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भारत की विदेश नीति सशक्त
II आलोक कु. गुप्ता II एसोसिएट प्रोफेसर, दक्षिण बिहार केंद्रीय विवि akgalok@gmail.com प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने विगत अप्रैल में वुहान (चीन) और फिर मई में सोची (रूस) की यात्रा की. दोनों यात्राएं भारत की विदेश नीति में एक नये राजनय की शुरुआत थी. यह राजनय थी ‘अनौपचारिक शीर्ष मुलाकात’ की. इन दो मुलाकातों में विदेश […]
II आलोक कु. गुप्ता II
एसोसिएट प्रोफेसर,
दक्षिण बिहार केंद्रीय विवि
akgalok@gmail.com
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने विगत अप्रैल में वुहान (चीन) और फिर मई में सोची (रूस) की यात्रा की. दोनों यात्राएं भारत की विदेश नीति में एक नये राजनय की शुरुआत थी. यह राजनय थी ‘अनौपचारिक शीर्ष मुलाकात’ की. इन दो मुलाकातों में विदेश नीति की कई जटिलताएं और जरूरतें छिपी हुई हैं. पिछले दशक से बदलती वैश्विक व्यवस्था और क्षेत्रीय भू-राजनीति की मांग भी है.
भारत-रूस संबंध पिछले दो दशकों से ढलान पर रहा है, बावजूद इसके कि आज भी भारत की निर्भरता सैन्य-संबंधी हार्डवेयर (पार्ट-पुर्जों) हेतु रूस पर बनी हुई है, क्योंकि भारतीय सेना के तीनो अंगों में रूस-निर्मित सैन्य हथियारों की प्रचुर बहुलता है.
वर्तमान में भारत ने लगभग 12 बिलियन डॉलर के सैन्य हथियारों की आपूर्ति हेतु करार कर रखा है. इस डील में रूस-निर्मित सर्वोच्च तकनीक वाली एस-400 ट्रम्फ मिसाइल डिफेंस सिस्टम भी शामिल है, जो भारत की प्रतिरक्षा को सामरिक दृष्टिकोण से मजबूत बनाने हेतु अहम है.
अमेरिकी संसद द्वारा अगस्त 2017 में काटसा (काउंटरिंग अमेरिका ऐडवरसरीज थ्रू सैंक्सन एक्ट) कानून पारित किया गया था, जो जनवरी 2018 से लागू भी हो गया है.
इस कानून की धारा 231 के अनुसार अगर कोई भी राष्ट्र रूसी हथियारों की खरीदारी करता है या रूस की इंटेलीजेंस व्यवस्था के साथ सहयोग करता है, तो उसके विरुद्ध अमेरिका आर्थिक प्रतिबंध लगायेगा. अमेरिका ने रूस के ऐसे 39 संस्थानों की चिह्नित भी किया है, जिसमें ज्यादातर रूसी राज्य द्वारा संचालित संस्थान हैं और भारत का इन संस्थानों के साथ व्यापारिक एवं सामरिक संबंध भी है. ऐसे में भारत की विदेश नीति, व्यापार एवं प्रतिरक्षा संबंधी जरूरतों का कई प्रकार से प्रभावित होना लाजिमी है.
बीते दशक में भारत ने अपने प्रतिरक्षा संबंधी जरूरतों की खरीदारी में विभिन्नता लाने का प्रयास किया है. सीपरी (स्टॉकहोम पीस रिसर्च इंस्टिट्यूट) के अनुसार जहां भारत ने 1960 से अब तक रूस को लगभग 65 बिलियन डॉलर के हथियारों का व्यापार दिया है, वहीं अमेरिका को 2007 से अब तक लगभग 15 बिलियन डॉलर के हथियारों का आॅर्डर दे चुका है.
सीपरी-2018 रिपोर्ट के अनुसार, भारत द्वारा रूस से हथियारों की खरीदारी में लगातार गिरावट आ रही है. रूस अपनी इस क्षति की पूर्ति करने हेतु नये ग्राहकों की तलाश में है और इसी क्रम में पिछले कुछ वर्षों में उसका झुकाव पाकिस्तान की तरफ बढ़ा है और यह वादा किया है कि रूस आतंकवाद के खिलाफ लड़ने में पाकिस्तान की मदद करेगा, जिसका सीधा मतलब है कि रूस पाकिस्तान को हथियारों की आपूर्ति करेगा. यह निश्चय ही भारत की रक्षा क्षेत्र के लिए खतरे का सबब बनेगा.
अफगानिस्तान में भी तालिबानों के साथ वार्ता में रूस शामिल है, जिसका भारत विरोध करता रहा है. भारत का राष्ट्रीय हित अफगानिस्तान में भी बड़ी मात्रा में निहित है, जिसके कारण भी भारत को रूस के साथ वार्ता करने की जरूरत है.
अत: भारत द्वारा रूस को यह आश्वासन देना जरूरी था कि भारत की विदेश नीति सशक्त है और भारत अमेरिका एवं किसी दूसरी शक्ति के दबाव में आकर ऐसा कोई भी कदम नहीं उठायेगा, जिसका भारत-रूस संबंधों पर नकारात्मक प्रभाव पड़े. मोदी जी की सोची व वुहान की यात्रा इसी विदेश नीति की जरूरत की एक कड़ी है.
सोची के रास्ते मोदी जी ने रूसी राष्ट्रपति पुतिन के विश्वास को जीतने का प्रयास किया है, ताकि भारत को रूस द्वारा रक्षा संबंधी आपूर्ति प्रभावित नहीं हो. साथ ही ऐसा न हो कि रूस भारत के चिर-प्रतिद्वंदी पाकिस्तान के इतने नजदीक चला जाये कि भविष्य में भारत के लिए यह घोर चिंता का विषय बन जाये.
दूसरी ओर, भारत की भारत-प्रशांत (इंडो-पेसिफिक) नीति और ‘एक्ट-ईस्ट’ नीति पर चीन के सहयोग की अपेक्षा नहीं की जा सकती. क्योंकि दोनों क्षेत्रों में चीन भारत का प्रतिद्वंद्वी है. चीन-पाकिस्तान संबध भी भारत के लिए नासूर बन रहा है. ऐसे में रूस के सहयोग का आग्रह किया जा सकता है. सोची यात्रा भी इस कमी की भरपाई कर सकता है.
पिछले दो दशकों में भारत की विदेश-नीति में अप्रत्याशित बदलाव आये हैं और वह अमेरिका एवं पश्चिम के देशों के साथ आर्थिक, सैन्य, एवं सांस्कृतिक क्षेत्रों में काफी नजदीकी रिश्ते कायम करने में कामयाब हुआ है.
यह रूस और चीन दोनों के लिए असहनीय है. चीन द्वारा रूसी हथियारों की खरीदारी में पिछले पांच वर्षों में काफी कमी आयी है, फिर भी रूस अपने संबंध चीन के साथ आगे बढ़ाने में प्रयासरत है, क्योंकि अमेरिका द्वारा रूस पर आर्थिक प्रतिबंध लगाये जाने के कारण रूस ऐसे मित्रों की तलाश में है, जो उसे आर्थिक संकट से उबारने में मदद करें और इस बाबत भारत और चीन दोनों रूस के लिए महत्व रखते हैं.
चीन से भारत के लिए तालिबान मुद्दे पर सहयोग की अपेक्षा की जा सकती है. अत: वुहान के रास्ते मोदी जी द्वारा चीनी नेतृत्व को यह आश्वस्त करने का प्रयास रहा होगा कि अमेरिका और भारत के संबंधों का भारत-चीन संबंध पर कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ेगा. भारत-चीन संबंधों में कई मुद्दे हैं, जो जटिल हैं और भारत को ऐसे प्रयास करने हैं कि चीन के साथ उसके संबंध सकारात्मक दिशा में अग्रसर हों. वुहान की यात्रा भारत-चीन के बीच इस खायी को पाटने का एक सफल प्रयास कहा जा सकता है. अत: इसे भारतीय राजनीतिक नेतृत्व का एक अलग और नया प्रयास माना जा सकता है, साथ ही सराहनीय भी.
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