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जन-संस्कृति का त्योहार है होली

सुधीश पचौरी वरिष्ठ साहित्यकार spachauri17@gmail.com हमारी काॅलोनी के बच्चे प्लास्टिक की पिचकारियां हाथ में लेकर एक-दूसरे के पीछे दौड़ते दिख रहे हैं, किसी के हाथ में पानी भरे गुब्बारे हैं, तो किसी के पास छोटी बाल्टी में रंगीन पानी है. किसी के हाथ में हरा रंग लगा है, जो दौड़ कर दूसरे के गाल पर […]

सुधीश पचौरी
वरिष्ठ साहित्यकार
spachauri17@gmail.com
हमारी काॅलोनी के बच्चे प्लास्टिक की पिचकारियां हाथ में लेकर एक-दूसरे के पीछे दौड़ते दिख रहे हैं, किसी के हाथ में पानी भरे गुब्बारे हैं, तो किसी के पास छोटी बाल्टी में रंगीन पानी है. किसी के हाथ में हरा रंग लगा है, जो दौड़ कर दूसरे के गाल पर मलने के चक्कर में है.
होली सबसे पहले बच्चों में ही आती है. और फिर बच्चे ही बड़ों को भी अपनी होली में खींच लेते हैं कि मनहूसियत छोड़कर बच्चों की तरह होली खेलें. किशोर-किशोरी भी बच्चों से होली का आइडिया लेते हैं, बड़े-बूढ़े भी उनकी तरंग में रंग जाते हैं. होली है ही ऐसा मूड वाला त्योहार, जो बिना बताये सबको भा जाता है और सब अपने अपने तरीके से इसे खेलने लगते हैं.
वक्त बदल रहा है. होली में भी बहुत कुछ बदल गया है और बदल रहा है. जिस तरह की होली में हम आप आजकल रहते हैं, वह न जाने कितनी बार और कितनी तरह से बदलती हुई यहां तक पहुंची हैं. होली तो हमारे मन के मनाये मनी है, मन के मनाये चली है.
ज्यों-ज्यों होली शहराती हुई है, त्यों-त्यों नागरिक की होली बनी है. वह धूल से परहेज करती गयी है और हाल यह कि लोग सिर्फ होली का नाम जानते हैं. धुलेहड़ी भी कोई चीज होती है, इसे भूल गये हैं! होलिका जलायी जाती है, धुलेहड़ी के दिन उसकी राख से होली खेली जाती है.
एक प्रकार की जन-संस्कृति है होली, एक ‘कल्चर’ हैै. वह जनजीवन में अपने आप चली आती है. उससे भी पहले वसंत आता है बिना किसी के बुलाये. वह हवा से उसकी ठंडक को निकालकर समशीतोष्ण बना डालता है, न ज्यादा गरम, न ज्यादा ठंडी और तेज चलती हुई, जिसे स्कूली बच्चे इम्तिहानों की हवा कहते हैं!
होली जब भी आती है कुछ-कुछ अजीब-सी बातें याद दिलाती है. होली कृत्रिम चमक और साज-सज्जा के बरक्स सहजता का हस्तक्षेप है. होली कहती है कि आदमी इतना भी साफ-सुथरा न बने कि उसे गंदा करना पड़े. हिंदुस्तान में वही सजता है, जो कुछ मैला होता है, कुछ धूल भरा होता है, कुछ भीगा होता है! होली कहती है कि अमेरिका की नकल न बढ़े कि देश होली खेलना भूल जाये!
होली याद दिलाती है कि हम एक रंगभरी जल-संस्कृति हैं, जो आग में घी नहीं, पानी डालने में यकीन करती है. हालांकि, बहुत सी होली बची नहीं है, लेकिन उसके कुछ बुनियादी अर्थ बचे हुए हैं. होली मिलन का त्यौहार है, गिले-शिकवे दूर करने का मौका है.
होली फसल से भी जुड़ती है. रबी की फसल आ रही है. नवान्न आ रहा है. गांवों मंे गेहूं और चने के हरे दानों को होली की आग में भून कर बांटकर खाया जा रहा है और होरी गाया जा रहा है.
अगले दिन होली की धूल से धुलेहड़ी खेली जायेगी, अबीर गुलाल मला जायेगा और फिर रंग बरसाये जायेंगे. जो लोग बेहद फाॅर्मल हो गये हैं, उनको इनफाॅर्मल करने का नाम है होली. शर्ट की क्रीज को बिगाड़ने का नाम है होली. एक रंग के खिलाफ बहुत रंगों की लीला है होली! रंग के लगने-लगाने और रंग के न छूटने के मानी बड़े ही गहरे होते हैं. होली के रंग यहां प्रेम का प्रतीक बन जाते हैं! होली है ही ऐसा उत्सव जिसमें कुछ देर के लिए छेड़छाड़ भी एक प्रकार की प्रसन्न-संस्कृति बन जाती है!
होली को लेकर जितने भी फिल्मी गीत और गाने बने हैं, उनसे इस ‘छेड़छाड़’ और परस्पर की ‘रस-रंग-रार’ को बड़ी ही आसानी से समझा जा सकता है.
और इस दिन कोई बुरा भी नहीं मानता, क्योंकि होली पहले ही कह कर चलती है कि ‘बुरा न मानो होली है’. फिर भी जो बुरा माने, वह व्यक्ति होली के लायक नहीं है. होली के जरिये समाज ने मन के अंदर की गांठों को खोलने की जगह बनायी है. जिसकी खुल गयी, जिसके मन का अहंकार विगलित हो गया, वही सच्चा हुरहारा है, और बाकी सब होली के नकली खिलाड़ी हैं.
होली आती है, तो अपने साथ बहुत कुछ लेकर आती है और बहुत कुछ को बदलती भी जाती है. होली आती है, तो टीवी और मनोरंजन की दुनिया भी बदल जाती है.
होली के अवसर पर टीवी में आनेवाला एक विज्ञापन होली के मिजाज को बताता है. विज्ञापन में दो-तीन शोहदे टाइप होली के मूड में सड़क के किनारे खडे हैं. दूर से सफेद सलवार कमीज में दो लड़कियां आती दिखती हैं.
उनमें से एक शोहदा होली के अवसर पर लड़कियों को तंग करने के इरादे से गुलाल लेकर आगे बढ़ता है और उनमें से एक लड़की को रोक कर उसके गाल पर गुलाल लगा देता है और हंस कर लगभग चिढ़ाता हुआ वह कहता है कि लो रंग लगा दिया गया तुमको, अब इसे छुड़ाओगी कैसे? वह लड़की बोलती है कि यह रंग तो छूट जायेगा, पर तुम अपने मन के मैल को कब साफ करोगे? इस वाक्य को सुन कर लड़का एक झटका-सा खाता है. तभी फिर एक डिटरजेंट पावडर का विज्ञापन आता है, जो कहता है कि इस डिटरजेंट को लगाओ, सारे रंग धुल जायेंगे.
होली के रंग को धोने के लिए िवज्ञापन तो आते हैं, लेकिन प्रश्न वही है कि डिटरजेंट ऊपर के मैल को भले निकाल दे, अंदर के मैल को कौन निकालेगा?
तो भइया! अंदर के मन के मैल को तो होली ही निकालती है बस, एक बार होली की मस्ती में अपनी घृणा के कीचड़ को साफ करके तो देखो! इस मानी में होली एक सोशल साइकोलाॅजिकल थेरेपी है! जितना खेलेंगे, उतना ही तन और मन स्वस्थ होगा! इसलिए एक-दूसरे पर प्रेम का रंग डाल कर मन के मैल को धो डालो.

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