।। डॉ बुद्धिनाथ मिश्र।।
(वरिष्ठ साहित्यकार)
जहां धूप ज्यादा होती है, वहीं छतरी की जरूरत पड़ती है और वहीं छतरी बनती भी है. कपड़े के छाते से पहले मानव ने बांस की खपच्चियों का छाता हजारों वर्षो पहले बनाया था, जिसे मेघडम्बर कहा जाता है. उपनयन के समय यही मेघडम्बर यज्ञोपवीत बटु को दिया जाता था, धूप-वर्षा के समय ओढ़ने के लिए. यह मेघडम्बर वैदिक संस्कृति का अवशेष है हमारे समाज में. परिवार भी उसी महान संस्कृति का अवदान है, जो धीरे-धीरे खंडहर में बदलता जा रहा है. गांव में पेट न भरने पर परदेस जाने की मजबूरी पहले भी थी, मगर परिवार संयुक्त और अटूट रहता था. स्त्रियां अपने विरह को लोकगीतों में व्यक्त कर लेती थीं, मगर परदेसी पुरुष के भाग्य में वह भी नहीं था. शहरीकरण और महानगरों की स्थान-कृपणता ने ग्रामीण जीवन की उस महत्वपूर्ण कड़ी ‘परिवार’ को बेजान कर दिया. महानगर में रहनेवालों के लिए संयुक्त परिवार का वह संस्कार अधिक क्षत-विक्षत हुआ.
कलकत्ता में जो लोग राजस्थान से आये, वे अपना घर-बार सब छोड़ कर आये थे. उनकी उद्यमिता, उनकी तपस्या ने कलकत्ता में देसी आर्थिक साम्राज्य की आधारशिला रखी और कलकत्ता देश की वाणिज्यिक राजधानी बन गया. दो बित्ते की दूकान पर तेरह-तेरह घंटे बैठना और प्रफुल्लित मन से ग्राहक को संतुष्ट करना साधारण बात नहीं है. इस आपाधापी में उद्यमी समाज ने जो सबसे महत्वपूर्ण निधि खोयी, वह परिवार था. एक संयुक्त परिवार तो वह गांव में छोड़ कर आया ही था, जिस छोटे से परिवार को वह अपने साथ लेकर आया था, उसे भी समय देना उसके लिए दूभर हो गया. यह एक ऐसी विसंगति थी, जिसके सामने वह लाचार हो गया, मगर उसने हार नहीं मानी. और एक ऐसा परिवार बनाने की उसने परिकल्पना की, जिसके साथ वह हमेशा उठता-बैठता था. यहीं से क्लबों का जन्म हुआ, जो धीरे-धीरे आधुनिक औद्योगिक जीवन का अभिन्न अंग बन गया. रोटरी क्लब, लायन्स क्लब से लेकर ठलुआ क्लब तक बन गये. अपने-अपने ढंग से मित्रों के संग शाम बिताने का यही मार्ग था. फिर उसके साथ सामाजिक कार्य करने का हौसला बुलंद हुआ. जब मन एक संग मिल जाये, तो दुनिया स्वर्ग हो जाये. और इन सामाजिक परोपकारों से धरती पर स्वर्ग उतरा.
कलकत्ते का परिवार मिलन भी एक ऐसा ही मेघडम्बर था, जिसके नीचे समान मन और समान मिशन के लोग विखंडन की त्रसदी से राहत पाने के लिए चार दशक पहले एकत्र हुए थे. जब तक मैं कलकत्ता में रहा, परिवार मिलन के सामाजिक-सांस्कृतिक क्रिया-कलापों से जुड़ा रहा, कभी दूर से तो कभी पास से. कलकत्ता छोड़ने के बाद मुङो भी एहसास हुआ कि मुङो धूप और वर्षा से बचानेवाला मेघडम्बर तो वहीं छूट गया. किंतु चाकरी के चक्कर में, मनु के निर्देशों के विरुद्ध असमय ही देहरादून में किसी देवदारु या रुद्राक्ष या किसी कपूर के वृक्ष की छाया में वानप्रस्थी जीवन बिताने लगा.
यह दु:स्वप्न पिछले साल टूटा, जब परिवार मिलन ने कविता के उत्तरोत्तर ह्रास का मूल कारण उसकी छांदसिक परतों का उघरना मान कर, राष्ट्रीय स्तर पर छांदिक कविताओं को प्रतिष्ठित करने के लिए ‘काव्यवीणा’ सम्मान देने का विचार किया. सौभाग्य से प्रथम पुरस्कार मुङो ही मिला. कविता के सौंदर्य को चिरायु रखने में छंद कवच की भूमिका निभाता है. ऐसा कठोर कवच, जो बाहर के तपन से नारियल के फल के भीतर के मीठे रस को बचाता है. इस प्रकार छंद कविता को विशिष्ट पहचान के साथ-साथ दीघार्यु भी देता है. यह धान की भूसी की तरह मूल्यहीन होकर भी चावल की जीवनी शक्ति (कवित्व) को संरक्षित करता है. उस मूल्यहीन भूसी के बिना धान अपनी अंकुरण-क्षमता खो देता है. भारतीय वा्मय सदियों तक श्रुति और स्मृति की परंपरा में चिर-संचित रहा है, इसलिए भारतीय कविता वाचिक परंपरा में पली-बढ़ी है. इस परंपरा को पुष्ट करने में छंद की भूमिका महत्वपूर्ण रही है. यहां तक कि वेदों को भी ‘छंद’ ही कहा गया. भारतीय आचार्यो ने छंद:शास्त्र की रचना में भी विशेष रुचि ली है. उनमें महर्षि पिंगल का छंद:शास्त्र प्राचीनतम और सर्वाधिक प्रामाणिक माना जाता है. उसमें एक करोड़ 67 लाख 77 हजार 216 प्रकार के वर्णवृत्ताें का उल्लेख है, जिनमें मात्र 50 छंदों को ही संस्कृत कवियों के कवित्व का अंग बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ. इनमें अनुष्टुप, शिखरिणी, आर्या, मंदाक्रांता, इंद्रवज्रा, शादरूलविक्रीडित, भुजंगप्रयात छंद ज्यादा चर्चित हुए. काव्य का पहला आकर्षण उसकी गेयता है. यह सच है कि प्रबंधकाव्य जैसा व्यापक प्रभाव गीत या मुक्तक काव्य में नहीं होता, मगर उसमें जो संक्षिप्तता, अनुपम रमणीयता और मोहकता है, वह प्रबंधकाव्य में संभव नहीं. गीत काव्य मानव की आदिवाणी है, क्योंकि प्रत्येक भाषा की उत्पत्ति संगीतात्मक हुई है और उसमें पहली सहज स्वच्छंद अभिव्यक्ति छोटी-छोटी स्फुट कविताओं या लोकगीतों के माध्यम से हुई है.
प्रारंभिक लौकिक गीतकाव्य प्राकृत में है. ‘गाहा सतसइ’ (गाथा सप्तशती) इसी प्रकार के मुक्तकों का संग्रह है, जिसे संकलित करने का श्रेय आंध्र के सातवाहन (हाल) को दिया जाता है. ‘मेघदूत’ संसार का सर्वोत्कृष्ट प्रेमगीत काव्य है. वैसे ही जयदेव का ‘गीतगोविंद’ भी, जिसके अनुसरण में पहली बार देसिल बयना मैथिली में विद्यापति ने पदों की रचना कर परवर्ती कवि कबीर-सूर-तुलसी-मीरा जैसी महान प्रतिभाओं को जनभाषा में पद रचने का संबल दिया. छायावादी कवियों ने गीत की संरचना में क्रांतिकारी परिवर्तन किये और निराला ने इस कार्य में सबसे अधिक योगदान किया. वे संगीत के जानकार थे, इसलिए पारंपरिक छंदों को तोड़ कर नये छंद गढ़ने या कविता को छंदमुक्त करने की उनमें विशेष क्षमता थी. वे मुक्तछंद के पक्षधर थे, छंदमुक्त के नहीं. इस संदर्भ में ‘परिमल’ की भूमिका की यह पंक्ति स्मरणीय है: ‘स्वच्छंद छंद नाटक-पात्रों की भाषा के लिए ही है, यों उसमें चाहे जो कुछ लिखा जाये.’
इसलिए परिवार मिलन के ‘काव्यवीणा’ सम्मान का विशेष महत्व है. इसी आत्मीय सम्मान के बहाने एक सप्ताह तक मैं कलकत्ता की सरणियों में तैरता रहा. जो भी मित्र मिले, एक ही सवाल कि कलकत्ता कब लौट रहे हो? मैं भी चाहता तो बहुत हूं कि कलकत्ता आ जाऊं, ताकि वहां की साहित्यिक-सांस्कृतिक संस्था रूपी मेघडम्बरों की याज्ञसेनी छाया में रह कर शेष जीवन की ऊर्जा समाज को वितरित करूं. लेकिन उत्तराखंड के वातावरण में तन-मन ऐसा रच-बस गया है कि स्थायी रूप से अब लौटना असंभव लगता है. न गांव, न बनारस, न कलकत्ता; हालांकि तीनों की कमियां पल-पल सताती हैं.