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सांप्रदायिकता के खिलाफ हो जंग
।। विश्वनाथ सचदेव ।। वरिष्ठ पत्रकार संप्रदायों के नाम पर समाज को बांटने की हिंसात्मक कोशिश अपराध की श्रेणी में आती है. ऐसी कोशिश के खिलाफ कार्रवाई करने का अधिकार हमारी सरकारों के पास है. लेकिन, कभी कोई कार्रवाई क्यों नहीं होती? ईद के मौके पर टोपी पहनने अथवा न पहनने का मुद्दा यदि एक […]
।। विश्वनाथ सचदेव ।।
वरिष्ठ पत्रकार
संप्रदायों के नाम पर समाज को बांटने की हिंसात्मक कोशिश अपराध की श्रेणी में आती है. ऐसी कोशिश के खिलाफ कार्रवाई करने का अधिकार हमारी सरकारों के पास है. लेकिन, कभी कोई कार्रवाई क्यों नहीं होती?
ईद के मौके पर टोपी पहनने अथवा न पहनने का मुद्दा यदि एक सवाल बन जाये, तो हैरानी तो होनी ही चाहिए. मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ऐसी हैरानी ही व्यक्त कर रहे थे, जब उन्होंने इस सवाल के जवाब में कि इस बार उन्होंने टोपी क्यों नहीं पहनी, यह कहा कि ‘यह भी कोई सवाल है?’ सचमुच, यह मुद्दा किसी सवाल के लायक नहीं होना चाहिए था.
लेकिन, दुर्भाग्य से, हमारे देश की राजनीति ने ऐसे सवालों के उठने को एक सामान्य प्रक्रिया बना दिया है. पिछले साल ईद के मुबारक मौके पर मुख्यमंत्री चौहान ने टोपी पहनी थी, तब यह सवाल उठा था कि उन्होंने टोपी क्यों पहनी. ज्ञातव्य है कि इस घटना से पहले अपनी ‘सद्भावना यात्रा’ के दौरान गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक मौलाना द्वारा दी गयी टोपी को पहनने से इनकार कर दिया था. शायद इसी संदर्भ में कहा गया होगा कि अन्य मुख्यमंत्रियों को भी ऐसा करना चाहिए.
पता नहीं क्या सोच कर नरेंद्र मोदी ने तब टोपी नहीं पहनी थी और शिवराज सिंह के टोपी पहनने के पीछे उनका क्या उद्देश्य था, लेकिन यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि हमारे राजनेताओं ने इस तरह के प्रतीकात्मक कार्यो को वोट की राजनीति का हिस्सा बना दिया है. खुशी और भाईचारे के प्रतीक होली और ईद जैसे त्योहार राजनीतिक नफा-नुकसान के समीकरण बनाने-बिगाड़ने का माध्यम बना दिये गये हैं. धार्मिक त्योहारों की साझा-संस्कृति का हमारा लंबा इतिहास है.
दिवाली पर मिलकर दीपक जलाना और ईद पर मिलकर सेवइयां खाना हमारी परंपरा रही है. इसलिए मिल-जुल कर त्योहार मनाने की कोई घटना समाचार नहीं बनना चाहिए. समाचार तो तब बनना चाहिए जब ऐसा न हो. सवाल तो यह उठना चाहिए कि मिल-जुल कर त्योहार मनाने की हमारी शानदार परंपरा को किसकी नजर लग गयी! इसलिए, जब टोपी न पहनने के बारे में शिवराज सिंह ने कहा कि ‘यह भी कोई सवाल है’, तो वे सही कह रहे थे.
सवाल उठता है कि ऐसा सवाल पूछने की जरूरत क्यों महसूस हुई? इसका जवाब मुश्किल नहीं है. इस जरूरत के पीछे हमारे राजनेताओं के तौर-तरीके रहे हैं. दशकों से हम अपने नेताओं को धर्म की राजनीति करते देख रहे हैं. सांप्रदायिकता की आग में जलते देश के विभिन्न हिस्से इस बात का प्रमाण हैं.
कभी मंदिर-मसजिद में लाउडस्पीकर लगाने की जिद सांप्रदायिकता की राजनीति का माध्यम बन जाती है, तो कभी किसी गुरुद्वारे के पास पड़ी खाली जमीन का टुकड़ा दंगे का कारण बन जाता है.
होना तो यह चाहिए कि देश का विवेकशील तबका ऐसी हर कोशिश को नाकामयाब बनाने के लिए एकजुट होकर आवाज उठाये, पर अकसर आवाज उसी की सुनाई देती है, जो जहर फैलाने को अपनी राजनीति का हथियार बनाता है. दुर्भाग्यपूर्ण यह भी है कि ऐसी आवाज उठानेवाला अपराधी नहीं, बल्कि नेता समझा जाता है. पार्टियां ऐसे लोगों को मान्यता देती हैं और मतदाता भी बहकावे में आकर अपना वोट दे देता है.
कुछ ही अरसा पहले विश्व हिंदू परिषद के नेता ने देश के मुसलमानों को चुनौती दी थी कि ‘वे गुजरात को भले भूल गये हों, पर मुजफ्फरनगर को तो नहीं ही भूले होंगे?’ आखिर क्या कहना चाहते हैं और क्या करना चाहते हैं ऐसे नेता? यह बयान मीडिया में आया, लेकिन हुआ कुछ नहीं. पहले भी ऐसे बयान आ चुके हैं.
सांप्रदायिकता की आग फैलानेवाले इसी तरह के बयान कुछ अल्पसंख्यक नेता भी देते रहते हैं. सवाल उठता है कि ऐसे लोगों को यह सब क्यों कहने दिया जाता है? क्यों इनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं होती? संप्रदायों के नाम पर समाज को बांटने की हिंसात्मक कोशिश अपराध की श्रेणी में आती है.
ऐसी कोशिश के खिलाफ कार्रवाई करने का अधिकार हमारी सरकारों के पास है. लेकिन कभी कोई कार्रवाई क्यों नहीं होती?
यदि सरकारें ऐसे तत्वों के खिलाफ कार्रवाई नहीं करना चाहतीं अथवा यदि सरकारों को ऐसे तत्व अपनी राजनीति का औजार लगते हैं, तो क्या सांप्रदायिकता का जहरीला सोच फैलानेवालों के खिलाफ कुछ नहीं हो सकता? हो सकता है. यह काम समाज के जिम्मेवार लोगों, जागरूक नागरिकों को करना होगा.
सांप्रदायिकता के खिलाफ एक अनवरत अभियान की जरूरत है. धर्म, जाति, वर्ग, वर्ण, भाषा के नाम पर देश को बांटने का मतलब अपने आप के टुकड़े करना है. किसी गुजरात या किसी मुजफ्फरनगर की याद दिलाने का मतलब सांप्रदायिकता की भावना को आग देना है. यह अपराध है. भारतीय समाज के खिलाफ भी. ऐसी भाषा बोलनेवालों को न तो स्वीकारा जाना चाहिए और न ही सहन किया जाना चाहिए.
देश के कानून और देश के विवेकशील तबके, दोनों को, बांटनेवाली ताकतों के खिलाफ खड़ा होना होगा. एक लंबी लड़ाई के लिए तैयार होना होगा. अनवरत लड़ाई के लिए जी-जान लगाना होगा.
आमीन!
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