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चुनावी भाषणों का मौसम
वीना श्रीवास्तव साहित्यकार veena.rajshiv@gmail.com नेताओं की तकदीर आजमानेवाला मौसम चल रहा है. जब आम-लीची का मौसम आता है, तो कोयल मस्ती में कूकती है और हम सब उसकी मीठी बोली पर फिदा रहते हैं. मगर इस चुनावी मौसम में कौवे कांव-कांव करते हैं. गधों के साथ गीदड़ भी हुंआ-हुंआ करते हैं, उल्लुओं का डेरा जमा […]
वीना श्रीवास्तव
साहित्यकार
veena.rajshiv@gmail.com
नेताओं की तकदीर आजमानेवाला मौसम चल रहा है. जब आम-लीची का मौसम आता है, तो कोयल मस्ती में कूकती है और हम सब उसकी मीठी बोली पर फिदा रहते हैं. मगर इस चुनावी मौसम में कौवे कांव-कांव करते हैं. गधों के साथ गीदड़ भी हुंआ-हुंआ करते हैं, उल्लुओं का डेरा जमा रहता है. बस ऊपर वाले का करम है कि लोग जी रहे हैं, वर्ना ये नेता तो अब तक हमारा लहू चूस चुके होते.चाहे एक जनवरी हो या हिंदु कैलेंडर से चैत का महीना, हम भारतीय तो सब मना डालते हैं.
नया साल ही क्यों, हम तो ईद, बुद्ध पूर्णिमा, नानक जयंती, क्रिसमस, दीपावली और होली सब बड़े जोश से मनाते हैं. हम हिंदुस्तानी जो ठहरे. अब आप सुधीजन इसका मतलब धर्म वाला हिंदू से मत लगा लेना. मेरा मतलब है कि जो हिंदुस्तान में रहते हैं, वे हिंदुस्तानी हैं. हम आपस में भाईचारा पर विश्वास रखते हैं, लेकिन हमारी नेता बिरादरी ‘असली वाला चारा’ तो गटक जाती है, लेकिन ‘मानवता वाले चारे’ को धरोहर के रूप में म्यूजियम में रखती है, ताकि हम बस देखकर ही सुकून कर लें.
बच्चे भी देखकर कहें कि ये गुण कभी हमारे देश के खेवनहारों के चरित्र में मजबूती से पाये जाते थे. वह जमाना और था, जब कोई और गुण हो न हो, लेकिन भाईचारा जरूर होता था.
पहले मन से मन और भावनाओं का जुड़ाव ऐसा होता था कि मनमुटाव के बावजूद टोपी और तिलक गलबहियां डाले रहते थे. मगर अब गलबहियों के बीच खेवनहार कीकर की बाड़ क्या, बबूल लगाने में जुटे हैं. अब कोई कोशिश भी नहीं करता कि कीकर की जगह सौहार्दरूपी केसर की पौध लगाये, जिससे आपसी स्नेह की खुशबू पूरे देश में फैले. अब तो फिजा में कांटों की चुभन का आभास हो रहा है.
इसी बीच फिर आ गया चुनावी भाषणों का मौसम. नेताओं के मुख-मंडल पर इतनी सुहानी मुस्कान देखकर हैरत होती है कि तपती धूप, मूसलाधार बारिश, हाड़-मांस जमानेवाली सर्दी में भी हमारे नेता चुनावी मौसम में चेहरे पर शिकन तक नहीं लाते. इसी मुख-मंडल को देखकर लोग कहते हैं कि मजबूरी है, वर्मा कौन इनका चेहरा देखना चाहेगा.
देख लो तो दिनभर लगता है भूख हड़ताल पर बैठे हैं. बस अपनी लार ही गटकते रहते हैं. रिश्तों की बयार भी बहने लगती है, मानो पछुआ चलने लगी है. सामने कोई भी आये, सभी पिता तुल्य होते हैं और महिलाएं, माता-बहनें होती हैं. उसके बाद पिता जी लतिया दिये जाते हैं और कुछ मां-बहनों की सिसकियां दफ्न हो जाती हैं.
चुनावी मौसम के बाद पवन देवता भी नेताओं के साथ पांच सालों के लिए विश्राम पर चले जाते हैं. उसके बाद कोई कितनी कोशिश करे, ऑफिसों, मंत्रालयों के चक्कर में पसीना बहाता रहे, पर मजाल क्या कि उसे सुखाने की कोई जुगत भी भिड़ायी जाये. तो मित्रों! आप अपने जीवन में प्रकृति द्वारा प्रदत्त मौसमों का ही आनंद लीजिये और चुनावी मौसम से आप आगामी मौसमों को किस तरह बदल सकते हैं, इस पर अच्छी तरह से सोच-विचारकर ही बिल्कुल सही का चुनाव करिये.
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