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चीन के निर्यात का गिरता ग्राफ

डॉ अश्वनी महाजन एसोसिएट प्रोफेसर, डीयू ashwa- imahaja- @rediffmail.com लगभग दो दशक से सबसे तेज अर्थव्यवस्था के रूप में ही नहीं, बल्कि ‘मैन्युफैक्चरिंग हब’ के रूप में स्थापित होता चीन, आज संकटों से गुजर रहा है. चीन के मॉडल को दुनिया के कई देश एक आदर्श के रूप में मान रहे थे. अब उन्हें सोचना […]

डॉ अश्वनी महाजन

एसोसिएट प्रोफेसर, डीयू

ashwa- imahaja- @rediffmail.com

लगभग दो दशक से सबसे तेज अर्थव्यवस्था के रूप में ही नहीं, बल्कि ‘मैन्युफैक्चरिंग हब’ के रूप में स्थापित होता चीन, आज संकटों से गुजर रहा है. चीन के मॉडल को दुनिया के कई देश एक आदर्श के रूप में मान रहे थे.

अब उन्हें सोचना पड़ेगा कि क्या चीन वास्तव में एक आदर्श अर्थव्यवस्था है? चीन मैन्युफैक्चरिंग में आगे बढ़ा, तो दूसरे मुल्क इलेक्ट्रॉनिक्स, टेलीकॉम, वस्तुओं, मशीनरी, केमिकल्स, दवाईयों, कच्चे माल आदि के लिए चीन पर निर्भर होते गये. उन देशों में रोजगार का संकट उत्पन्न हो गया, क्योंकि चीनी उत्पादों के कारण उनके उद्योग बंद होते गये. भारत, अमेरिका, यूरोप और अन्य कई देशों के औद्योगीकरण को बड़ा धक्का लगा.

भारी निर्यातों और व्यापार में अतिरेक के चलते चीन का विदेशी मुद्रा भंडार बढ़ने लगा, जिसके बलबूते चीन ने दूसरे मुल्कों में काफी मात्रा में भूमि खरीदी अौर इन्फ्रास्ट्रक्चर कंपनियों में भारी निवेश किया. पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर में सड़क निर्माण, श्रीलंका में हंबनटोटा बंदरगाह समेत कई स्थानों पर चीन द्वारा इन्फ्रास्ट्रक्चर निवेश इसके उदाहरण हैं. चीन दुनिया में एक महाशक्ति के रूप में दिखायी देने लगा.

लेकिन, आज उसकी जीडीपी ग्रोथ घट रही है. विदेशी व्यापार में धीमेपन के कारण विदेशी मुद्रा भंडार घटकर चार हजार अरब डॉलर से अब तीन हजार अरब डाॅलर रह गया है. चीन की कई कंपनियां बंद हो चुकी हैं. पिछले साल चीन के निर्यातों में भी भारी कमी आयी है. कई देशों में अब चीनी आयातों पर आयात शुल्क बढ़ाकर उनको रोका जा रहा है. चीनी हुक्मरान अब कह रहे हैं कि घरेलू उपभोग भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि अब चीन का विदेशी बाजार सिकुड़ रहा है.

अप्रैल 2018 से दिसंबर 2018 के बीच चीन द्वारा भारत को किये जानेवाले निर्यातों में पिछले वर्ष की तुलना में 6.6 अरब डॉलर की कमी आयी. दुनियाभर में भी चीन के निर्यात अब घटने लगे हैं. दिसंबर 2018 में चीन के निर्यात 4.4 प्रतिशत कम हुए.

इसकी वजह व्यापार युद्ध (अमेरिका द्वारा चीनी उत्पादों पर आयात शुल्क बढ़ाना) और वैश्विक मंदी को बताया जा रहा है. लेकिन यह पूरा सच नहीं है. साल 2001-02 में जहां चीन के निर्यात मात्र 266 अरब डाॅलर ही थे, 2014-15 तक वे 2,342 अरब डाॅलर पहुंच चुके थे. उसके बाद वे लगातार घटते हुए 2017-18 में 2,263 अरब डाॅलर रह गये. इस साल तो वे और ज्यादा घटनेवाले हैं.

दरअसल, चीन बड़ी मात्रा में इलेक्ट्राॅनिक कलपुर्जांे का आयात करता है, जिसको इलेक्ट्राॅनिक सामान तैयार करने में इस्तेमाल किया जाता है. चूंकि इलेक्ट्राॅनिक टेलीकॉम निर्यात प्रभावित हो रहे हैं, इसलिए चीन से इन कलपुर्जांे के आयात में भारी कमी आयी है.

वर्ष 2010 की दिसंबर तिमाही में जीडीपी ग्रोथ की दर जो बढ़ते-बढ़ते 12.2 प्रतिशत पार कर गयी थी, वर्ष 2018 की दिसंबर तिमाही तक आते-आते घटकर मात्र 6.4 प्रतिशत ही रह गयी.

इसमें ज्यादा नुकसान मैन्युफैक्चरिंग को हुआ है और मैन्युफैक्चरिंग के महत्वपूर्ण सूचकांक (पीएमआई) में प्रदर्शित भी हो रहा है. फरवरी 2019 तक आते-आते चीन का पीएमआइ सूचकांक 49.2 प्रतिशत पहुंच चुका था. गौरतलब है कि पीएमआइ सूचकांक का 50 से नीचे होना मैन्युफैक्चरिंग में गिरावट को दर्शाता है. यानी चीन में आयात भी घटने लगा है.

वर्ष 2001 में डब्ल्यूटीओ का सदस्य बनने के बाद, उसके व्यापार नियमों का फायदा उठाकर चीन ने अपने निर्यात काफी बढ़ा लिये थे. वास्तविकता यह है कि चीन अपने निर्यातों को गुपचुप तरीके से सब्सिडी देकर अपनी प्रतिस्पर्द्धा शक्ति बढ़ाने का काम कर रहा था.

लेकिन, दुनियाभर में चीनी माल की भारी आवक के चलते जब फैक्टरियां बंद हो गयीं और रोजगार प्रभावित हुआ, तब इन देशों ने आयात शुल्क बढ़ाना शुरू किया. निर्यात आधारित अर्थव्यवस्था होने के कारण पिछले काफी समय से घटते निर्यातों ने चीन की नींद उड़ा दी है.

चीन ने श्रीलंका में हंबनटोटा बंदरगाह के निर्माण का जिम्मा लिया और इस हेतु श्रीलंका को बड़ा कर्ज भी दिया. कर्ज इतना ज्यादा था कि जिसे श्रीलंका सरकार चुका नहीं पायी और इसके बाद चीन ने श्रीलंका को इस हेतु बाध्य किया कि वह इस बंदरगाह को उसे 99 वर्ष की लीज पर दे दे.

श्रीलंका का यह अनुभव बाकी दुनिया के लिए एक नसीहत बन गया है और अन्य देशों को यह लगने लगा है कि इन्फ्रास्ट्रक्चर के नाम पर चीन इन देशों को फांसकर उन्हें अपने ऊपर आश्रित करते हुए उनके लिए खतरा बन सकता है. ऐसे में चीन के साथ इन्फ्रास्ट्रक्चर के लिए समझौते के रास्ते पर जा रहे, या समझौता कर चुके देश अब पीछे हटने लगे हैं. पिछले दिनों मलेशिया के प्रधानमंत्री ने चीन के लगभग 23 अरब डाॅलर के समझौतों को हरी झंडी दे दी थी, जिसे अब रद्द कर दिया गया है. बांग्लादेश, हंगरी और तंजानिया ने बेल्ट रोड परियोजनाओं को या तो रद्द कर दिया है या उसके स्वरूप को घटा दिया है.

म्यांमार ने चीन को धमकी देकर कि वह उसके समझौते को रद्द कर सकता है, क्यावपीयू बंदरगाह की पूर्व लागत 7.3 अरब डाॅलर से घटाकर 1.3 अरब डाॅलर पर ले आया है. चीन के साथ पहले साझेदारी और मित्रता निभानेवाला पाकिस्तान भी अब परियोजनाओं का पुनरावलोकन करने लगा है.

इन सभी घटनाओं से स्पष्ट है कि चीन का दुनिया के इन्फ्रास्ट्रक्चर में एक महाशक्ति बनने का सपना धूमिल हो रहा है. आर्थिक रूप से चीन का गिरता ग्राफ उसे कहां ले जायेगा, यह तो समय ही बतायेगा.

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