हरियाणा के गुरुग्राम में सात साल के बच्चे की नृशंस हत्या के दो दिन बाद दिल्ली में बलात्कार के बाद एक पांच साल की बच्ची को अधमरा करने की खबर है. दोनों ही घटनाओं में स्कूली कर्मचारियों पर आरोप हैं. देश के अनेक शहरों में बच्चों के साथ अभद्रता और जान से मारने की घटनाएं सामने आती रहती हैं. दुर्भाग्य से कुछ दिनों की चिंता और बेचैनी के बाद समाज, मीडिया और शासन-प्रशासन में बैठे लोग इन वारदातों को बिसार देते हैं.
शोध बताते हैं कि हमारे समाज में शायद ही कोई जगह है जहां बच्चे सुरक्षित हैं, पर यह भी सच है कि दिल दहलानेवाली अधिकतर वारदातें निजी स्कूलों में होती हैं जहां संसाधनों और सुविधाओं के नाम पर अभिभावकों से मोटी रकम वसूली जाती है. एक तो वे बच्चों के लिए पूरा इंतजाम करने में चूक करते हैं, और दूसरे यह कि कोई हादसा या अपराध होने पर स्कूल की छवि बचाने के लिए जांच को भी प्रभावित करने की कोशिश करते हैं. बड़े निजी स्कूलों के संचालक आम तौर पर रसूखदार लोग होते है. सवाल सिर्फ अपराधी को दंडित करने का नहीं है, बल्कि स्कूल प्रबंधन की जवाबदेही को सुनिश्चित करने का भी है. कम वेतन पर स्कूलों में ऐसे लोगों को काम पर रखा जाता है जो भरोसेमंद और प्रशिक्षित नहीं होते. शिक्षकों और कर्मचारियों को संवेदनशील बनाने की कोई व्यवस्था नहीं है.
उनकी गलतियों पर या पर्दा डाल दिया जाता है या फिर उन्हें नजरअंदाज कर दिया जाता है. प्रबंधन की नींद तब टूटती है जब कोई बड़ा अपराध हो जाता है और किसी मासूम की जिंदगी तबाह हो जाती है. कुछ साल पहले बच्चों की बेहतरी के लिए सक्रिय संस्था चाइल्डलाइन ने सर्वेक्षण कर बताया था कि देश के सिर्फ 10 फीसदी स्कूलों में बाल सुरक्षा तथा एक फीसदी में यौन शोषण को लेकर नीतियां हैं. महज 28 फीसदी स्कूलों में लड़के-लड़कियों के अलग शौचालय हैं. स्कूल वाहनों को बिना किसी जांच के काम पर लगाया जाता है.
सिर्फ 12 फीसदी प्रधानाध्यापक ऐसे हैं जिन्होंने बाल अधिकार और सुरक्षा से जुड़ा कोई प्रशिक्षण प्राप्त किया है. ऐसे अनेक चिंताजनक आंकड़े हैं. कुकुरमुत्ते की तरह उगते निजी स्कूलों को लेकर सरकारों के पास स्पष्ट नीति का भी अभाव है. एक मुश्किल यह भी है कि शोषण से होते बच्चों के तनाव और अवसाद पर अभिभावक भी समुचित ध्यान नहीं देते हैं. उम्मीद है कि हालिया वारदातों के बाद स्कूल, समाज और सरकार संचेतन होकर बच्चों की सुरक्षा के लिए ठोस पहल करेंगे.