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प्रशासनिक खर्च के भरोसे विकास

मोहन गुरुस्वामी वरिष्ठ टिप्पणीकार mohanguru@gmail.com हमारे आर्थिक विकास के अवयवों को देखने से यह पता चलता है कि लोक प्रशासन के आकार में पिछली तिमाही की बनिस्बत सात प्रतिशत की वृद्धि हुई है, जिसने इसे भारत के आर्थिक विकास का सबसे बड़ा कारक बना दिया है. मतलब यह कि हम सरकारी कर्मियों को जितना ज्यादा […]

मोहन गुरुस्वामी
वरिष्ठ टिप्पणीकार
mohanguru@gmail.com
हमारे आर्थिक विकास के अवयवों को देखने से यह पता चलता है कि लोक प्रशासन के आकार में पिछली तिमाही की बनिस्बत सात प्रतिशत की वृद्धि हुई है, जिसने इसे भारत के आर्थिक विकास का सबसे बड़ा कारक बना दिया है.
मतलब यह कि हम सरकारी कर्मियों को जितना ज्यादा भुगतान करेंगे, आर्थिक विकास की गति उतनी ही तेज होती जायेगी और यह प्रक्रिया तब तक चलती जायेगी, जब तक एक दिन सरकारी खजाने का दिवाला न पिट जाये. वर्ष 2018 की तीसरी तिमाही में देश के आर्थिक विकास में लोक प्रशासन का योगदान 17.3 प्रतिशत रहा. चौथी तिमाही में यह बढ़ते हुए 22.4 प्रतिशत पर पहुंच विनिर्माण के योगदान (22.7 प्रतिशत) से केवल कुछ ही पीछे रह गया.
पर यही अंतिम तथ्य नहीं है. सातवें वेतन आयोग द्वारा सभी सरकारी कर्मियों के भुगतान में की गयी औसतन 23.5 प्रतिशत की वृद्धि से असंतुष्ट कर्मी यह आस भी लगाये बैठे हैं कि उन्हें इसके आगे की वृद्धि देने हेतु वित्तमंत्री द्वारा दिये गये आश्वासन की दिशा में प्रधानमंत्री अपने 15 अगस्त के भाषण में कुछ अहम घोषणा करेंगे, जबकि केंद्रीय कर्मियों के वेतन में केवल इस वृद्धि ने सरकारी खर्च में 1.14 लाख करोड़ रुपयों का इजाफा ला दिया है.
कर्मियों को यह उम्मीद भी है कि सेवानिवृत्ति की उम्र बढ़ाकर 62 वर्ष कर दी जायेगी, ताकि वे इस दरिद्र देश की सेवा और भी अधिक अवधि तक कर सकें.
सातवें वेतन आयोग की अनुशंसाएं और उन्हें भूतलक्षी प्रभाव से लागू करने की सरकारी स्वीकृति हमारी अर्थव्यवस्था के लिए कितनी लाभदायक होगी, इसे लेकर टिप्पणियों की बाढ़ रही है. वेतन की लागत में वृद्धि ने सरकारी नियुक्तियां धीमी कर दी हैं और अधिकतर सरकारी विभागों में कर्मियों का टोटा बना हुआ है.
इसकी कुछ बानगियां लें, तो राजस्व संग्रहण विभागों में कर्मियों की 45.45 प्रतिशत, स्वास्थ्य विभाग में 27.59 प्रतिशत, रेलवे में 15.15 प्रतिशत, जबकि गृह मंत्रालय में केवल 7.2 प्रतिशत की यह कमी हमारी व्यवस्था की पोल खोलती-सी है. ऐसा कहा जाता रहा है कि सरकार का मुख्य काम कर संग्रहण है, ताकि उसे लोक कल्याण पर खर्च किया जा सके. पर तथ्य तो यही बताते हैं कि अपने इस मुख्य काम से ही सरकार का सरोकार आज न्यूनतम रह गया है.
इस दलील का निपट बेतुकापन कि ऊंचे सरकारी वेतन अर्थव्यवस्था के लिए लाभदायक हैं, उस नासमझी की पराकाष्ठा है, जो हमारे शीर्ष नीति-चिंतन में घर कर बैठा है. इस नीति के अनुसार अधिक वेतन वृद्धि से आर्थिक विकास भी तेज होगा.
सोचने की बात यह है कि इससे सड़कों, ऊर्जा संयंत्रों, स्कूलों और अस्पतालों जैसी जिन जरूरी अवसंरचनाओं के लिए निधि की कमी होगी, क्या वे जीडीपी वृद्धि के कारक नहीं हैं? पिछली वेतन वृद्धि ने केंद्रीय एवं राज्य सरकारों तथा लोक उद्यमों के 2.30 करोड़ सरकारी कर्मियों को लाभान्वित किया. उद्योगों एवं बैंकों के शीर्ष विश्लेषकों ने केंद्रीय सरकार द्वारा की गयी इन वृद्धियों का यह कहते हुए जोरदार स्वागत किया कि यह ‘अर्थव्यवस्था में उपभोग को बढ़ावा’ देते हुए ऊंचे जीडीपी विकास का वाहक बनेगा. दूसरी ओर, आईआईएम अहमदाबाद द्वारा किया गया यह अध्ययन भी काबिलेगौर है कि ‘सरकारी क्षेत्र के वेतनमान निजी क्षेत्र से स्पष्टतया अधिक’ हैं.
यदि आप इस खर्चे में बढ़ोतरी से चिंतित हैं, तो मैं अब आपको चिंता की एक और वजह देने जा रहा हूं. आप प्रायः यह सोचते होंगे कि हमारा लोक प्रशासन क्यों इतना प्रभावहीन है. एक अग्रणी मीडिया संगठन द्वारा किया गया विश्लेषण यह बताता है कि लगभग 14 प्रतिशत अधिकारियों का अपने पदस्थापन के एक वर्ष के अंदर तबादला कर दिया जाता है, जबकि अन्य 54 प्रतिशत 18 महीने के अंदर बदल दिये जाते हैं.
दूसरे शब्दों में, भारत के 68 प्रतिशत अथवा दो-तिहाई से भी अधिक शीर्ष नौकरशाह अपने एक पदस्थापन पर औसतन 18 माह से भी कम समय व्यतीत कर पाते हैं. विश्लेषित किये गये सैंपल में केवल 8 प्रतिशत अधिकारी ही एक पदस्थापन पर औसतन दो साल से अधिक का कार्यकाल बिता सके और ऐसे अधिकारियों की तादाद तो केवल 14 ही थी, जिन्होंने अपने दो तबादलों के बीच औसतन तीन वर्षों से ज्यादा वक्त बिताया. इस तरह, इतना अधिक व्यय करके भी हम जो प्रशासन पा रहे हैं, वह किस स्तर का है?
भारत में गरीबों की बड़ी तादाद को देखते हुए हमें यह सवाल तो पूछना ही चाहिए कि आखिर ऐसा आर्थिक विकास किसकी कीमत पर होगा? इस संबंध में अरुण जेटली की उक्ति किसी परिवार के उस मुखिया की तरह ही है, जो बच्चों के दूध में कटौती कर धूम्रपान तथा शराब के खर्चे में बढ़ोतरी करना चाहता है.
भारत में सरकार के तीनों स्तरों को मिलाकर कर्मियों की कुल संख्या लगभग 1.85 करोड़ होती है. इनमें केंद्रीय सरकार के 34 लाख कर्मी, राज्य सरकारों के 72.18 लाख कर्मी, अर्धसरकारी एजेंसियों के 58.14 लाख कर्मी तथा स्थानीय सरकार के स्तर पर केवल 20.53 लाख कर्मी हैं. दूसरे शब्दों में इसका सीधा तात्पर्य यह है कि जहां पांच कर्मीं ‘क्या करें और क्या न करें’ बतानेवाले हैं, वहीं हमारी सेवा का दारोमदार केवल एक कर्मीं पर ही है.
तो क्या हमारे सिर पर एक बड़ी सरकार सवार है? ऐसा नहीं है. भारत में प्रति एक लाख नागरिक पर 1,622.8 सरकारी कर्मी हैं. इसके विपरीत, अमेरिका में कर्मियों की यह तादाद 7,681 है. फिर बिहार में जहां प्रति एक लाख नागरिक पर 457.60 कर्मी हैं, वहीं मध्य प्रदेश में 826.47 कर्मी तथा ओडिशा में 1,191.97 कर्मी हैं.
कहने का अर्थ यह नहीं कि गरीबी और लोक सेवकों की कम संख्या में कोई संबंध है. गुजरात में प्रति लाख लोग पर कर्मियों की यह संख्या 826.47 है, जबकि मिजोरम में यह 3,950.27 है. इनमें से कोई भी राज्य अंतरराष्ट्रीय स्तर के निकट नहीं पहुंचता.
साफ है कि भारत के अपेक्षाकृत पिछड़े राज्यों में लोक सेवकों की संख्या कम है. मतलब यह है कि गरीबी को संबोधित करने हेतु शिक्षा, स्वास्थ्य, एवं सामाजिक सेवाओं के लिए पर्याप्त संख्या में कर्मी उपलब्ध नहीं हैं.
फिर निष्कर्ष तो यही निकलता है कि बेहतर सरकार तथा अधिक सरकारी कर्मियों की बजाय हमें ज्यादा खर्चीली सरकार मिल रही है. हम सरकार के उच्च वेतनभोगी कर्मियों-रूपी एक ऐसे शेर पर सवार हैं, जो उपभोग एवं जीडीपी विकास तो बढ़ा रहा है, पर इस शेर की पीठ से उतरना बहुत कठिन है.
(अनुवाद: विजय नंदन)

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