पंकज कुमार पाठक
प्रभात खबर, रांची
कुछ दिनों पहले इंटरनेट पर पढ़ा कि इयान लेस्ली ने अपनी नयी किताब ‘बॉर्न लायर्स’ में लिखा है कि हम सब जन्म से ही झूठ बोलने की कला जानते हैं. तीन से चार वर्ष की उम्र में ही बच्चे सीख जाते हैं कि सफाई से झूठ कैसे बोलना है. इतना पढ़ते ही मैंने अपने दायरे में उन लोगों की तलाश शुरू की, जिन्होंने कभी झूठ नहीं बोला है.
कुछ दोस्तों को भी ऐसे लोगों को ढूंढ़ने को कहा. लेकिन कोई सफलता नहीं मिली. एक भी ऐसा आदमी नहीं मिला, जिसने आज तक झूठ नहीं बोला हो. कुछ तो सिर्फ झूठ ही बोलते हैं. मैं खुद भी अपनी जुबान का जायका बदलने के लिए झूठ बोल लेता हूं. इसी बात पर हो रही चर्चा के दौरान एक मित्र ने सीधे-सीधे कहा कि ऐसा कोई नहीं है, जिसने आज तक झूठ नहीं बोला हो. अगर आदमी है, तो झूठ बोलता ही होगा. मुझे पूरा यकीन है झूठ और मानव सभ्यता का विकास एक साथ हुआ होगा. इसलिए आज सभ्यता के शीर्ष पर पहुंच कर, तकनीक के गुलाम बन कर भी हम आधुनिक लोगों को भी झूठ बोलना पसंद है.
पकड़े जाने के बाद बहाना बना देते हैं कि कि जुबान का टेस्ट बदल रहा था या किसी की भलाई के लिए कहा गया झूठ, झूठ नहीं होता है. असल में झूठ, झूठ ही होता है. यहां तक कि गांधी जी ने एक बार झूठ बोलने की बात स्वीकार की है. मैंने उसकी बात काटते हुए कहा, ‘‘लेकिन राजा हरिश्चंद्र.’’ उसने फौरन कहा, ‘‘कहां सतयुग में चले गये. कलियुग में लौट कर खोजो. वैसे सतयुग में भी एकाध लोग ही होंगे, जो सिर्फ सच बोलते होंगे. ज्यादातर लोगों ने कभी न कभी झूठ बोला ही होगा, तभी तो हम आज तक सिर्फ हरिश्चंद्र को ही सबसे सच्च व्यक्ति मानते हैं. उन्हें ‘सत्यवादी ’ कहते हैं.
दूसरा शायद न हो वहां.’’ हमारे देश में ही कहा गया है, ‘मनसा वाचा कर्मणा’ यानी मन, वाणी और कर्म से एक बनो. लेकिन सच बात तो यह है कि हम देशवासी इस चिंतन को फुटबॉल समझ कर ठोकर मारे जा रहे हैं. लोग कहते हैं कि झूठ बोलनेवालों को कौआ काटता है या झूठ का मुंह काला होता है. ऐसा कुछ भी नहीं होता है. ये बातें अपने आप में झूठी हैं. क्योंकि अगर सच में झूठ बोलने पर कौवा काटता, तो आज न कोई झूठ बोलता और न ही झूठ पकड़ने की मशीन बनाने की जरूरत पड़ती. आज टीवी के विज्ञापन से लेकर नेताओं के बयान तक न जाने कितने झूठ देखने-पढ़ने को मिलता है. दरअसल ‘झूठ बोलना’ आज एक कला है.
आप कब, कितना और कैसे झूठ बोलते हैं, यह पूरी तरह से आपकी क्षमता पर निर्भर करता है. कभी-कभी तो लगता है झूठ बोलने की कला को पाठ्यपुस्तक में शामिल कर देना चाहिए. इसमें भी डिग्री, पुरस्कार और सम्मान देने का प्रावधान होना चाहिए. झूठरत्न, झूठश्री वगैरह-वगैरह. क्योंकि इस कला के दम पर ही आप देश के ‘बड़े नेता’ बन सकते हैं. आज झूठ का मुंह काला नहीं, बल्कि झूठ का ही बोलबाला है.