आज यानी 17 अप्रैल को 12 राज्यों की 121 सीटों पर वोट पड़ेंगे. इनमें झारखंड की भी छह सीटें शामिल हैं. देश के पूर्व-उपप्रधानमंत्री दिवंगत देवीलाल ने एक बार कहा था-‘‘सिद्धांत कुछ नहीं होता, सब कुछ सत्ता के लिए होता है. मैनिफेस्टो (चुनावी घोषणा पत्र) का कवर बदलता है, पर मजमून कभी नहीं बदलता.’’ झारखंड में दूसरे चरण के मतदान के ठीक पहले देवीलाल की ये बातें यादों में ताजा हो उठी हैं.
वजह है, झारखंड में सोनिया व राहुल गांधी से लेकर नरेंद्र मोदी तक की रैलियों में किये गये वायदे. झारखंड के कोयला, लौह अयस्क व अन्य खनिज संपदा के प्रति जो चिंता व गंभीरता अचानक विभिन्न राष्ट्रीय व क्षेत्रीय दलों के नेताओं ने दिखायी है, काश वह स्थायी होती! धनबाद स्थित आइएसएम को आइआइटी बनाने का वायदा अभी सभी नेता कर रहे हैं.
झारखंड में इस बार के चुनाव प्रचार में दो बातें एकदम साफ हैं. एक तो सिने स्टार प्रचारकों की धुंध छंट चुकी है और सभी के मसले जमीनी हैं. समस्याग्रस्त इलाकों में जहां बुनियादी मसलों में उलझी आबादी फौरी राहत के साथ एक स्थायी निदान खोजती है, वहां दूर के ढोल अधिक देर नहीं टिकते. एक तरफ कांग्रेस के जयराम रमेश हैं जिनका मानना है कि झारखंड के अब तक के मुख्यमंत्रियों के चलते यहां विधान सभा की सीटों में इजाफा नहीं हो सका. फलत: हम स्थिर सरकार नहीं दे सके. दूसरी तरफ नरेंद्र मोदी कहते हैं कि दिल्ली के लोगों ने झारखंड को छला है.
एक विकास को सीटों की संख्या से तौल रहा है तो दूसरा नीयत में खोट देख रहा है. एक ‘हर हाथ शक्ति, हर हाथ तरक्की’, तो दूसरा ‘न्यूनतम सरकार, अधिकतम शासन’ के नारे के साथ जनता को बांधने की कोशिश में है. रिझाने के अपने अंदाज के साथ बड़े नेता जनता से रूबरू हो रहे हैं. वे जानते हैं कि बुनियादी मसलों पर बात किये बिना जनता अब झांकनेवाली नहीं. इससे फर्क नहीं पड़ता कि कौन जीतता है, कौन हारता है. जनतंत्र की जीत के लिए जरूरी यह है कि ये नेता वादों और दावों को अपनी प्रतिबद्धता में बदलें. असली मुद्दों के गलियारे में जनता को ले जानेवाले ये नेता चुनाव के बाद अपने दावों, एलानों और सपनों को जितना ही जीवित रख पाते हैं, उतना ही इनके लिए और देश के लिए भला होगा.