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तेल के दाम बढ़ने का खेल
संदीप बामजई वरिष्ठ पत्रकार इस वक्त तेल के दामों में आग लगी हुई है और दाम बढ़ता ही जा रहा है. आगे के आसार भी इसके बढ़ते रहने के ही दिख रहे हैं. आखिर ऐसा क्यों है कि तेल के दामों में ठहराव देखने को नहीं मिल रहा है. इस स्थिति को थोड़ा-सा पीछे जाकर […]
संदीप बामजई
वरिष्ठ पत्रकार
इस वक्त तेल के दामों में आग लगी हुई है और दाम बढ़ता ही जा रहा है. आगे के आसार भी इसके बढ़ते रहने के ही दिख रहे हैं. आखिर ऐसा क्यों है कि तेल के दामों में ठहराव देखने को नहीं मिल रहा है. इस स्थिति को थोड़ा-सा पीछे जाकर कुछ आंकड़ों के आधार पर समझना होगा.
जून-जुलाई, 2010 में यूपीए सरकार ने पेट्रोल का ‘डी-रेगुलेशन’ कर दिया. लेकिन, डीजल की कीमतों के साथ ऐसा नहीं किया. यानी, तब कच्चे तेल के अंतरराष्ट्रीय बाजार भाव के घटने-बढ़ने के आधार पर ही सिर्फ पेट्रोल की कीमतें तय होनी निर्धारित की गयीं. तब अंतरराष्ट्रीय बाजार में तेल की कीमतें घटती-बढ़ती थीं, तो भारत में भी पेट्रोल की कीमतें घटती-बढ़ती थीं. इसके पहले अटल जी की सरकार में पेट्रोलियम मंत्री रहे राम नाईक ने भी ऐसा ही किया था. लेकिन, तब नाईक ने पेट्रोल और डीजल दोनों पर ‘डी-रेगुलेशन’ किया था.
यहां समझनेवाली बात यह है कि यूपीए सरकार ने सिर्फ पेट्रोल का डी-रेगुलेशन क्यों किया, जबकि भारत इस मामले में ‘डीजल इकोनॉमी’ है. चूंकि, ट्रक डीजल से चलते हैं, लोकोमोटिव (ट्रेन) डीजल से चलता है, भार वाहन गाड़ियां और सारे बड़े उद्योगों में डीजल से चलनेवाले इंजनों का इस्तेमाल होता है, इसलिए भारत को डीजल इकोनॉमी कहा जाता है.
ऐसे में यूपीए द्वारा सिर्फ पेट्रोल का डी-रेगुलेशन करने और डीजल को सामान्य रखने से उस वक्त पेट्रोल और डीजल के दामों में 26 रुपये का अंतर आ गया. इसकी वजह से पूरा ऑटोमोबाइल मार्केट में एक संरचनात्मक बदलाव आ गया और पेट्रोल से चलनेवाली गाड़ियों को भी डीजल से चलने के लिए तैयार किया जाने लगा.
26 रुपये के अंतर ने सारी कंपनियों को डीजल गाड़ियां बनाने के लिए बाध्य कर दिया और इसके लिए कंपनियों को पूरा का पूरा डीजल प्लांट खड़ा करना पड़ा. इसका असर यह हुआ कि जब पेट्रोल के दाम बढ़ने लगे और डीजल के दाम कुछ सामान्य रहे, तब पेट्रोल से चलनेवाली जिस पैसेंजर कार की मार्केट में 82 प्रतिशत बिक्री थी, और मात्र 18 प्रतिशत डीजल कार बिकती थी, इन दोनों का बिक्री अनुपात 50-50 प्रतिशत पर आ गया. एक समय बाद डीजल गाड़ियों के बढ़ने से देश में प्रदूषण भी तेजी से बढ़ा. इस तरह से यूपीए सरकार की तेल नीतियों के चलते ऑयल और ऑटो मार्केट का डायनामिक्स बदला.
इस बदलाव से एक और बात यह सामने आयी कि पेट्रोलियम कंपनियों का घाटा होने लगा. तब यूपीए सरकार ने डीजल के दाम में हर महीने 50 पैसे बढ़ाना शुरू किया. और यह बहुत गुपचुप तरीके से हुआ, इसका किसी को पता नहीं चला और दाम बढ़ते रहे. इस तरह से एक साल में डीजल के दाम में 6 रुपये की वृद्धि हो गयी. इसके बावजूद भी, पेट्रोल और डीजल के दामों में 18 से 20 रुपये का अंतर बना रहा, जिससे कंपनियां डीजल आधारित वाहन निर्माण में लगी रहीं.
साल 2014 में केंद्र में भाजपा की सरकार बनने के बाद, पेट्रोल और डीजल दोनों का ‘डी-रेगुलेशन’ कर दिया गया. और सरकार ने तेल कंपनियों से कहा कि कच्चे तेल के अंतरराष्ट्रीय बाजार भाव के अनुसार वे हर 15 दिन पर आधी रात के बाद पेट्रोल और डीजल के दामों में बढ़ाेतरी कर सकती हैं.
यहां तक तो ठीक था, इसके बाद सरकार ने जोश में यह कह दिया कि अब यह प्रक्रिया रोज लागू की जायेगी. यानी, अगर कच्चे तेल के अंतरराष्ट्रीय दाम रोज बढ़ते हैं, तो भारत में पेट्रोल-डीजल के दाम भी रोज बढ़ेंगे. यही वजह है कि आज तेल के दामों में आग लगी हुई है. न अंतरराष्ट्रीय भाव कम हो रहे हैं और न पेट्रोल-डीजल की कीमतें ठहर रही हैं.
इसमें जो एक बड़ा खेल है, जिसे आम आदमी नहीं समझ पाता और जिसकी वजह से हम परेशान हैं, वह यह है कि बीते तीन साल से कच्चे तेल के दाम बढ़े ही नहीं हैं, लेकिन भारत में पेट्रोल-डीजल की कीमतें बढ़ती गयी हैं. मनमोहन सिंह के समय में औसतन 120-130 डॉलर प्रति बैरल कच्चे तेल के दाम थे, जबकि आज नरेंद्र मोदी के समय में यह औसतन 45-50 डॉलर है.
इसके बावजूद पेट्रोल-डीजल की कीमतें मनमोहन सरकार के मुकाबले आज ज्यादा हैं. यही वह पहलू है, जिसे समझना जरूरी है कि आखिर पेट्रोल-डीजल की कीमतों में कमी के बजाय बढ़ोतरी क्यों होती जा रही है.
दरअसल, यह सरकार लालची बन गयी है. उसने पेट्रोल और डीजल पर 9 बार एक्साइज ड्यूटी बढ़ाया और अपना खजाना भरने लगी. भारत में 80 प्रतिशत कच्चा तेल बाहर से आयात किया जाता है, जिस पर सरकार एक्साइज ड्यूटी लगाती है- यही नौ बार लगाया गया. केंद्र सरकार ने पिछले साढ़े तीन साल में पेट्रोल और डीजल पर एक्साइज बढ़ाकर 2,64,000 करोड़ रुपये बनाये हैं. वहीं राज्य सरकारों ने भी इसी अवधि में 1,83,000 करोड़ रुपये बनाये हैं. इससे आम जनता को कोई फायदा नहीं हुआ, लेकिन सरकार अपना फायदा बनाती रही.
इसलिए पेट्रोल-डीजल की कीमतें घट नहीं रही हैं. कुछ समय पहले बढ़ती कीमतों को लेकर जब मीडिया में हाहाकार मचा, तब सरकार ने दबाव में आकर गुजरात चुनाव से पहले एक एक्साइज को कट कर दिया. लेकिन, एक कट से पेट्रोल और डीजल की कीमतों में कुछ भी कमी नहीं आनेवाली है. अब तो पेट्रोल और डीजल की कीमतों में 9-10 रुपये का अंतर रह गया है, इसका बड़ा असर यह हो रहा है कि लोग डीजल के बजाय पेट्रोल कार ही लेेने लगे हैं. जाहिर है, डीजल कार कंपनियों को इसका नुकसान तो होगा ही.
इस वक्त सऊदी और ईरान में उथल-पुथल मचा हुआ है. सऊदी के क्राउन प्रिंस ने कई बड़े लोगों को जेल में डाल दिया है. ईरान में लोग सड़कों पर हैं कि उनकी अर्थव्यवस्था डगमगा रही है.
इन देशों में उथल-पुथल से कच्चे तेलों के दामों पर असर पड़ता है. यही वजह है कि अचानक कच्चे तेल का दाम आज 65 डॉलर पर पहुंच गया है. चूंकि हम अस्सी प्रतिशत तेल आयात करते हैं, इसलिए सिर्फ एक डॉलर के दाम बढ़ने से ही तेल आयात में 5,600 से लेकर 6,000 करोड़ रुपये का असर पड़ता है. इससे भारत की अर्थव्यवस्था पर भी बड़ा असर पड़ना लाजमी है.
चूंकि सरकार ने खुद को इसमें फंसा लिया है कि एक तरफ उसने डी-रेगुलेशन भी किया है और एक्साइज भी बढ़ा दिया है, ऊपर से तेल के अंतरराष्ट्रीय भाव भी चढ़ रहे हैं, इस तरह सरकार खुद के फंसे होने का कारण बताकर तेल के दाम बढ़ाती जाती है.
(वसीम अकरम से बातचीत पर आधारित)
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