।। अखिलेश्वर पांडेय।।
(प्रभात खबर, जमशेदपुर)
यह चैत का महीना भले ही है, पर बयार तो ‘चुनावी’ ही चल रही है. उसमें भी जिधर देखो, उधर बस बनारस (काशी) की ही चर्चा है. टेलीविजन न्यूज चैनलों के कैमरों का फोकस प्वाइंट बनारस बन चुका है. मैंने सोचा कि मौका भी है और दस्तूर भी, क्यों न मैं भी इसी बहाने अपना थोड़ा ‘बनारसी ज्ञान’ बघार लूं. प्राचीनकाल में धन की गठरी लिये यात्री पुण्य की गठरी लूटने काशी चले आते थे. इस बात का पता वाल्मीकि जी को लग चुका था. वे रास्ते के जंगलों में उन गठरियों को खाली करते रहे. पता नहीं, नारदजी को क्या सूझी कि उन्होंने ऐसे तिकड़म में उन्हें उलझाया कि वे अपना जमा-जमाया पेशा छोड़ बैठे. लेकिन हां, इसकी वजह से हमेशा के लिए अमर जरूर हो गये. ‘उल्टा नाम जपा जग जाना, वाल्मीकि भये ब्रह्म समाना.’- यह तो आप सभी जानते ही होंगे. पर यह बात भी सच है कि बनारसवाले विद्वानों का हमेशा से उचित सम्मान करते आये हैं, लेकिन रंग गांठनेवालों को गर्दनिया देने से बाज नहीं आते.
वेदव्यास को घमंड था कि उन्होंने भगवान शिव के पुत्र से क्लर्की करवायी है, इसलिए वे भी महान हैं. बनारसवालों से उनका रंग गांठना देखा नहीं गया. नतीजा यह हुआ कि उन्हें गंगा उस पार जंगल में छोड़ आये, जहां मरने पर शीतला वाहन होना पड़ता है. यकीन न हो तो शीतला मंदिर से सीधे उस पार जाकर उनसे भेंट कर सकते हैं. राजनीति में चर्चिल का, साम्यवाद में लेनिन का, विज्ञान में आइंस्टीन का, दाल में हींग का और चूरमा में चीनी का जितना महत्व है, उतना ही आधुनिक हिंदी में भारतेंदु जी का. काशी को इस बात पर गर्व है कि उसने आधुनिक हिन्दी के जन्मदाता को अपने यहां जन्म दिया जो किसी बादशाह से कम नहीं था. जिसकी देन को हिंदी जगत तब तक याद रखेगा, जब तक एक भी हिंदी भाषा-भाषी मौजूद रहेगा.
और तो और लाखों अहिंदी भाषा-भाषियों को हिंदी सीखने के लिए ‘पेनिसिलिन का इंजेक्शन’ देनेवाले बाबू देवकीनंदन खत्री (चंद्रकांता के रचयिता) काशी की ही विभूति रहे. काशी का लमही गांव उस दिन से अमर हो गया जिस दिन यहां उपन्यास सम्राट प्रेमचंदजी ने जन्म लिया. देश के विभिन्न हिस्सों में लोग एक दूसरे को पुकारते समय मिस्टर, मोशाय (महाशय), श्रीमान, जनाब, हजूर, सरदारजी और सरकार आदि संबोधनों का प्रयोग करते हैं. लेकिन बनारसियों के प्रिय संबोधन हैं ‘राजा’, ‘मालिक’, ‘सरदार’ और ‘गुरु ’. इन संबोधनों में जो रस है, वह प्रांतीयता-जातीयतावादी संबोधनों में दुर्लभ है. बनारस की चर्चा या गुणगान के लिए यह कॉलम तो नाकाफी है, पर समझदार के लिए इशारा ही काफी है. बनारस मोक्ष की नगरी है, यहां कोई भी आ-जा सकता है पर जरा सावधानी से क्योंकि ‘रांड़, सांड़, सीढ़ी, संन्यासी/इनसे बचे तो सेवै काशी.’