।। राजीव रंजन झा।।
(संपादक, शेयर मंथन)
इन पंक्तियों को लिखते समय मुझे एक जोखिम उठाना पड़ रहा है. वह जोखिम है एक्जिट पोल के नतीजों पर भरोसा करने का. इसमें जोखिम इसलिए, क्योंकि 2004 और 2009 के लोकसभा चुनावों के समय एक्जिट पोल मतदाताओं का फैसला पढ़ने में नाकाम रहे थे. लेकिन जोखिम उठाने की जरूरत इसलिए है कि 1998 और 1999 में वे काफी हद तक सफल भी रहे थे. इस बार के लोकसभा चुनावों से चंद महीने पहले पांच राज्यों में जो विधानसभा चुनाव हुए थे, उनमें भी वे जनता का मिजाज भांप सके थे. आंकड़े थोड़े ऊपर-नीचे होना अलग बात है, मुख्य बात है जनता के फैसले को ठीक से पढ़ना. अभी ऐसा मानने का कोई स्पष्ट कारण नहीं दिख रहा कि एक्जिट पोल के नतीजे 16 मई के वास्तविक जनादेश से काफी अलग होंगे. एक्जिट पोल के नतीजों में जीतने और हारनेवाले के बीच इतना बड़ा फासला दिख रहा है कि थोड़ी-बहुत चूक हो भी रही हो तो उससे स्थिति में कोई नाटकीय परिवर्तन की उम्मीद नहीं है. बात केवल इतनी रहेगी कि मोदी को एक-दो और सहयोगी दल साथ लाने की जरूरत पड़ेगी या नहीं.
शेयर बाजार भी इस समय एक्जिट पोल पर यकीन करके ही चल रहा है. इसीलिए सेंसेक्स ऐतिहासिक ऊंचाई पर नजर आ रहा है. इसने तो एक्जिट पोल के नतीजे से पहले केवल अटकलबाजियों-अफवाहों के आधार पर ही एनडीए की चुनावी सफलता की उम्मीदों को भुनाना शुरू कर दिया था. 12 मई को अंतिम चरण का मतदान हुआ. इस चरण के पूरा होने बाद 12 मई की शाम में एक्जिट पोल के नतीजे सामने आये. मगर बाजार ने 9 मई से ही नया जोश दिखाना शुरू कर दिया था. शुक्रवार, 9 मई को सेंसेक्स में 650 और निफ्टी में 199 अंक की जो बड़ी उछाल आयी, वह 18 मई, 2009 के बाद की सबसे बड़ी एकदिनी उछाल थी. इस उछाल में कुछ वैसा ही जोश था, जो 18 मई, 2009 को चुनावी नतीजों के बाद भारतीय बाजार की प्रतिक्रिया में दिखा था.
बाजार के मौजूदा उत्साह का स्पष्ट कारण यही है कि एक्जिट पोल भाजपा के नेतृत्व में एनडीए को स्पष्ट बहुमत मिलता दिखा रहे हैं, यानी नये सहयोगियों को तलाशने की जद्दोजहद के बगैर नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बन सकेंगे. लेकिन लोगों के मन में कहीं-न-कहीं एक खटका तो होगा ही कि ये केवल एक्जिट पोल के नतीजे हैं, वास्तविक परिणाम तो 16 मई को ही आने हैं. एक्जिट पोल ने यह गुंजाइश शायद नहीं छोड़ी है कि वास्तविक परिणाम इन अनुमानों से भी बेहतर निकलें. यानी संभावना यही है कि एक्जिट पोल या तो बिल्कुल ठीक साबित होंगे, या गलत होंगे तो एनडीए के नुकसान की ओर गलत होंगे. इस जोखिम के बावजूद बाजार के सामने फिलहाल एक्जिट पोल के नतीजों को ही मान कर उसके मुताबिक प्रतिक्रिया देने के अलावा कोई विकल्प नहीं.
अब अगर 16 मई को वास्तविक परिणाम एक्जिट पोल के मुताबिक ही थोड़ा ऊपर-नीचे आ जायें, तो बाजार कुछ और जश्न मना लेगा, लेकिन सेंसेक्स और निफ्टी ‘रॉकेट’ नहीं बनेंगे. एक्जिट पोल के बाद जो मजबूती दिख रही है, वह एनडीए को लगभग 300 सीटें मिलने की संभावनाओं को भुना रही है. इसलिए वास्तविक परिणाम में करीब 300 सीटें आने पर भी बाजार केवल उतना ही अतिरिक्त जोश दिखा सकेगा, जितना वह इस समय एक्जिट पोल के गलत होने का जोखिम मान रहा होगा. मेरा आकलन है कि बाजार एक्जिट पोल पर काफी हद तक यकीन कर रहा है और इनके गलत होने के जोखिम को ज्यादा वजन नहीं दे रहा.
मतलब यह है कि बाजार मोदी के प्रधानमंत्री बनने की उम्मीदों को काफी हद तक भुना चुका है. इसलिए मोदी के प्रधानमंत्री बनने पर भी आनेवाले दिनों में शायद सेंसेक्स 25,000 के आसपास जाकर थम जाये. इसके बाद बाजार को नयी सरकार के कदमों का इंतजार होगा. बाजार देखना चाहेगा कि जो उम्मीदें मोदी सरकार से लगायी गयी हैं, वे कितनी पूरी होनेवाली हैं. मोदी प्रधानमंत्री बनने पर कैसा मंत्रिमंडल बना पाते हैं, उन्हें कौन-कौन नये सहयोगी दल मिलते हैं और सहयोगियों को कैसे-कैसे मंत्रालय दिये जाते हैं, इन बातों से बाजार का उत्साह घटेगा या बढ़ेगा. बाजार को मनमोहन सिंह का वह कथन बखूबी याद है कि गंठबंधन की कुछ मजबूरियां होती हैं. भाजपा अपने बलबूते बहुमत के जितने करीब होगी, उसे गठबंधन की मजबूरियां कम सतायेंगी और वह स्थिति बाजार को उतनी ही अच्छी लगेगी. उस स्थिति में मोदी आर्थिक रूप से महत्वपूर्ण मंत्रालयों को अपने दल के हिस्से में रख सकेंगे.
आगे चल कर लोग यह फर्क भी देखना चाहेंगे कि क्या गठबंधन के आगे एक प्रधानमंत्री वाकई इतना मजबूर होता है, जितने मनमोहन सिंह नजर आते थे? या फिर एक मजबूत प्रधानमंत्री स्थिति बदल सकता है? लोग देखना चाहेंगे कि क्या एक मजबूत प्रधानमंत्री सहयोगी दलों को सौंपे गये मंत्रलयों पर भी पूरी दक्षता से नियंत्रण रख सकता है?
नयी सरकार के गठन के तुरंत बाद बजट बनाने की कवायद शुरू होगी. बजट तक की अवधि को नयी सरकार और बाजार का मधुमास माना जा सकता है. रामदेव ने भले ही राजनीति में हनीमून शब्द को गलत संदर्भो में पेश कर दिया, मगर तमाम बाजार विश्लेषक हनीमून अवधि की चर्चा कर रहे हैं, जब बाजार नयी सरकार से प्रसन्न बना रहेगा. हालांकि मुङो लगता है कि मोदी सरकार और बाजार का मधुमास नहीं, बल्कि मधुवर्ष चलेगा. शुरुआती एक साल तक बाजार उन्हें उम्मीदों को पूरा करने का समय दे सकता है, बशर्ते वे बाजार को निराश करनेवाला कोई बड़ा कदम न उठा लें. इस दौरान उम्मीदें रहेंगी कि मोदी सरकार बुनियादी ढांचा क्षेत्र को संजीवनी सुंघानेवाले कदम उठायेगी, महंगाई पर नियंत्रण करेगी और उसके चलते रिजर्व बैंक ब्याज दरें घटाने की स्थिति में आ सकेगा. बुनियादी ढांचा क्षेत्र में रुकी हुई परियोजनाओं को आगे बढ़ाना उनके लिए सबसे प्रारंभिक और आसान कदम हो सकता है. मगर केवल परियोजनाओं की मंजूरी का मसला सुलटा लेना काफी नहीं होगा. इस क्षेत्र की ज्यादातर कंपनियां बुनियादी रूप से कमजोर, वित्तीय रूप से जर्जर और कर्ज के बोझ से दबी हुई हैं. उन्हें नयी परियोजनाएं मिलें भी, तो उनके लिए जरूरी वित्त जुटा पाना आसान नहीं होगा. अगर कमजोर कंपनियों को पैसे देने के लिए बैंकों पर दबाव डाला गया, तो उसके अपने जोखिम हैं. वहीं तेल-गैस क्षेत्र में उनके लिए दोतरफा चुनौती इंतजार कर रही है. एक तरफ उन्हें तेल सब्सिडी पर लोगों को नाराज किये बगैर ठोस कदम उठाने होंगे, वहीं गैस की कीमतों पर उनके लिए इधर कुआं उधर खाई वाली हालत होगी. यह राजनीतिक मुद्दा भी बन चुका है और कानूनी मुद्दा भी. हो सकता है कि वे अदालती कार्यवाही को ही इस मुद्दे पर अपनी ढाल बना लें. तेल देखें तेल की धार देखें!