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गांधी के कंपास वाला न्यायमूर्ति

कुमार प्रशांत गांधीवादी विचारक k.prashantji@gmail.com कल रात 1.30 बजे महाराष्ट्र की उप-राजधानी नागपुर में जिस 92 साल के चंद्रशेखर शंकर धर्माधिकारी (20 नवंबर, 1927- 3 जनवरी, 2019) का निधन हुअा, उससे हमारी बौद्धिक दुनिया कितनी दरिद्र हो गयी है, इसका अंदाजा लगाना मुश्किल है. सत्तर से अधिक वर्षों के हमारे लोकतंत्र ने सत्ता अौर संपत्ति […]

कुमार प्रशांत

गांधीवादी विचारक

k.prashantji@gmail.com

कल रात 1.30 बजे महाराष्ट्र की उप-राजधानी नागपुर में जिस 92 साल के चंद्रशेखर शंकर धर्माधिकारी (20 नवंबर, 1927- 3 जनवरी, 2019) का निधन हुअा, उससे हमारी बौद्धिक दुनिया कितनी दरिद्र हो गयी है, इसका अंदाजा लगाना मुश्किल है.

सत्तर से अधिक वर्षों के हमारे लोकतंत्र ने सत्ता अौर संपत्ति की दुनिया में अपने पिता या परिवार की विरासतें संभालनेवाली कई हस्तियां देखी हैं, लेकिन ज्ञान और संस्कार की विरासत संभालनेवाले गिने-चुने परिवारों में धर्माधिकारी परिवार की अपनी ही धज रही है. मूलत: मध्य प्रदेश का यह परिवार कोई चार पीढ़ी पहले महाराष्ट्र पहुंचा, तो ऐसा मराठी बना कि लोग भूल ही गये कि ये लोग मूलत: हिंदी प्रदेश के हैं.

ज्ञान की वैसे तो कोई विरासत नहीं होती है, लेकिन ज्ञान की परंपराएं होती हैं- गहरी परंपराएं, जिन्हें समृद्धतर करनेवाले लोग अाते रहते हैं, अौर ज्ञान की नयी-नयी खिड़कियां खोलते जाते हैं. चंद्रशेखर धर्माधिकारी इस परंपरा के अाला प्रतिनिधि थे.

इनके पिता शंकर त्रियंबक धर्माधिकारी उन बिरले लोगों में एक थे, जिन्होंने अपने लंबे जीवन में महात्मा गांधी, विनोबा भावे तथा जयप्रकाश नारायण के साथ सिर्फ काम ही नहीं किया था, बल्कि उन तीन महान नेताओं के वैचारिक सखा भी रहे. इसलिए अाजादी के बाद उनका भारी-भरकम नाम कब सहज, स्नेह और अादर की पटिया पर घिसता हुअा दादा धर्माधिकारी बना अौर कब हम तक पहुंचते-पहुंचते मात्र ‘दादा’ रह गया, यह पता ही नहीं चला.

दादा (शंकर त्रियंबक धर्माधिकारी) के पिता अदालत में थे- पहले जिला जज हुए, फिर सेशंस जज हुए. लेकिन, अपनी जजी से कहीं अधिक उनका मान उनकी ईमानदारी, उनकी समत्वबुद्धि अौर किसी हाल में भी भ्रष्ट न हो सकने की उनकी सहज दृढ़ता के लिए था. वहीं चंद्रशेखर धर्माधिकारी ने यहां से अपना जीवन शुरू किया या यह कहूं कि यहीं से उन्होंने खुद को गढ़ना शुरू किया.

वह गांधी का युग था. गांधी की पाठशाला के अाचार्य थे दादा. इसलिए स्वाभाविक था कि उनका बेटा चंद्रशेखर धर्माधिकारी का दाखिला भी गांधी की पाठशाला में होता. वे सेवाग्राम अाश्रम की बाल मंडली में रहे, किशोर मंडली के प्रमुख सदस्य रहे.

दादा ने अपने बच्चों को दिशा तो दी, लेकिन उंगली पकड़कर चलाया नहीं. इसलिए सबके व्यक्तित्व ने भिन्न-भिन्न अाकार लिया, लेकिन किसी ने भी अपना मूल नहीं छोड़ा. चंद्रशेखर धर्माधिकारी ने दादा की बौद्धिक विरासत भी संभाली. दादा गांधी-विनोबा-जयप्रकाश के भाष्यकार रहे, चंद्रशेखर अपने पिता की इस त्रयी को समझते-बूझते अपने पिता के भाष्यकार बने. यह उनका स्वाभाविक प्रस्फुटन था.

चंद्रशेखरजी ने कानून की पढ़ाई की अौर 1956 में नागपुर उच्च न्यायालय से अपना काम शुरू किया. साल 1972 में वे बंबई हाइकोर्ट पहुंचे अौर फिर न्यायाधीश बने. यहीं से वे रिटायर भी हुए. लेकिन, पेशागत इस विवरण में यह बात दबी या छिपी नहीं रहनी चाहिए कि महिलाअों के अधिकारों के बारे में, अादिवासियों, बच्चों, पागलों तथा कैदियों के मानवाधिकारों के बारे में हमारी अदालतों का संस्कार अाज जिन फैसलों से हुअा है, उनमें चंद्रशेखर जी के कई फैसलों का खास स्थान है. लेकिन, उनकी जो दूसरी भूमिका इससे भी प्रखर अौर बुनियादी रही, वह थी उनकी चाकू-सी तीक्ष्ण मेधा, उनकी अजस्र बहती वाग्धारा, उनके अकाट्य तर्कों की ताकत अौर उनका सहज प्रेमल व दोस्ताना स्वभाव! उनके व्यक्तित्व में यह थी गांधी की बुनियाद!

देश-दुनिया के तमाम पेंचों-उलझनों को गांधी की दिशा देना अौर उसे पूरी शक्ति व प्रखरता से सत्ता व समाज के सामने रखने का दायित्व जिस तरह चंद्रशेखर धर्माधिकारी ने निभाया, वैसा दूसरा कोई नाम मैं सोचकर भी सोच नहीं पा रहा हूं.

अापातकाल में निरंकुश सत्ता की मार खाकर जब सर्वोच्च न्यायालय ने भी यह कह दिया था कि नागरिकों को मिले संविधानसम्मत बुनियादी अधिकार जब स्थगित हो गये हैं, तब जीवन जीने का अधिकार भी स्थगित हो गया है.

अाप इसके संरक्षण की गुहार लगाने अदालत भी नहीं अा सकते. तब मुंबई उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति चंद्रशेखर धर्माधिकारी ने यह अवधारणा प्रस्तुत की थी कि जीवन जीने का अधिकार संविधानप्रदत्त नहीं, बल्कि प्रकृतिप्रदत्त है, जिसे किसी भी कानूनी या संवैधानिक व्यवस्था से किसी भी हाल में छीना नहीं जा सकता है. संविधान को राक्षसी ताकत देने की तमाम पैरवियों पर यह एक गांधी-दृष्टि ऐसी भारी पड़ती है कि आज भी जिसकी काट खोजना संभव नहीं है.

अभी जब ऐसा अालम बनाया जा रहा है कि सरकार ही देश है अौर संविधान ही गीता-पुराण है, तब हमारे बीच से संविधान का एक ऐसा व्याख्याता चला गया कि जिसने बार-बार यही कहने-समझाने की कोशिश की थी कि सत्ता हो, कि संविधान, कि समाज, कोई भी नागरिक से बड़ा नहीं है.

उसने ऐसा कहा ही नहीं, ऐसी मान्यता को मजबूत बनानेवाली हर कोशिश के साथ चला भी. उनको खोकर हमने एक कानूनविद नहीं, बल्कि कानून का एक ऐसा पैदल सिपाही खो दिया है, जिसके पास गांधी का कंपास था.

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