स्वास्थ्य मंत्रालय से जुड़े पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन की एक रिपोर्ट के अनुसार पिछले साल सिगरेट और तंबाकू उत्पादों से सरकार को कुल बारह हजार करोड़ रुपये का राजस्व प्राप्त हुआ, जबकि देश के लोगों के द्वारा इन नशों से हुई बिमारियों के इलाज पर एक लाख चार हजार करोड़ रुपये खर्च किये गये हैं. साथ ही यह भी बताया गया है कि भारत सरकार को भी हर वर्ष तीन हजार करोड़ रुपये इन बीमारियों पर जनता के लिए खर्च करने पड़ते हैं. क्या मेरी और आपकी या देश के तमाम शिक्षित, जागरूक लोगों की इस समस्या से मुक्ति के प्रति कोई जबाबदेही है?
कहने को देश के शुभचिंतक- लेखक, पत्रकार, संपादक, समाजसेवी, प्रबुद्ध नागरिक और राजनेता कहे जाने वाले लाखों-करोड़ों लोग या तो स्वयं इन नशों के तलबगार हैं या फिर अपने देश के नागरिकों के स्वास्थ्य को नष्ट करते इन नशों के जाल को देखते-समझते हुए भी मूकदर्शक बने बैठे हैं. आखिर क्यों? कौन सी मजबूरी है? दोषियों की इस भीड़ में सबसे पहले हमें खुद पर दृष्टि डालने की जरूरत है. खुद को इस अव्यवस्था के विरु द्ध खड़ा करने की जरूरत है.
अगर हम सब इस मानव विरोधी व्यवस्था के विरोध में खड़े हो जायें तो नि:संदेह भारत सरकार को जन स्वास्थ्य की कीमत पर प्राप्त होनेवाले राजस्व की इस अत्यंत घृणित नीति को त्यागने के लिए बाध्य होना होगा. अंतिम सवाल फिर यही है कि क्या इसके लिए हम तैयार हैं? और अंत में एक मानवीय आग्रह हमारे देश की सरकार से यह है कि वह देश की जनता के स्वास्थ्य को हानि पहुंचानेवाली इस घृणित व्यवस्था से यथाशीघ्र निजात पाते हुए सिगरेट, तंबाकू, शराब सहित हर तरह के नशे के उत्पादन और विक्र य पर पूर्ण प्रतिबंध लगाये. यही देशहित में है.
अनीता चेतन, ई-मेल से