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संघ और सरकार के बीच संतुलन

।। पुण्य प्रसून वाजपेयी।। (वरिष्ठ पत्रकार) जिस तरह के जनादेश के साथ नरेंद्र मोदी ने सत्ता संभाली है, उसमें उनका आदर्श रूप सामने आना चाहिए. यह देश की जनता ही नहीं, संघ परिवार भी सोचता होगा. मोदी संघ परिवार के प्रचारक के तौर पर काम करके प्रधानमंत्री के पद तक पहुंचे हैं. संघ परिवार के […]

।। पुण्य प्रसून वाजपेयी।।

(वरिष्ठ पत्रकार)

जिस तरह के जनादेश के साथ नरेंद्र मोदी ने सत्ता संभाली है, उसमें उनका आदर्श रूप सामने आना चाहिए. यह देश की जनता ही नहीं, संघ परिवार भी सोचता होगा. मोदी संघ परिवार के प्रचारक के तौर पर काम करके प्रधानमंत्री के पद तक पहुंचे हैं. संघ परिवार के सच को समझने के लिए इस प्रसंग को देखें कि जब राम को वनवास होता है, लक्ष्मण साथ चले जाते हैं अपना राजपाट त्याग कर और भरत जब सत्ता में आते हैं तब बाकायदा राम की खड़ाऊं लेकर सत्ता चलाते हैं. संघ ने परिवार को जिस तरह से बनाया है और वह काम कर रहा है, उसमें सादगी एक पक्ष तो है, लेकिन सवाल यह है कि अगर कोई प्रचारक प्रधानमंत्री बनता है, तो इस दौर में क्या वह उस सिस्टम पर हावी होता है, या प्रधानमंत्री पद की मजबूरियां हावी होती हैं, या फिर वाकई जिस सामाजिक शुद्धिकरण का जिक्र एक स्वयंसेवक करता रहता है, कोई प्रचारक प्रधानमंत्री बनने के बाद भी उस तर्ज पर काम करता है?

इस सवाल पर कितना बड़ा संकट और अंतर्द्वद्व है, वह शपथग्रहण समारोह से लेकर मंत्रिमंडल को बनाने आदि के बाद निकल कर सामने आने लगा है. लालकृष्ण आडवाणी सबसे बुजुर्ग हैं. मुरली मनोहर जोशी अपने कठघरे में कैद हैं, जिस दिन मंत्रिमंडल का विस्तार हो रहा था, उनके घर के बाहर सन्नाटा था. शपथ ग्रहण समारोह में इतने लोगों की मौजूदगी पहली बार थी. इसमें कौन लोग थे, इस बात पर ध्यान दीजिए. चुनाव प्रचार में बाकायदा अंबानी, अडाणी आदि का जिक्र होते रहा है. यह आम सोच हो सकती है कि यह चुनावी आरोप-प्रत्यारोप था, लेकिन जिस तरह से मुकेश अंबानी का पूरा परिवार राष्ट्रपति भवन के प्रांगण में एक जगह से दूसरी जगह दिखायी दिया, अनिल अंबानी मां के साथ आये, अडाणी भी नजर आये, नामी फिल्मी कलाकार भी मौजूद थे, सबकुछ किसी आपीएल मैच की तरह नजर आ रहा था.

आज के नेता ‘क्रोनी कैपिटलिज्म’ की बात करते हैं. जरा वक्त के आईने में झांकें. धीरूभाई अंबानी मिलना चाहते थे राजीव गांधी से, उन्हें वक्त नहीं दिया गया, तो प्रणब मुखर्जी ने किसी तरह वक्त की व्यवस्था करवायी. वह इतिहास का एक ऐसा पन्ना है, जिससे यह बात निकल कर आयी कि कैसे कोई प्रधानमंत्री कॉरपोरेट से दूर रहना चाहता था, ‘क्रोनी कैपिटलिज्म’ का साथ नहीं देना चाहता था. आगे बढ़ें तो मनमोहन सिंह के दौर में ‘क्रोनी कैपिटलिज्म’ का सवाल बार-बार उठा ही नहीं, बल्कि जब-जब घपले-घोटाले सामने आते रहे, ‘क्रोनी कैपिटलिज्म’ की बात भी आती रही. एक चीज तो स्पष्ट है, चाहे सोनिया गांधी हों या राहुल, इन दोनों में से कोई भी कॉरपोरेट घरानों के साथ नजर नहीं आया. अब सवाल उठता है कि आखिर कैसी पारदर्शिता दिखाने की विवशता थी?

अर्थव्यवस्था को लेकर संघ परिवार की अपनी जो समझ है, कहीं न कहीं, किसी न किसी रूप में वह कॉरपोरेट या पूंजीवादी घरानों से अपने आपको दूर रखता रहा है और उसका मानना रहा है कि भारत एक श्रमिक तबका है, जिसको अर्थव्यवस्था में जोड़ा जाना चाहिए. शायद इसीलिए संघ का स्वदेशी जागरण मंच इस पर काम करता रहा है.

किन्हें मंत्री बनाया गया है, यह भी देखें. सवाल यह नहीं है कि क्यों कोई बारहवीं पास है, तो कोई पांचवीं पास. राजनेता के लिए यह कसौटी नहीं है कि वह कितना पढ़ा-लिखा है, क्योंकि उसका जुड़ाव जनता और लोगों से होता है. यह एक सच्चई है कि बहुत से कम पढ़े-लिखे नेता भी कैबिनेट मंत्री रहे हैं. 12वीं पास स्मृति ईरानी को मानव संसाधन विकास (एचआरडी) मंत्री बनाया गया है. एचआरडी पहले शिक्षा मंत्रलय के रूप में जाना जाता था और इतिहास में जो शिक्षा मंत्री रहे हैं, उन्होंने जो काम किया है, उस आधार पर समझ से परे है कि यह पद स्मृति को क्यों दिया गया. संघ परिवार में भी कहीं न कहीं इसे लेकर चिंता है, क्योंकि शिक्षा के जरिये सामाजिक शुद्धिकरण की बात संघ करता रहा है.

‘गवर्नेस सबसे ज्यादा और गवर्नमेंट सबसे कम’ की नीति पर काम करने के साथ ही नरेंद्र मोदी ने मिले-जुले चेहरों को मंत्रिमंडल में शामिल किया है. जितनी भी परियोजनाएं रुकी हुई थीं, कहा गया है कि उन पर तेजी से काम किया जाये. कांग्रेस के दौर में परियोजनाओं के रुकने की दो बड़ी वजहें थीं. एक, जब लगातार घोटाले सामने आ रहे थे तो नौकरशाही ने काम करना बंद कर दिया था. दूसरी, जो नियम सरकार बनाती है, अगर वही नियम सरकार उलट दे तो नौकरशाही क्या करे. किसी योजना को लागू कराने में कोई दूसरा मंत्रलय आड़े न खड़ा हो, इसलिए बहुत ही महीन तरीके से मंत्रलयों को इस तरह से बनाया गया है कि कामों में तेजी आये. यहां ‘क्रोनी कैपिटलिज्म’ वाला सवाल इसी में कहीं छुप जाता है. पहले यह सवाल बना हुआ था कि क्या मोदी का कैबिनेट भी ‘क्रोनी कैपिटलिज्म’ से प्रभावित होगा?

कैबिनेट बैठक में जो दस सूत्री प्राथमिकताएं तय की गयी हैं, उनमें सबसे बड़ी चुनौती यानी महंगाई पर लगाम लगाने का जिक्र नहीं है. याद कीजिए कि संघ परिवार की प्राथमिकताओं में महंगाई पर लगाम और कालाधन वापस लाना शामिल था. कालेधन पर एसआइटी गठित करना सरकार की मजबूरी थी, क्योंकि इसके लिए सुप्रीम कोर्ट द्वारा दी गयी 30 मई तक की मियाद खत्म हो रही थी. यूपीए-2 ने यह काम नयी सरकार के लिए छोड़ दिया था. यदि 30 तारीख तक एसआइटी का गठन नहीं हो जाता, तो यह काम सुप्रीम कोर्ट को अपने तरीके से करना पड़ता.

धारा 370 पर संघ परिवार लगातार सवाल खड़ा करता रहा है. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने पहली बार कश्मीर को लेकर यह सवाल खड़ा किया था. उस समय कश्मीरी पंडितों की वापसी को लेकर घना मंथन हुआ था. इस मसले को छेड़ने का अर्थ है कि सरकार कहीं-न-कहीं संघ परिवार के साथ खड़ी है. कश्मीर को लेकर संघ परिवार मानता रहा है कि इस बारे में पाकिस्तान से बातचीत नहीं हो सकती है, क्योंकि कश्मीर हमारा अंदरूनी मसला है. परंतु पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ जब आये, तो उनके साथ आतंकवाद की बात तो उठी ही, साथ ही वापस जाकर नवाज सरकार के अधिकारी यह कहने से नहीं चूके कि बात कश्मीर पर भी होगी. जब बात कश्मीर पर भी होगी, तो उसमें बात हुर्रियत की भी होगी. पाकिस्तान के लिए कश्मीर भारत का अभिन्न हिस्सा नहीं है और वह इसमें अंतरराष्ट्रीय दखल का प्रयास भी करता रहा है.

यानी मोदी सरकार ‘चेक एंड बैलेंस’ का अद्भुत रोल निभा रही है, जिसमें संघ परिवार की बात भी ध्यान में रखनी है और उन नीतियों को भी लागू करना है, जिससे लगे कि सरकार विकास के मापदंड को पूरा करना चाहती है और योजनाओं पर तेजी से काम करना चाहती है.

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