भारतीय समाज को समझना हो तो इसका सबसे अच्छा उदाहरण भारतीय रेल है. एक ही सफर में कोई भेड़-बकरियों की तरह ठुंसा हुआ है और कोई एकदम शांत वातानुकूलित डिब्बे मे सोया है. इन दोनों के बीच भी कई श्रेणियां हैं. शादी-विवाह या प्रतियोगी परीक्षाओं के दौरान तो आरक्षित श्रेणी के यात्राी भी काफी मुश्किल मे फंस जाते हैं.
कई बार उनकी सीट पर दूसरों का कब्जा हो जाता है और वे व्यवस्था को कोसते रह जाते हैं. परंतु यात्राियों की भीड़ ही इतनी अधिक होती है कि प्रशासन भी बेबस होता है. ठीक यही समस्या हमारे समाज की है. बेतहाशा बढ़ती गरीबी और बेरोजगारी अपराधी पैदा कर रही है.
जीविकोपार्जन के लिए किये जानेवाले अपराध, मसलन- चोरी, डकैती, ठगी आदि सिर्फ कानून व्यवस्था के डर से रोके नहीं जा सकते. जिसके पेट में अन्न ना हो वह किसी भी डर से भूखों मरने के लिए बैठा नहीं रहता. ये अपराधी पकड़े भी जाते हैं तो जेल में भी अपने जैसे लोगों से मिलते हैं. अपराध संगठित होता जाता है.
लाभ के बंटवारे के आधार पर अपराध-पुलिस-राजनीति में संबंध बन जाता है जो और भी ज्यादा खतरनाक होता है. उदाहरण के लिए, अजय कुमार ने एसपी रहते अपराध पर रोक लगाने का ईमानदार प्रयास किया था लेकिन इसके बाद अपराधियों के राजनीतिक संरक्षण की बातें सामने आयी थीं. जरूरी है कि कानून-व्यवस्था मुस्तैदी से अपना काम करे, लेकिन साथ ही रोजगार के अवसर भी पैदा किये जाएं. वरना रेल यात्रा के संदर्भ में कहें तो वह दिन दूर नहीं, जब वातानुकूलित श्रेणी मे भी यात्रा करना दुष्कर होगा. युवा शक्ति बहुत बड़ी ऊर्जा है जिसका हमें रचनात्मक उपयोग करना होगा. बिहार ने स्वरोजगार की योजना शुरू कर मिसाल पेश की है.
राजन सिंह, ई-मेल से