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कीचड़ में ही धान फलते हैं!

मिथिलेश कु. राय, युवा रचनाकार mithileshray82@gmail.com पिछले दिन जब मूसलाधार बारिश हो रही थी, कक्का कहने लगे कि आषाढ़ आते-आते खेत कीचड़ होने के लिए व्याकुल होने लगते हैं. उन्होंने यह कहा कि खेत का कीचड़ हो जाने की अभिलाषा खुद के लिए न होकर दूसरे के हित के लिए होता है, तो मैं उनके […]

मिथिलेश कु. राय, युवा रचनाकार
mithileshray82@gmail.com
पिछले दिन जब मूसलाधार बारिश हो रही थी, कक्का कहने लगे कि आषाढ़ आते-आते खेत कीचड़ होने के लिए व्याकुल होने लगते हैं. उन्होंने यह कहा कि खेत का कीचड़ हो जाने की अभिलाषा खुद के लिए न होकर दूसरे के हित के लिए होता है, तो मैं उनके सामने मुंह करके बैठ गया. कक्का कह रहे थे कि कीचड़ में ही धान पलते हैं! वे वहीं फलते हैं.
उनका कहना था कि आषाढ़ से सावन-भादो तक खेत बारिश के पानी को सोखते हुए अपनी मिट्टी को कीचड़-कीचड़ करता रहता है. जिसमें झूम-झूम के लोग धान के विरवे रोपते हैं. आती सर्दी में उन्हीं विरवों में धान की शीश हवा के झोंकों के संग झूमती हैं और छन-छन करके गाती हैं. दशहरा-दीवाली में खुशियां वैसे ही चौगुनी नहीं रहती. अन्न से बखार भर जाने की प्रसन्नता भी उसमें मिली होती है!
कक्का सही कह रहे थे. कीचड़ की भी अपनी एक अलग ही महिमा है. कमल के दुर्लभ और बड़े-बड़े फूल तो सदैव उसी में खिला करते हैं. धान के रूप में भात का भी इसी कीचड़ से चोली-दामन का साथ है. सावन-भादो का महीना आते ही धान के लिए एक बड़े भूभाग को मनुष्यों की एक बड़ी आबादी कीचड़ बनाने के लिए प्रयासरत हो उठते हैं.
कक्का ठीक कह रहे थे कि अकारण ही प्रकृति इन महीनों में धरती को नम कर देने के लिए बादलों की मदद नहीं लेती है- जेठ के बाद खेत और खेतों के सृजनहार, दोनों के हृदय की पुकार से वह इतना द्रवित हो जाती है कि अपने आपको काले-काले बादलों के रूप में परिवर्तित कर यत्र-तत्र बरसने लगती है. उसकी इस सहृदयता पर जहां खेत नम होकर खिलने लगते हैं, वहीं उसमें धान के विरवे रोपते सृजनहार के कंठ से खुशी के गीत फूट पड़ते हैं.
बिना धरती का कीचड़ बने धान की फसल को उपजना संभव है क्या? नहीं. कक्का का कहना था कि कभी-कभी जब प्रकृति मनुष्य की मदद करने में अक्षम हो जाती है और समय गुजरता जा रहा होता है, तब मनुष्य अपने बाहुबल और बुद्धिबल का सहारा लिये खेतों में उतर पड़ता है. तब धरती के अंदर का पानी इनका साथ देता है और वह बाहर आकर खेत की मिट्टी पर बिछ जाता है.
हालांकि, तब धरती उतना कीचड़ नहीं हो पाती. लेकिन, धान के विरवे को रोपने लायक जमीन तैयार करने में मदद तो मिल ही जाती है. तभी अगर मनुष्य की इस जीवटता से प्रसन्न होकर बादल के कुछ टुकड़े भी पिघल जाते हैं, तो सोने पर सुहागा हो जाता है. धान के विरवे की हरियाली को और हरा होता देख लाखों आंखों की रोशनी और चेहरे की चमक में बेतहाशा वृद्धि हो जाती है.
कक्का कह रहे थे कि सावन-भादो का महीना अन्न के लिए मनुष्यों का उद्यम करने का महीना होता है. उनका कहना था कि बारिश के महीने में कीचड़ पसरता देखकर कृषकों के चेहरे पर घृणा का भाव नहीं आता. वे हर्षित होते हैं और उनकी बांछें खिलती रहती हैं. वे कह रहे थे कि इस कीचड़ को चेहरे पर पोतने के काम में नहीं लाया जाता, इनका उपयोग भूख मिटाने के लिए अन्न उपजाने के काम में किया जाता है.

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