26.2 C
Ranchi

BREAKING NEWS

Trending Tags:

Advertisement

धर्मसत्ता की हिंसा का ”मुक्तिधाम”

थियेटर-रंगमंच नाटक ‘मुक्तिधाम’ आज के परिदृश्य को, हमारी सभ्यता के संकट के बुनियादी लक्षणों एवं कारकों को बहुत गहराई में जाकर विश्लेषित करने का एक ईमानदार प्रयास है और साथ ही समकालीन चुनौतियों से पार पाने के कुछ सूत्र भी हमें इसमें मिल जाते हैं. इ सी 10 फरवरी की रात सफदर स्टूडियो में अभिषेक […]

थियेटर-रंगमंच

नाटक ‘मुक्तिधाम’ आज के परिदृश्य को, हमारी सभ्यता के संकट के बुनियादी लक्षणों एवं कारकों को बहुत गहराई में जाकर विश्लेषित करने का एक ईमानदार प्रयास है और साथ ही समकालीन चुनौतियों से पार पाने के कुछ सूत्र भी हमें इसमें मिल जाते हैं.
इ सी 10 फरवरी की रात सफदर स्टूडियो में अभिषेक मजूमदार द्वारा लिखित-निर्देशित और इंडियन एंसेंबल, बंेगलुरु द्वारा प्रस्तुत नाटक ‘मुक्तिधाम’ देखने का अवसर मिला.
आठवीं शताब्दी के भारत में सनातन हिंदू धर्म और बौद्ध धर्म की संस्थाओं के बीच प्रभाव-विस्तार और श्रेष्ठता की हिंसक प्रतिस्पर्द्धा के साथ-साथ धर्म-सत्ता की विरासत पर आधिपत्य जमाने हेतु रची जानेवाली कुटिलताओं की पृष्ठभूमि का हृदयविदारक चित्रण करते हुए यह नाटक बहुत स्पष्टता के साथ हमें यह अनुभव कराता है कि धर्म संस्थाएं मनुष्यता के हितार्थ चाहे जितने भी दावे कर लें,
किंतु अपनी प्रकृति और संरचना में वे प्रथमत: और अंतत: मनुष्यता को अमानवीय श्रेणियों और स्तरों में विभाजित करती हैं.
सदियों से ही धर्मसत्ताएं समाज के कुछ कथित विशिष्ट व्यक्तियों के पक्ष में संपूर्ण मनुष्यता, विशेष रूप से दमित-वंचित अस्मिताओं की भावनाओं-संभावनाओं एवं शक्ति का दोहन करती हैं. मोक्ष या मुक्ति की जटिल परिकल्पनाएं भी इनकी राजनीति के उपकरण हैं, जिनके भयोत्पादक प्रभाव को स्थायी रखने की कुटिलताओं के माध्यम से अशिक्षित, असहाय श्रम-शक्ति पर शासकीय और भावनात्मक नियंत्रण स्थापित किया जाता है.
आठवीं शताब्दी के पाल वंश के काल के सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक और राजनीतिक अंतर्विरोधों को प्रतीकों के माध्यम से मंच पर पुनर्जीवन देते हुए अभिषेक हमें यह मौका देते हैं कि हम अपनी सामाजिक संरचना के सकारात्मक-नकारात्मक तत्वों की परंपरा में जाकर उनकी जड़ों की जांच-पड़ताल करें. वर्णाधारित समाज में निम्न तल पर जीनेवाली जातियों के समक्ष अपने अपमान और उत्पीड़न से छुटकारा पाने के लिए धर्म-परिवर्तन एक सहज विकल्प रहा है और इसने सत्ताओं के समक्ष चुनौती खड़ी की है. इन स्थितियों में टकराव की नहीं, ऐसे बदलावों की जरूरत होती है, जो उत्पीड़न और उसके एहसासों को कम या समाप्त कर समानता की स्थापना करे.
आज के राजनीतिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक जीवन और परिदृश्य में यह नाटक बहुत सूक्ष्मता के साथ मारक हस्तक्षेप करता है. आठवीं शताब्दी के भारत का यह नाट्य-प्रकरण सहज रूप से हमारे आज के भारत का प्रभावशाली रूपक बन जाता है और हम अपने रोंगटे खड़े होने को बार-बार महसूस करते हैं. यह नाटक आज के परिदृश्य को, हमारी सभ्यता के संकट के बुनियादी लक्षणों एवं कारकों को बहुत गहराई में जाकर विश्लेषित करने का एक ईमानदार प्रयास है और साथ ही समकालीन चुनौतियों से पार पाने के कुछ सूत्र भी हमें इसमें मिल जाते हैं.
इस प्रस्तुति के कथ्य के इतने आयाम हैं कि उन पर अलग-अलग बात की जा सकती है.
एक श्रेष्ठ प्रस्तुति की यही विशिष्टता होती है. धर्म और पितृसत्ता के तमाम युद्धों में स्त्री का शरीर, उसकी यौनिकता एक युद्धस्थल के काम में लायी जाती है. इस प्रस्तुति में भी यही दिखता है.
अत्यंत भावप्रवण दृश्य-रचनाओं, प्रभावी वस्त्र-विन्यास, काल के स्याह पक्षों और अंधेरों को, चरित्रों की मनोशारीरिक गतियों-इंगितियों को सूक्ष्मता के साथ पकड़ पाने में सक्षम प्रकाश और सबसे बढ़कर असंभव प्रतीत होते अभिनय का यह समेकित प्रभाव है या कथ्य की सघनता, समसामयिकता अथवा बेधकता का- जो भी हो, पर एक दर्शक के तौर पर यह नाटक हमें बेचैन कर देनेवाला एक ऐसा नाट्य-अनुभव देता है, जिसे विस्मृत कर पाना संभव नहीं हो सकेगा.

Prabhat Khabar App :

देश, एजुकेशन, मनोरंजन, बिजनेस अपडेट, धर्म, क्रिकेट, राशिफल की ताजा खबरें पढ़ें यहां. रोजाना की ब्रेकिंग न्यूज और लाइव न्यूज कवरेज के लिए डाउनलोड करिए

Advertisement

अन्य खबरें