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पाक चुनावों में सेना का खेल

आशुतोष चतुर्वेदी प्रधान संपादक, प्रभात खबर ashutosh.chaturvedi @prabhatkhabar.in पाकिस्तान में 25 जुलाई को होने वाले संसदीय चुनावों पर सबकी निगाहें लगी हुईं हैं. भारत के लिए चुनाव इसलिए महत्वपूर्ण है कि पाकिस्तान में बनने वाली सरकार सीधे तौर से भारत को प्रभावित करती है. इस बार भी मुख्य मुकाबला सत्तारूढ़ नवाज शरीफ की पार्टी पाकिस्तान […]

आशुतोष चतुर्वेदी
प्रधान संपादक, प्रभात खबर
ashutosh.chaturvedi
@prabhatkhabar.in
पाकिस्तान में 25 जुलाई को होने वाले संसदीय चुनावों पर सबकी निगाहें लगी हुईं हैं. भारत के लिए चुनाव इसलिए महत्वपूर्ण है कि पाकिस्तान में बनने वाली सरकार सीधे तौर से भारत को प्रभावित करती है.
इस बार भी मुख्य मुकाबला सत्तारूढ़ नवाज शरीफ की पार्टी पाकिस्तान मुस्लिम लीग और इमरान खान की पार्टी पाकिस्तान तहरीके इंसाफ के बीच है, लेकिन इस बार पाकिस्तानी सेना इमरान खान को जिताने के लिए पूरा जोर लगा रही है. गैलप पोल के अनुसार नवाज शरीफ की पार्टी के सबसे बड़े दल के रूप में उभरने की संभावनाएं हैं, लेकिन इस पोल के जवाब में तुरंत एक पोल आया, जिसमें इमरान खान की पार्टी तहरीके इंसाफ को जीतता हुआ बताया गया है.
और तो और, चुनाव से ठीक पहले भ्रष्टाचार के एक मामले में नवाज शरीफ को 10 साल और उनकी बेटी मरियम को सात साल की जेल की सजा सुना दी गयी. पाक सुप्रीम कोर्ट ने पनामा पेपर लीक मामले में नवाज शरीफ पर सरकारी या पार्टी में कोई पद लेने पर पहले से ही रोक रखी है, लेकिन अब भी वह पार्टी का चेहरा हैं.
तीसरी सबसे बड़ी पार्टी पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी यानी पीपीपी है, जिसकी बागडोर बिलावह भुट्टो जरदारी के हाथ में है. बिलावल भुट्टो बेनजीर भुट्टो और आसिफ अली जरदारी के बेटे हैं, लेकिन इन्हें सत्ता की दौड़ में नहीं माना जा रहा है. तीनों पार्टियों की तुलना करें, तो नवाज इनमें सबसे शरीफ हैं, लेकिन वह भी कोई दूध के धुले हों, ऐसा भी नहीं है. फिर भी, सेना इनको नापसंद करती है. खबरों के अनुसार, इन्हें सेना ने ही पनामा मामले में लपेटकर सत्ता से बेदखल करवा दिया.
दूसरी ओर इमरान खान हैं, जो भारत और कश्मीर मुद्दे पर पाकिस्तानी सेना की जुबान बोलते हैं. ऐसी भी आशंका है कि किसी एक पार्टी को बहुमत न मिल पाये. ऐसे में छोटी पार्टियों के समर्थन से पाकिस्तान में नयी सरकार का गठन हो सकता है. दुर्भाग्य यह है कि पाकिस्तान में ज्यादातर छोटी पार्टियां कट्टरपंथी विचारधारा की समर्थक हैं.
यदि वे सरकार में हिस्सेदार बनेंगी, तो सरकार का रुख और अधिक भारत विरोधी रहेगा. छोटी पार्टियों में पाकिस्तान के पूर्व सैन्य शासक परवेज मुशर्रफ की ऑल पाकिस्तान मुस्लिम लीग और मुंबई हमले का मास्टरमाइंड हाफिज सईद की पार्टी मिल्ली मुस्लिम लीग जैसी पार्टियां शामिल हैं. हालांकि हाफिज सईद की पार्टी को तो चुनाव लड़ने की अनुमति नहीं मिली है, इसलिए वह अपने उम्मीदवारों को अल्लाह-उ-अकबर तहरीक के टिकट पर चुनाव लड़वा रहा है.
इस बार सेना ने चुनाव प्रचार तक पर अपना शिकंजा कस दिया है. जो भी पत्रकार, चैनल अथवा अखबार नवाज शरीफ के पक्ष में खड़ा नजर आ रहा है, खुफिया एजेंसियां उन्हें निशाना बना रही हैं.
पाकिस्तान के सबसे बड़े टीवी प्रसारक जियो टीवी को हफ्तों तक आंशिक रूप से ऑफ एयर रहना पड़ा. इसी तरह डॉन अखबार लोगों तक नहीं पहुंच पा रहा है, क्योंकि उसने बीच में नवाज शरीफ का पक्ष लिया था. खुफिया एजेंसियों की धमकी के कारण एजेंट और हॉकर उसे बांट नहीं रहे हैं.
भारत के संदर्भ में देखें, तो पड़ोसी मुल्क में राजनीतिक अस्थिरता, लोकतांत्रिक शाक्तियों का कमजोर होना और सेना का मजबूत होना शुभ संकेत नहीं है.
नवाज शरीफ या फिर इसके पहले जब भी किसी राजनेता ने भारत के साथ रिश्ते सामान्य करने की कोशिश की है, सेना ने उसमें हमेशा पलीता लगाया है. सेना को नवाज शरीफ की पीएम मोदी से मुलाकातें और रिश्ते सामान्य करने की कोशिशें पसंद नहीं आयीं थीं. कुछ समय पहले वहां के अखबार डॉन में एक खबर छपी थी कि नवाज शरीफ ने एक मीटिंग में सेना के अधिकारियों से साफ तौर से कह दिया कि आतंकवादियों की ऐसे ही मदद जारी रही, तो पाकिस्तान दुनिया में अलग-थलग पड़ जायेगा. इस पर भारी बावेला मचा और सेना-शरीफ के बीच तनातनी इतनी बढ़ गयी कि उन्हें पीएम पद तक गंवाना पड़ा.
पाकिस्तान में सेना का साम्राज्य फैला हुआ है. वह उद्योग धंधे चलाती है. प्रोपर्टी के धंधे में उसकी खासी दिलचस्पी है. उसकी अपनी अलग अदालतें हैं. सेना का एक फौजी ट्रस्ट है, जिसके पास करोड़ों की संपदा है. खास बात यह है कि सेना के सारे काम-धंधे सभी तरह की जांच-पड़ताल के दायरे से बाहर हैं. कोई उन पर सवाल नहीं उठा सकता है.
कराची और लाहौर में तो डिफेस हाउसिंग ऑथारिटी के पास लंबी चौड़ी जमीनें हैं. गोल्फ क्लब से लेकर शापिंग माल और बिजनेस पार्क तक सेना ने तैयार किये हैं. अदालतें उसके इशारे पर फैसले सुनाती हैं, अन्यथा जजों को रुखसत कर दिया जाता है. अब तक पाकिस्तान में जितने भी तख्ता पलट हुए हैं, सभी को वहां के सुप्रीम कोर्ट ने उचित ठहराया है. सेना हमेशा से दबे-छुपे ढंग से चुनावों में खेल खेलती आयी है, लेकिन इस बार खुला खेल फर्रुखाबादी है.
इस बार इमरान खान की पार्टी को सेना का पूरा समर्थन हासिल है. 1977 में जब जनरल जिया उल हक ने तख्ता पलट कर सत्ता संभाली, उस दौरान पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के जुल्फिकार अली भुट्टो बड़े नेता हुआ करते थे. जिया ने उनके खिलाफ कई मामले चला कर उन्हें फांसी पर लटकवा दिया. उस दौरान नवाज शरीफ जिया के साथ हुआ करते थे और पंजाब सूबे के मुख्यमंत्री थे. जिया का नवाज शरीफ पर हाथ था और माना जाता है कि उन्होंने ही नवाज शरीफ को अलग दल मुसलिम लीग (नवाज) गठित करने को प्रेरित किया.
जिया की मौत के बाद पीपीपी की नेता बेनजीर भुटटो और नवाज शरीफ के बीच सत्ता संघर्ष चला. बेनजीर लोकप्रिय नेता थीं और नवाज शरीफ उनके आगे कहीं नहीं टिकते थे. शह-मात के खेल में सेना ने कमजोर नवाज शरीफ पर हाथ रख दिया. आज इमरान खान सेना की शह पर नवाज शरीफ के खिलाफ अभियान छेड़े हुए हैं.
उस दौरान नवाज शरीफ सेना की शह पर बेनजीर की सरकार के पीछे हाथ धोकर पड़े थे. आज इतिहास अपने आपको दोहरा रहा है, लेकिन 1997 में जब नवाज शरीफ दूसरी बार प्रधानमंत्री बने, तो उनके सेना से रिश्ते खराब हो गये. जब उन्होंने सेना प्रमुख परवेज मुशर्रफ को हटाना चाहा, तो उन्होंने नवाज शरीफ का ही तख्ता पलट दिया. उन्हें भ्रष्टाचार और देशद्रोह के आरोप में जेल भेज दिया गया. बाद में नवाज शरीफ को देश निकाला दे दिया गया.
पाकिस्तान में सेना और राजनीतिज्ञों के बीच शह-मात के इस खेल का खामियाजा भारत को भी झेलना पड़ता है. लोकतांत्रिक रूप से चुनी सरकार से संवाद की गुंजाइश रहती है, सेना पर भी थोड़ा बहुत अंकुश रहता है. वह खुले आम आतंकवादियों को बढ़ावा नहीं दे पाती, लेकिन अब तक का जो अनुभव रहा है, उसके अनुसार पाकिस्तानी सेना केवल सर्जिकल स्ट्राइक की भाषा ही समझती है. भारत के दृष्टिकोण से यह स्थिति चिंताजनक है.

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