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घुड़चढ़ी पर बवाल

सुरेश कांत वरिष्ठ व्यंग्यकार drsureshkant@gmail.com शादी के लिए आम तौर पर तीन पक्षों का होना अनिवार्य है- दूल्हा, दुल्हन और घोड़ी. घोड़ी की जरूरत शादी से पहले तक ही होती है, जब वह दूल्हे के चढ़ने के काम आती है. दूल्हे के इस तरह घोड़ी पर चढ़कर आने को घुड़चढ़ी कहा जाता है. घुड़चढ़ी के […]

सुरेश कांत
वरिष्ठ व्यंग्यकार
drsureshkant@gmail.com
शादी के लिए आम तौर पर तीन पक्षों का होना अनिवार्य है- दूल्हा, दुल्हन और घोड़ी. घोड़ी की जरूरत शादी से पहले तक ही होती है, जब वह दूल्हे के चढ़ने के काम आती है. दूल्हे के इस तरह घोड़ी पर चढ़कर आने को घुड़चढ़ी कहा जाता है.
घुड़चढ़ी के लिए भले ही आजकल घोड़ी की सेवाएं ली जाती हों, लेकिन पहले यह काम घोड़े से लिया जाता था. इस बदलाव के पीछे का सही कारण तो समाजशास्त्री ही बता सकेंगे, पर मोटे तौर पर इसका यह कारण रहा होगा कि घोड़ा कब बेकाबू हो जायेे, पता नहीं चलता.
राणा प्रताप के घोड़े को ही लीजिये, जो अकसर हवा से होड़ लेता रहता था और हालत यह हो जाती थी कि वह ‘तनिक हवा से बाग हिली, लेकर सवार उड़ जाता था’, फिर चाहे सवार की उड़ने की इच्छा रही हो या न रही हो. उधर घोड़ी जरूरत पड़ने पर अपनी बसंती की इज्जत बचाने के लिए भी तैयार रहती देखी गयी है.
शादी के लिए वर घोड़े या घोड़ी पर चढ़कर ही वधू के घर क्यों जाता है? असल में यह उस पुरानी परंपरा का द्योतक है, जब वर, जो तब तक वर नहीं हुआ होता था क्योंकि तब तक उसे वधू द्वारा वरा नहीं गया होता था, किसी अन्य बेहतर वाहन के अभाव में घोड़े पर चढ़कर वधू को जबरन उठाकर लाने के लिए उसके यहां जाता था.
उसकी मां इस आशय से उसे अपना ‘दूध पिलाकर’ भेजती थी कि तुझे उस लड़की को, जो कि प्राय: राजकुमारी होती थी, भगाकर अवश्य लाना है और इस तरह मेरे दूध की लाज रखनी है. आज भी यह रस्म निभायी जाती है, चाहे किसी को इसका मतलब पता हो या न हो.
बरात, जिसे कुछ लोग ‘बारात’ भी कह देते हैं जो कि ‘वर-यात्रा’ के संदर्भ में गलत है, में शामिल लोग भी असल में जरूरत पड़ने पर, जिसका कि पड़ना लाजमी होता था, वर की तरफ से लड़नेवाले उसके सैनिक होते थे. छोटे-मोटे युद्ध के बाद जब वर किसी तरह कन्या को उठाकर भाग लेता था, तो पीछे से गालियां देते हुए कन्या-पक्ष के लोग उसे पकड़ने की कोशिश करते थे.
आज भी विदाई के समय वर-पक्ष के लोगों की कमर पर लगाये जाने वाले हलदी के छापे और गा-गाकर सुनायी जानेवाली गालियां उसी धर-पकड़ के सांकेतिक अवशेष हैं. आज सब-कुछ आपसी सहमति से होता है, पर रस्मों के रूप में पुरानी चीजें रह गयी हैं.
अलबत्ता कुछ लोग शादी के लिए घोड़ी का होना जरूरी नहीं मानते, खासकर उच्च वर्ग के लोग, वह भी दलितों के मामले में. वे अकसर उन्हें घोड़ी पर चढ़ने से रोककर यही समझाना चाहते हैं कि उनकी शादी बिना घोड़ी के भी हो सकती है, वे करके तो देखें.
यह एक बेकार की रस्म है, जिसे वे खुद भले ही न छोड़ पाते हों, पर दलित भी इस फालतू की बकवास में पड़ें, कतई जरूरी नहीं. वे खुद अंधविश्वासों में पड़े रहने की जहमत उठाकर भी अपने दलित भाइयों को इस तरह के अंधविश्वासों से दूर रखना चाहते हैं, चाहे इसके लिए उन्हें हिंसा का सहारा ही क्यों न लेना पड़े.

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