खान विभाग ने बालू घाटों की बंदोबस्ती से संबंधित संशोधित अधिसूचना जारी कर दी है. राज्य के जिन इलाकों के 150 से अधिक बालू घाटों की नीलामी हो चुकी है, उन्हें रद्द नहीं किया जायेगा. जिन इलाकों में बालू घाटों की नीलामी नहीं हुई है, वहां ग्राम पंचायतों को इस पर अधिकार दिया जायेगा. और, पंचायतें ही बालू घाटों की बंदोबस्ती करेंगी.
नीलामी से होनेवाली आय का 80 फीसदी हिस्सा पंचायतों के विकास पर खर्च होगा, जबकि 20 फीसदी हिस्सा राज्य सरकार के कोष में जमा होगा. ऐसा नहीं है कि सरकार के इस निर्णय के पीछे की अवधारणा पंचायतों के विकास और उनकी समृद्धि की है. राज्य के बालू घाटों को लेकर काफी लंबे समय से विवाद हो रहा था. सरकार ने राजस्व में वृद्धि का तर्क देकर बालू घाटों को नीलाम करना शुरू किया था.
इसका फायदा एक ही व्यक्ति की कंपनियों को हो रहा था. राज्य में बालू के दाम में भी अप्रत्याशित वृद्धि हो गयी थी. इसका असर राज्य के आधारभूत संरचना के निर्माण पर भी पड़ा. ग्रामीण स्तर पर लोग बेरोजगार होने लगे. इस नीलामी की आड़ में स्थानीय लोगों की उपेक्षा, बाहरी कंपनियों का वर्चस्व और राजस्व के नाम पर काफी कम राशि मिलने से राज्य में आक्रोश बढ़ गया था. बाद में सरकार को पीछे हटना पड़ा. अब सवाल यह उठता है कि आखिर राजस्व के नाम पर सरकार स्थानीय लोगों को बेरोजगार करने पर क्यों आमदा थी? सरकार को क्या इसकी जानकारी नहीं थी कि बालू के खेल में बड़ी कंपनियों के आ जाने से स्थानीय स्तर पर इसके दाम में वृद्धि हो जायेगी?
क्या इसका असर आधारभूत संरचना के निर्माण पर नहीं पड़ेगा? गरीबों के लिए चलायी जा रही आवास योजना पर असर नहीं पड़ेगा? सरकार की ओर से इन सब तथ्यों को नजरअंदाज करना क्या किसी षड्यंत्र का हिस्सा नहीं लगता? राज्य में जब से नीलामी की प्रक्रिया शुरू की गयी थी, तभी से बालू के दाम बढ़े हुए हैं. इस पर कोई नियंत्रण नहीं है. जिन बालू घाटों को बाहरी कंपनियों को दिया गया है, वो बालू के दाम स्थिर रखेंगी, इसकी क्या गारंटी है? सरकार को इस पर एक नीति बनानी चाहिए. जिन बालू घाटों की नीलामी हो चुकी है, उन्हें भी रद्द कर उस पर पंचायतों को अधिकार देना चाहिए.