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पर्वतों पर खिले बुरांस के फूल

।। डॉ बुद्धिनाथ मिश्र।। (वरिष्ठ साहित्यकार) बीते पंद्रह अप्रैल को पूरा देश विभिन्न नामों से वासंती उल्लास का पर्व मना रहा था और मैं सुबह-सुबह मां को याद कर रहा था. इस दिन यानी मेष संक्रांति को मिथिलांचल के लोग ‘जूड़ि सीतल’ यानी कीचड़ से खेलने का उत्सव मनाते हैं. यह उत्सव ग्रीष्म ऋतु के […]

।। डॉ बुद्धिनाथ मिश्र।।

(वरिष्ठ साहित्यकार)

बीते पंद्रह अप्रैल को पूरा देश विभिन्न नामों से वासंती उल्लास का पर्व मना रहा था और मैं सुबह-सुबह मां को याद कर रहा था. इस दिन यानी मेष संक्रांति को मिथिलांचल के लोग ‘जूड़ि सीतल’ यानी कीचड़ से खेलने का उत्सव मनाते हैं. यह उत्सव ग्रीष्म ऋतु के आगमन पर प्राकृतिक चिकित्सा का अंग था. देह में पंक का लेप करिये और तमाम रोगों से निजात पाइये. पता नहीं, गांवों में वह पंक-उत्सव अब जीवित है या नहीं, मगर लोकतंत्र की कृपा से राजनीति में एक-दूसरे पर कीचड़ उछालने की होड़-सी लगी है. किसी के ‘हाथ’ में कीचड़ है, तो किसी के ‘कमल’ के नीचे. किसी ने ‘झाड़ू’ से कीचड़ निकालने के चक्कर में पूरे आंगन को गंदा कर दिया है. किसी का ‘हाथी’ मस्ती में धूल उड़ा रहा है, तो किसी की ‘साइकिल’ कीचड़ में फंसी हुई है. यानी पूरा देश इस समय नये अंदाज में जूड़ि सीतल खेल रहा है.

बचपन के दिन याद आते हैं, जब मां सुबह तड़के ही लोटे में जल लेकर आंगन से दालान में आती थी और सभी बच्चों के सिर के बालों को सिक्त कर देती थी. गाढ़ी नींद में सोये सभी बच्चे चिढ़ कर उठते थे. उसके बाद वह बचा हुआ जल धूल भरी सड़कों पर छिड़कती थीं. मान्यता यह थी कि इससे बैसाख-जेठ के महीने में भाई के आने पर उसके पांव में फफोले नहीं पड़ेंगे. कितनी संवेदना होती थी इन लोक मान्यताओं में! सुना है, अब मेरे घर के आगे की वह सड़क पक्की हो गयी है, जिस पर मां कभी जल छिड़का करती थी. ग्रामीण लोगों की नजर में यह गांव का विकास है. मैं इस पर कुछ भी बोलने का अधिकारी नहीं हूं, मगर अपनी बात रखने में कोई हर्ज नहीं है. मेरी समझ से ग्रामीण विकास का मॉडल मंत्रलयों में बैठे नौकरशाह न बनाएं; क्योंकि वे गांव की मानसिक सतह पर सोच ही नहीं सकते. गांव का विकास कर उसे शहर बनाना विकास नहीं, धर्मातरण हुआ. भेड़ का विकास कर यदि उसे भैंस बना दिया, तो उसकी पहचान तो मिटा दी. धूल भरी कच्ची सड़कें हमारे गांवों की पहचान थीं. मैंने मारिशस में गन्ने के खेतों के बीच पिच सड़कें देखी हैं, मगर हमारे गांव मारिशस के सुविकसित गांवों की बराबरी नहीं कर सकते. यहां नयी पक्की सड़कें गांव का सारा अनाज औने-पौने दामों में खरीदने और शहर का उत्पाद कीमती दामों में बेचने के लिए होती हैं. गांवों से विकास के नाम पर कुएं-पोखरे, चूल्हा-चक्की, ऊखल-समाठ, सिल्ला-लोढ़ी, कोठी-बखारी, बाग-बगीचे, गोचर भूमि, छोटे-मोटे हाट,वस्तु-विनिमय को हटा लिया गया और उन्हें एक बदसूरत कस्बे की शक्ल दे दी गयी.

मेष संक्रांति की सुबह चाहे जहां रहूं, मेरे सिर में वही ठंढक महसूस होती है, जैसे अभी-अभी मां इसे भिगो कर गयी है. मुङो बड़ा आश्चर्य लगा, जब मैंने उस दिन भोर में एक निजी चैनल के उद्घोषक को मेष संक्रांति की जगह मकर संक्रांति कहते सुना. यही है आज का ‘असमझवार सराहिबो, समझवार को मौन.’ ‘इंडिया’ को चलानेवाले भारतीय संस्कृति के नाम पर आडंबर तो करते हैं, लेकिन प्राचीन ग्रंथों तक जाने की मशक्कत नहीं करते. जब मेष और मकर नक्षत्र का भेद ही वे नहीं कर पाते, तब सूर्य के उत्तरायण और दक्षिणायण की बात उनकी समझ में क्या आयेगी? मेष राशि में सूर्य के प्रवेश का अर्थ नयी नक्षत्र-माला में रवि का प्रवेश यानी नव संवत्सर है. इन्हीं दिनों गुड़ी पड़वा भी आता है, जब चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को विक्रम संवत के नये साल के रूप में मनाते हैं. चैत्र नवरात्रि का आगमन ब्रrा द्वारा सृजित सृष्टि का जन्मदिवस होता है. मेष संक्रांति के दिन पूरे भारत का चप्पा-चप्पा किसी न किसी नाम से दिव्य उत्सव को मनाता है. बंगाल में यह पोइला बैसाख है, तो बिहार-झारखंड में सतुआ संक्रांति, पंजाब में बैसाखी, असम में बिहू और केरल में ओणम. ओणम में कन्याएं और गृहणियां सम्राट महाबली के स्वागत में फूलों की रंगोली बनाती हैं.

हिमालय पर्वत श्रृंखला में विभिन्न भागों में यह वासंती पर्व मनाया जाता है. शीत ऋतु में बर्फ की मोटी चादर ओढ़ कर केवल पर्वत शिखर ही नहीं सोते हैं, बल्कि उन पर वास करनेवाले देवी-देवता भी गहरी नींद में सो जाते हैं. उन्हें जगा कर क्षेत्रीय लोग पवित्र नदी के जल में स्नान कराते हैं और पालकी में बैठा कर गाजे-बाजे के साथ शोभा-यात्र निकालते हैं. ढोल दमाऊं और रणसिंघे के दिगंतव्यापी नाद के साथ उन्हें मंदिर में ले जाया जाता है. सभी मत्था टेकते हैं और घर-परिवार के कल्याण की मनौती मांगते हैं. प्रसाद वितरण और सहभोज इस पर्व का वैशिष्ट्य है. जौनसार बाबर क्षेत्र में मंदिरों में पूजा के बाद सात दिनों तक चलनेवाले बिस्सू पर्व का श्रीगणोश होता है. इसे फुलियात कहते हैं, जब ग्रामीण लोग बुरांस के फूलों से मंदिरों और घरों को सजाते हैं.

इन दिनों देवतात्मा हिमालय की पूरी पर्वतमाला बुरांस के लाल-लाल फूलों से भरी पड़ी है. मैंने यह फूल पहली बार दार्जीलिंग में जब देखा था, तब मुङो लगा था कि विन्ध्य के पलाश के गोत्र का यह भी कोई अगिनखोर फूल है. जब गढ़वाल और कुमायूं क्षेत्र का मार्च-अप्रैल के दिनों में भ्रमण किया, तब पूरा पर्वतीय वन बुरांस के फूलों से ही पटा दिखायी पड़ा. इसीलिए उत्तराखंड में इसे राज्य-वृक्ष का दरजा दिया गया है. मसूरी से चंबा के रास्ते टेहरी जाने पर पहाड़ी रास्ता पतला और सर्पिल हो जाता है, इसलिए कम पर्यटक ही आगे जाते हैं, मगर हिमालय की दिव्य शोभा के दर्शन उधर ही होते हैं. मसूरी से लगभग 26 किमी दूर धनोल्टी है. कार की यात्रा हिमालय के हिममंडित शिखरों का विहगावलोकन करते हुए कैसे बीत जाती है, पता नहीं चलता.

धनोल्टी 2286 मीटर की ऊंचाई पर है, जबकि मसूरी मात्र 1880 मीटर की ऊंचाई पर. दिल्ली वालों के लिए मसूरी ‘पर्वतों की रानी’ है, मगर जो धनोल्टी तक पहुंचते हैं, वे इसे ‘तपस्विनी गिरिकन्या’ कहने के लिए बाध्य हो जाते हैं. मसूरी और चंबा के बीचो-बीच धनोल्टी है. इससे आठ किमी आगे मां सुरकंडा देवी का प्रसिद्ध मंदिर है. धनोल्टी में बड़े-बड़े देवदारु वृक्षों का सुसज्जित वन पथिकों को वहां थोड़ी देर विश्रम कर, गहरी सांसें लेकर तरो-ताजा होने के लिए आमंत्रित करता है. पूरा मार्ग चीड़, बांज (अंगरेजी में ओक) और बुरांस के वृक्षों से भरा है. बुरांस के फूल विंध्य पर्वत श्रृंखला में इन्हीं दिनों खिले पलाश के फूलों के समानांतर वसंत पर राज करते हैं. मैदानों में सेमल के लाल फूल भी राह चलते पथिकों को रिझाते हैं. अगर नगर की बात करें, तो अशोक वृक्ष भी इन दिनों कम आग नहीं लगाते. वे तो जड़ से ही आग उगलते हैं. मैंने इस मेष संक्रांति को धनोल्टी में रक्तिम फूलों से लदे एक बुरांस वृक्ष के नीचे बैठ कर बिताया, क्योंकि राग का अनुवर्ती अनुराग है.

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