।। कृष्ण प्रताप सिंह।।
(वरिष्ठ पत्रकार)
उत्तर प्रदेश के एटा जिले के चुरथरा गांव में तीन तांत्रिकों ने भूत उतारने के नाम पर मालती नाम की बीमार विवाहिता को पहले उसके घर में ही खंभे से बांधा, फिर आग में तपाई लोहे की जंजीरों से निर्ममतापूर्वक पीटा. बेहोश हो जाने के बाद भी वे गर्म चिमटे से उसे तब तक दागते रहे, जब तक कि उसकी मौत नहीं हो गयी. इस धतकरम में मालती के पति, देवर व अन्य ससुरालीजन भी साथ थे और उसकी मौत के बाद भागने की हड़बड़ी में उनमें से किसी को इतना भी याद नहीं रहा कि निर्वस्त्र शव की लज्ज ढकने को उस पर कुछ डाल दें. बदायूं के उसहैत थाना क्षेत्र के कटरा गांव में सामूहिक बलात्कारियों ने दो दलित बहनों पर कहर ढाने के बाद उन्हें मार कर पेड़ पर लटका दिया, तो मऊ जिले में घोसी थाना क्षेत्र के लखनी मुबारकपुर में 60 पार की विकलांग वृद्घा की अस्मत भी सुरक्षित नहीं रह सकी. उससे बलात्कार करनेवाले 35 साल के युवक को गुस्साई भीड़ ने पीट-पीट कर मार डाला! ऐसी ही जलालतभरी एक अन्य घटना सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह के नये निर्वाचन क्षेत्र आजमगढ़ में हुई, जिसके सरायमीर इलाके में 17 साल की दलित बालिका से चार दरिंदों ने सामूहिक बलात्कार किया.
लोकसभा चुनाव के नतीजे आने और केंद्र में मोदी सरकार के सत्ता संभालने के बाद प्रदेश में हुए जघन्य अपराधों की इस सूची को और बड़ा किया जा सकता है. राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों की जुबानी बात करें, तो प्रदेश में बलात्कार की प्रतिदिन औसतन दस घटनाएं होती हैं और ज्यादातर में बलात्कारी अपने शिकारों के शौच के लिए बाहर जाने का समय चुनते हैं. इस कारण कई बार पुलिस इनको घरों में शौचालयों की कमी की समस्या से जोड़ कर भी देखती है. सामाजिक-आर्थिक गैरबराबरी तो खैर हर अपराध की पृष्ठभूमि में होती ही है.
लेकिन यह निष्कर्ष निकालना गलत होगा कि प्रदेश की कानून-व्यवस्था को अचानक कोई नया मर्ज हो गया है. उसका यह मर्ज बहुत पुराना है. हां, अखिलेश राज ने कोढ़ में खाज की स्थिति पैदा की है और विरोधियों को यह सवाल करने का मौका दिया है कि क्यों पुलिस एक प्रभावशाली मंत्री की भैंस गायब होने पर अप्रत्याशित रूप से चुस्त हो जाती है, जबकि दलित युवतियों की जान व सम्मान पर हमले के मामले में न सिर्फ सुस्त, बल्कि बलात्कारियों के पक्ष में सक्रिय नजर आती है?
विडंबना यह है कि आम चुनाव में भयानक पराजय ङोलने के बाद भी अखिलेश कोई सबक लेते नहीं लगते. कहां तो उन्हें खुद अपनी ओर से पहल कर पीड़ितों के परिजनों के आंसू पोंछने चाहिए थे और कहां उनकी सक्रियता तब देखने में आयी, जब गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने घटना की रिपोर्ट मांग ली, राष्ट्रीय महिला आयोग की ओर से आवाज उठायी जाने लगी, बसपा सुप्रीमो मायावती ने उनकी बर्खास्तगी व राष्ट्रपति शासन की अपनी पुरानी मांग दोहरा डाली और कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने सीबीआइ जांच से आगे बढ़ कर इंसाफ सुनिश्चित करने की जरूरत जता डाली. अब भी अखिलेश के पास सीबीआइ जांच की सिफारिश के अलावा कोई ऐसा आश्वासन नहीं है, जिससे प्रदेश की शांति-व्यवस्था में लोगों का भरोसा बहाल हो या पीड़ितों को ढाढ़स बंधे.
यहां एक बात समझने की है. सपाविरोधी दल दलित बहनों के मामले का ज्यादा ही नोटिस ले रहे हैं, तो इसके पीछे उनकी सच्ची सहानुभूति नहीं है. मुलायम द्वारा रिक्त मैनपुरी संसदीय क्षेत्र और संसद के लिए निर्वाचित भाजपा के 12 विधायकों की विधानसभा सीटों के उपचुनाव निकट न होते, तो दूसरी घटनाओं की तरह इसे भी भुला दिया जाता! यह प्रदेश का दुर्भाग्य ही है कि अब भी नेता सिर्फ राजनीतिक कर्मकांड में व्यस्त हैं और मुआवजे व दोषियों को सजा दिलाने के ‘फौरी समाधानों’ से आगे नहीं बढ़ पा रहे. उनका मुख्य ध्यान दलित-पिछड़े अंतर्विरोध का लाभ उठाने पर है. चूंकि दलित बहनों के कुसूरवार व उनके संरक्षक पुलिस-सिपाही मुख्यमंत्री की जाति के हैं, इसलिए इसमें उनको घेरने का राजनीतिक लाभ मिल सकता है. मायावती के दलित वोट बैंक में दरार पड़ी है, तो उसके जख्म सहलाने वाले नये शुभचिंतक आगे आने ही हैं और उनमें एक नाम केंद्र की सरकार का भी रहना ही रहना है.
काश, कोई समझता कि हर अपराधी अंतत: व्यवस्था की ही उपज होता है, इसलिए उसके किसी भी कृत्य के लिए सबसे पहली जिम्मेवार वही होती है. लेकिन अपराध ‘सामूहिक’ होने लगें, तो व्यवस्था के बाद उनका सबसे बड़ा जिम्मा अपराधी के समाज की सामूहिक चेतना का होता है. इस दृष्टि से देखें, तो सामूहिक बलात्कार की कई घटनाओं में अवयस्कों के शामिल होने को लेकर चिंता कई गुना बढ़ जाती है. अपराधियों का जाति के आधार पर संरक्षण व विरोध भी इस चिंता को घटाता नहीं, बढ़ाता है! इन बढ़ती चिंताओं के बीच प्रदेशवासियों को चैन कैसे नसीब हो, यह एक बहुत ही जटिल प्रश्न है.