जब से जमीन को खुला छोड़ने के मुकाबले उन्हें कमरों में बदलने का रिवाज चला है, तब से पेड़ चबूतरों या आंगनों से गायब होते जा रहे हैं. बहुत से गांव जिन जंगलों, वनस्पतियों से घिरे हुए थे, उन्हें आये िदन माफियाओं और विकास के नाम पर सरकारों द्वारा काटा जा रहा है.