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श्रम सुधार क्या हो दिशा?

नीतिगत सुधारों की दिशा में आगे बढ़ते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 16 अक्तूबर को ‘पंडित दीनदयाल उपाध्याय श्रमेव जयते कार्यक्रम’ के अंतर्गत श्रम सुधारों से संबंधित कई योजनाओं का सूत्रपात किया है. प्रारंभिक चरण में उन्होंने औद्योगिक कौशल विकास, भविष्य निधि के संचालन, औद्योगिक इकाइयों के निरीक्षण आदि से जुड़े बदलाव की घोषणा की […]

नीतिगत सुधारों की दिशा में आगे बढ़ते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 16 अक्तूबर को ‘पंडित दीनदयाल उपाध्याय श्रमेव जयते कार्यक्रम’ के अंतर्गत श्रम सुधारों से संबंधित कई योजनाओं का सूत्रपात किया है. प्रारंभिक चरण में उन्होंने औद्योगिक कौशल विकास, भविष्य निधि के संचालन, औद्योगिक इकाइयों के निरीक्षण आदि से जुड़े बदलाव की घोषणा की है तथा इन्हें तकनीक से जोड़ कर अधिक कारगर बनाने की कोशिश की है. इन पहलों का आमतौर पर स्वागत हुआ है. श्रम से संबंधित मसलों को श्रमिकों की दृष्टि से देखने के प्रधानमंत्री के इरादे से आशा बंधी है कि आगामी सुधारों में भी कामगारों के हितों का ख्याल रखा जायेगा. देश में श्रम सुधारों पर कुछ जरूरी सवाल भी खड़े किये जा रहे हैं. प्रस्तुत है इस मुद्दे के विभिन्न आयामों पर एक विमर्श आज के समय में..

श्रमेव जयते कार्यक्रम सवाल और संदेश

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ‘श्रमेव जयते’ कार्यक्रम के दौरान दिये गये भाषण से मुख्य संदेश यह आया कि श्रम सुधार से बचना श्रमिकों के हितों की अनदेखी करना है. इन सुधारों के जरिये ही सरकार श्रमिकों के हितों की रक्षा कर सकती है. श्रम सुधार कानून का असली मकसद निवेश बढ़ाने के साथ-साथ नौकरी के अवसरों में वृद्धि करना है. हालांकि इसका लाभ मुख्यत: संगठित क्षेत्र में काम करनेवाले लोगों को ही मिलेगा. इसलिए नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा श्रम कानून और गवर्नेस में सुधार की घोषणा को मिला-जुला प्रभाव वाला कहा जा सकता है.

पोर्टेबल इपीएफओ एकाउंट का प्रबंधन ‘यूनिवर्सल एकाउंट नंबर’ के जरिये करना काफी समय से लंबित था और इलेक्ट्रॉनिक प्रबंधन के इस दौर में इसे लागू करने की उम्मीद काफी समय से थी. मीडिया में आ रही खबरों के मुताबिक, इस योजना के दायरे में केवल संगठित क्षेत्र में काम करनेवाले लोग ही आयेंगे. सरकार का यह फैसला स्वागतयोग्य है और इससे ऐसे लोगों को काफी फायदा होगा जो कंपनियां बदलते रहते हैं. लेकिन एक प्रमुख विषय, जिसकी अनदेखी की गयी, वह है संगठित क्षेत्र में ठेके पर काम करनेवाले लोग. जगजाहिर है कि ठेकेदार ‘सामाजिक सुरक्षा फंड’ के नाम पर श्रमिकों का हिस्सा उन्हें दी जानेवाली मजदूरी की कुल रकम में से काट तो ले लेते हैं, लेकिन इसे जमा नहीं करते हैं. यही नहीं ऐसे लोगों की नौकरी की गारंटी भी तय नहीं है. ऐसे लोगों को भी सामाजिक सुरक्षा योजना के दायरे में लाना चाहिए. उम्मीद है कि इस महत्वपूर्ण पहलू पर सरकार अपनी स्थिति स्पष्ट करेगी.

दूसरी घोषणा इ-गवर्नेस को लेकर है, जो न केवल गवर्नेस को कम करती है, बल्कि उद्योग-धंधों से जुड़े गवर्नेस के कामकाज को भी बेहतर बना सकती है. इस मकसद से बनायी गयी नयी वेबसाइट या श्रम सुविधा का मकसद पारदर्शी और जवाबदेह श्रम जांच व्यवस्था बनाना है. ऊपर के दोनों ही कदम सराहनीय हैं.

लेकिन कुछ महत्वपूर्ण चिंताएं भी हैं. महाराष्ट्र सरकार ने भी पूर्व में ‘महाराश्रम योजना’ के तौर पर इस तरह की एक स्कीम लागू की थी. इस इ-गवर्नेस योजना को पूरे जोर-शोर से लागू किया गया और इसमें श्रम बाजार के सभी प्रमुख खिलाड़ियों को जोड़ा गया. इस योजना में कामगारों को बैंक के जरिये वेतन देने और बिजनेस प्रतिनिधि बनाने की चर्चा की गयी थी, जो इ-टूल के जरिये इसे संचालित कर रहे थे. इसका प्रबंधन निजी सेवा प्रदाता कर रही थी. इसे काफी प्रचारित किया गया, लेकिन बाद में कुछ समस्याएं पैदा हुईं और कानूनी अड़चनों के कारण अब यह योजना बंद हो चुकी है. यह गंभीर चिंता की बात है, क्योंकि बिना निजी सेवा प्रदाता के ऐसे इ-गवर्नेस योजनाओं का लागू नहीं किया जा सकता है.

इसके अलावा, बिना सशक्त टेलीकॉम सेवा के कोई भी इ-गवर्नेस व्यवस्था काम नहीं कर सकती है, भले ही योजना कितनी भी अच्छी. मध्यम और बड़े संस्थानों के पास इ-गवर्नेस व्यवस्था को चलाने के संसाधन हैं और वे सरकार के समक्ष भी अपनी बात आसानी से रख सकते हैं. छोटे और मंझोले उद्यमों, संस्थानों, जिसके मालिक कम पढ़े-लिखे या अनपढ़ हैं, वे इ-गवर्नेस व्यवस्था से पार पाने में सक्षम नहीं हैं. इ-गवर्नेस के लिए इलेक्ट्रॉनिक सामानों की आपूर्ति लेबर इंस्पेक्टर के जरिये करना अच्छी बात नहीं है.

तथाकथित ‘इंस्पेक्टर राज’ की दिशा में सुधार का मकसद प्रधानमंत्री मोदी के जापान और अमेरिका दौरे के बाद निवेशकों को संदेश देना है कि सरकार श्रम सुधार के रास्ते पर चलने के प्रति प्रतिबद्ध है. संभावित निवेशकों की यह आदत बन गयी है कि किसी तरह की बातचीत से पहले वे श्रम कानून और गवर्नेस में सुधार के लिए सरकार से गारंटी चाहते हैं. अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (आइएलओ) के संस्थापक सदस्यों में शामिल रहे भारत ने आइएलओ के कुल 189 कन्वेंशनों में से महज 43 को ही स्वीकार किया है और कुल आठ फंडामेंटल और कोर कन्वेंशन में सिर्फ चार को ही माना है. अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन के कोर कन्वेंशन- जिसे भारत ने स्वीकार नहीं किया है, वे बाल मजदूरी, संगठनों की स्वतंत्रता और सामूहिक मोल-भाव से जुड़े हुए हैं. यह इसलिए भी शर्मिदगी की बात है, क्योंकि बाल मजूदरी के क्षेत्र में काम करने के कारण कैलाश सत्यार्थी को नोबेल पुरस्कार देने की घोषणा की गयी है. संगठित क्षेत्र से जुड़े श्रम सुधार स्वागतयोग्य हैं, लेकिन खतरनाक जगहों पर काम करनेवाले लोगों की अनदेखी ‘श्रमेव जयते’ के नारे से लोगों को नहीं जोड़ पा रही है.

भारत ने ‘लेबर इंस्पेक्शन 81 (1947)’ से जुड़े आइएलओ कन्वेंशन को स्वीकृति दी है, जिसके तहत दक्ष और पर्याप्त लेबर इंस्पेक्टर किसी भी कंपनी में, किसी भी समय बिना इजाजत के जांच के लिए जा सकता है. हालांकि, गवर्नेस से जुड़े सुधार प्रधानमंत्री की घोषणा में शामिल हैं, जिसमें लेबर इंस्पेक्शन की केंद्रीकृत व्यवस्था बनाने की बात है. लेकिन, नियंत्रित और आदेश आधारित व्यवस्था लेबर इंस्पेक्शन के उद्देश्य के विपरीत है.

अच्छे सुधारों का मकसद लघु और मंझोले उद्योगों पर प्रशासकीय बोझ कम करना है, जिसके लिए सरकारी हस्तक्षेप सीमित होना चाहिए. सरकार को इस क्षेत्र में कौशल विकास के मामले में सहयोग करना चाहिए, क्योंकि यहां नौकरी छोड़ने की दर सर्वाधिक होती है. यही लघु और मंझोले उद्योग बड़े उद्योगों को कुशल कामगार मुहैया कराते हैं. यानी लघु और मंझोले उद्योगों में कुशलता हासिल करने के बाद मजदूर बड़े उद्योगों का रुख करते हैं.

विशेषज्ञों के मुताबिक, कौशल की कमी या जरूरत के लिहाज से कौशल न होना ही कंपनियों के प्रतिस्पर्धा को प्रभावित करती है, न कि श्रम कानूनों की जटिलता. ऐसे में सरकार द्वारा कौशल विकास के संबंध में उठाये गये कदम आनेवाले समय में कौशल से जुड़े मुद्दों को सुलझाने में कारगर साबित होंगे और भारत डेमोग्राफिक डिविडेंड (युवा आबादी) का फायदा उठा पायेगा. मोदी का यह कदम श्रमिकों को सम्मान देना है.

सरकार को बाल मजदूरी रोकने की दिशा में भी कदम उठाना चाहिए और बंधुआ मजदूरी को पूरी तरह समाप्त करने, संगठनों की आजादी और सभी प्रकार के कामगारों को सामूहिक मोलभाव करने का अधिकार देने की कोशिश करनी चाहिए.

कुल मिलाकर नरेंद्र मोदी सरकार का ‘श्रमेव जयते’ का नारा तभी अपने मकसद को हासिल कर पायेगा, जब खतरनाक क्षेत्र में काम करनेवाले लोग खुद को सुरक्षित महसूस करेंगे और राष्ट्र निर्माण में सरकार के व्यापक सहयोग के प्रति आश्वस्त होंगे. यही ‘श्रमेव जयते कार्यक्रम’ का मूल उद्देश्य है. उम्मीद करनी चाहिए कि सरकार इस दिशा में ध्यान देगी.

प्रो के आर श्यामसुंदर

अर्थशात्री

एक्सएलआरआइ

श्रमिक बनाम उद्यमी संतुलन की चुनौती
पिछले 15 अगस्त को लाल किले से संबोधन में प्रधानमंत्री ने ‘मेक इन इंडिया’ का नारा देते हुए, उद्यमियों को भारत में निवेश करने को आमंत्रित किया था और वादा किया था कि भारत उसे कुशल श्रम और विकास का एक बेहतर माहौल मुहैया करायेगा. हालांकि, उद्योग-धंधों और व्यापार के नीतिगत माहौल को बेहतर बनाने का प्रयास तो 1992 से ही चल रहा है, लेकिन जब श्रम कानूनों की बात आती है, तो हमारे नीति निर्माता आगे बढ़ते-बढ़ते एकाएक पीछे हट जाते हैं. वाजपेयी के समय में भी यही हुआ था और मनमोहन सरकार भी श्रम कानूनों को अपनी इच्छानुसार नहीं बदल सकी थी. ‘मेक इन इंडिया’ के नारे के तहत मोदी भारत को विश्व का एक मैन्युफैक्चरिंग स्थल बनाना चाहते हैं, तो उन्हें श्रम कानूनों में ऐसे बदलाव लाने होंगे, जो उद्यमियों और निवेशकों को अपने माकूल लगे.
यह संवेदनशील मुद्दा है, क्योंकि एक लोकतांत्रिक देश होने के नाते चुनी हुई सरकार जन इच्छा के विपरीत किसी नीति को उनके ऊपर थोप नहीं सकती. नीतियों में बदलाव के पहले अनुकूल माहौल बनाना पड़ेगा. मोदी ने ‘श्रमेय जयते’ द्वारा माहौल बनाना शुरू कर दिया है. यह अभियान से दो उद्देश्य हासिल किये जाने हैं. एक तरफ तो श्रमिकों के हितों की रक्षा के उपाय किये जाने हैं, तो दूसरी ओर श्रम कानूनों को लचीला किया जाना है, ताकि उद्यमियों को श्रमिक संगठनों द्वारा ब्लैकमेल किये जाने से बचाया जा सके. उद्यमी यही चाहते हैं कि श्रमिकों के मोरचे पर शांति बनी रहे, ताकि उन्हें ज्यादा मुनाफा सुनिश्चित होता रहे. वे यह भी चाहते हैं कि कम मुनाफे या घाटे की स्थिति में श्रमिकों की ओर से कोई ऐसी मांग न आये, जिसे पूरा करना उनके लिए कठिन हो जाये. दूसरी तरफ, श्रमिक अपनी सेवा की निरंतरता के साथ-साथ उचित पारिश्रमिक चाहते हैं. जब कंपनी बहुत फायदे में जा रही हो, तो इच्छा होती है कि थोड़ा हिस्सा उन्हें भी मिले, क्योंकि उत्पादन में उनका भी योगदान होता है.
किसी भी देश की श्रमनीति का यही उद्देश्य होना चाहिए कि एक ओर वह श्रमिकों के उचित पारिश्रमिक और बेहतर कार्यशर्तो को पूरा करे, साथ-साथ उद्यमियों को श्रम असंतोष से मुक्त रखे. भारत के संगठित क्षेत्रों के श्रमिकों और उद्यमियों के बीच एक समय खराब संबंध होते थे. श्रमिकों का शोषण एक बड़ी समस्या थी और उसे रोकने के लिए जो कानून बने, उस समय उनकी जरूरत थी, लेकिन वे कानून औद्योगिक संबंधों के खराब होने के कारण भी बने. भारत के पूर्वी इलाके, खासकर पश्चिम बंगाल में, खराब औद्योगिक संबंधों व हड़तालों के कारण वहां के उद्योग बंद होने लगे और कोलकाता जैसा औद्योगिक महानगर बीमार उद्योगों का नगर बन गया. देश के जिन हिस्सों में औद्योगिक शांति रही, वहां ज्यादा औद्योगिक विकास मुमकिन हुआ.
भारत में श्रमिकों की बहुलता है, इसलिए कायदे से श्रम बहुल उत्पादन की तकनीक का यहां इस्तेमाल होना चाहिए था, लेकिन श्रम कानूनों की कठोरता के कारण पूंजी बहुल उत्पादन को बढ़ावा मिलने लगा. इससे बेरोजगारी की समस्या बढ़ती है. इस स्थिति को कोई पसंद नहीं करेगा. इसके कारण लागत मूल्य भी बढ़ता है और श्रम का बेहतर इस्तेमाल भी नहीं हो पाता है. इसलिए ऐसे कानून, जो उद्यमियों में श्रमिकों को लेकर भय पैदा करता है, बदले जाने चाहिए. लेकिन श्रमिकों को पूरी तरह से उनके नियोक्ताओं पर भी नहीं छोड़ा जा सकता. दोनों के बीच एक संतुलन बना कर रखना होगा.
लगता है कि प्रधानमंत्री ‘श्रमेव जयते’ अभियान के तहत उसी दिशा में आगे बढ़ रहे हैं. यही कारण है कि उन्होंने एक तरफ तो भविष्य निधि योजना में सुधार की घोषणा की और उसमें पारदर्शिता को बढ़ावा देने के भी निर्णय किये, तो दूसरी तरफ श्रम इंस्पेक्टरों पर लगाम की एक नीति का भी खुलासा किया. श्रमिकों के हितों की रक्षा के लिए बने इंस्पेक्टर एक प्रकार से उनके ज्यादा शोषण का सबब बन रहे थे. भ्रष्टाचार में लिप्त होकर वे शोषण करनेवाले उद्यमियों से उगाही के आरोपों का सामना करते आ रहे हैं और उगाही का शिकार होकर उद्यमी श्रमिकों के शोषण की रफ्तार को और बढ़ा देता है, ताकि इंस्पेक्टर को दिये गये घूस की भरपाई हो सके.
श्रम संबंधी कुछ और प्रावधानों का भी यही हाल होता है. उसका उद्देश्य तो होता है श्रमिकों के हितों की रक्षा करना, पर भ्रष्टाचार के कारण उनसे उनका हित मारा जाता है. पिछले 22 सालों से श्रम कानूनों के मोरचे पर यदि कोई उल्लेखनीय सुधार नहीं हो पाया है, तो उसका कारण यही है कि श्रम कानून सुधारों को एक बड़े हौआ की तरह लाया जाता है. इसके कारण इसके खिलाफ रोष पैदा होता है और फिर जन रोष के डर से सरकार अपने कदम पीछे हटा लेती है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक अच्छा काम यह किया है कि श्रमिकों की समस्या को उन्होंने श्रमिकों की तरह देखना शुरू किया है और इसके कारण वे श्रमिकों से अपने आपको जोड़ पाने में सफल हो रहे हैं. श्रमिकों को होनेवाली सरकार जनित समस्या का समाधान वे पहले कर रहे हैं. वे उन्हें पहचान दे रहे हैं. उन्हें सम्मानित कर रहे हैं. यानी शुरुआत अच्छी हुई है. आगे देखना होगा कि कानूनों में किस तरह के बदलाव होते हैं और श्रमिक उन पर किस प्रकार से प्रतिक्रिया करते हैं. यह भी देखना दिलचस्प होगा कि इन बदलावों से देशी और विदेशी निवेश में भारी वृद्धि होती भी है या नहीं.
उपेंद्र प्रसाद
आर्थिक मामलों के जानकार

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