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क्लिंटन या ट्रंप – भारत के लिए बेहतर कौन?

अमेरिका में राष्ट्रपति पद का चुनाव 8 नवंबर को यानी सिर्फ दो दिन बाद है. भारत की सामरिक जरूरतों और ‘मेक इन इंडिया’ कार्यक्रम के लिए अमेरिकी सहयोग और वैश्विक मुद्दों पर भारतीय हितों के मद्देनजर अमेरिकी नीतियां बेहद महत्वपूर्ण हैं. इसलिए अमेरिका का अगला राष्ट्रपति चाहे जो भी बने, उसके कार्यकाल में भारत के […]

अमेरिका में राष्ट्रपति पद का चुनाव 8 नवंबर को यानी सिर्फ दो दिन बाद है. भारत की सामरिक जरूरतों और ‘मेक इन इंडिया’ कार्यक्रम के लिए अमेरिकी सहयोग और वैश्विक मुद्दों पर भारतीय हितों के मद्देनजर अमेरिकी नीतियां बेहद महत्वपूर्ण हैं. इसलिए अमेरिका का अगला राष्ट्रपति चाहे जो भी बने, उसके कार्यकाल में भारत के साथ द्विपक्षीय और बहुपक्षीय संबंधों पर ठोस असर पड़ना तय है. संतोष की बात है कि अमेरिकी और भारतीय पक्ष संबंधों को बेहतर बनाने का आकांक्षी हैं और मौजूदा स्थिति को देखते हुए ऐसा नहीं लगता है कि नये अमेरिकी प्रशासन से इसमें कोई खास रुकावट आयेगी. राष्ट्रपति पद की दौड़ में शामिल दोनों प्रमुख उम्मीदवारों के अब तक के सफर, उनकी ताकत, कमजोरी और नीतियों को विश्लेषित करते हुए, भारत-अमेरिका संबंधों पर संभावित असर का आकलन आज के संडे-इश्यू में…

।। प्रकाश कुमार रे ।।

अमेरिकी राष्ट्रपति का मौजूदा चुनाव कई अर्थों में पूर्ववर्ती चुनावों से भिन्न है. इस दौड़ में आगे चल रहे दोनों प्रत्याशियों- डेमोक्रेटिक पार्टी की हिलेरी क्लिंटन और रिपब्लिकन पार्टी के डोनाल्ड ट्रंप- की नीतियां अमेरिका और विश्व के संबंधों के पुनर्परिभाषित होने का संकेत दे रही हैं. नये राष्ट्रपति के दौर में संभावित द्विपक्षीय संबंधों को लेकर भारत में भी ऊहापोह की स्थिति है, क्योंकि नयी परिस्थितियों में दोनों प्रमुख दलों की सोच और एजेंडे में बदलाव अपेक्षित है. हालांकि, बीते कुछ वर्षों में दुनिया के इन दो बड़े लोकतांत्रिक देशों के राजनीतिक और आर्थिक संबंध लगातार मजबूत हुए हैं. नया राष्ट्रपति इस प्रक्रिया को किस हद तक प्रभावित कर सकता है, इसका कुछ अंदाजा प्रमुख मुद्दों पर दोनों प्रत्याशियों की अब तक की घोषणाओं से लगाया जा सकता है.

वीजा और आप्रवासन

इस चुनाव में डोनाल्ड ट्रंप को जो अप्रत्याशित समर्थन मिला है, उसका सबसे बड़ा कारण आप्रवासन पर उनके तीखे बयान हैं. हालांकि उन्होंने दूसरे देशों से वैध और अवैध रूप से अमेरिका आनेवाले लोगों की संख्या पर कड़ाई से नियंत्रण करने का जो वादा किया है, उसमें भारत का सीधे तौर पर उल्लेख नहीं है. उनका मुख्य निशाना पड़ोसी मैक्सिको और मध्य-पूर्व से आनेवाले लोग हैं, लेकिन पढ़ाई से लेकर नौकरी के लिए हमारे देश से हर साल बड़ी संख्या में लोग अमेरिका जाते हैं. एच1बी वीजा के लिए सबसे अधिक आवेदन भारतीय ही करते हैं. उन्होंने भरोसा दिलाया है कि वे अति प्रतिभाशाली लोगों को ही वैध रूप से अमेरिका में रहने देंगे, परंतु उनके घोषणापत्र में एच1बी वीजा के आधार पर नियुक्त आप्रवासियों के वेतन बढ़ाने की बात कही गयी है, ताकि अमेरिकी कंपनियों पर देश की प्रतिभाओं को रोजगार देने का दबाव बढ़े. इस श्रेणी का वीजा स्नातक और उससे आगे की शिक्षा पाये आप्रवासियों को रोजगार के लिए दिया जाता है. ट्रंप का मानना है कि इसके नियमों का कंपनियां दुरुपयोग कर रही हैं.

हिलेरी क्लिंटन आप्रवासन की पूरी प्रक्रिया में बदलाव की पक्षधर हैं. उन्होंने सीधे तौर पर तो इस वीजा के बारे में कुछ नहीं कहा है, पर आप्रवासन पर उनकी नीतियों से एच1बी में कुछ कड़ाई संभावित है. हालांकि, इस मसले को क्लिंटन की अन्य नीतियों से जोड़ कर देखें, तो भारत के लिहाज से कई सकारात्मक संकेत हैं. परिवारों को वीजा देने के नियमों को नरम बनाने की बात कहते हुए उन्होंने कहा है कि इस श्रेणी के 40 फीसदी आवेदन एशिया-प्रशांत क्षेत्र के लोगों के हैं, जो अपने परिवार से लंबे समय से दूर हैं. उन्होंने संभावित अमेरिकी नागरिकों के लिए शुल्क घटाने और भाषा सिखाने के कार्यक्रमों को बढ़ाने का भी वादा किया है.

हिलेरी ने विज्ञान, तकनीक, इंजीनियरिंग और गणित में उच्च शिक्षा प्राप्त कर रहे विदेशी छात्रों को पढ़ाई के बाद अमेरिका में रहने के लिए ग्रीन कार्ड देने की घोषणा भी की है. वर्ष 2014-15 में 1.33 लाख भारतीय छात्र अमेरिका में पढ़ाई कर रहे थे. हिलेरी क्लिंटन की इस नीति से इनमें से अधिकतर छात्र लाभान्वित हो सकते हैं. उन्होंने तकनीक के क्षेत्र में स्टार्ट अप के लिए बाहरी लोगों को छूट और सहूलियत देने का वादा भी किया है. उल्लेखनीय है कि एक बिलियन डॉलर से अधिक मूल्य की 87 में से 44 अमेरिकी स्टार्ट कंपनियां विभिन्न देशों के आप्रवासियों द्वारा स्थापित की गयी हैं, जिनमें भारतीयों की अहम भूमिका रही है. डोनाल्ड ट्रंप के घोषणापत्र में इन मुद्दों पर विस्तार से कुछ नहीं कहा गया है. वर्ष 2012 में भारत में अमेरिका से आय के रूप में करीब 11 बिलियन डॉलर की विदेशी मुद्रा आयी थी. वीजा नियमों में किसी भी तरह की कड़ाई से इस आय पर नकारात्मक असर पड़ सकता है.

‘मेक इन इंडिया’ और निवेश

दोनों उम्मीदवार अमेरिकी मैन्यूफैक्चरिंग सेक्टर को मजबूत बनाने पर जोर दे रहे हैं. इस क्षेत्र में करीब 1.20 करोड़ अमेरिकी कार्यरत हैं, लेकिन जनवरी 2004 से दिसंबर 2014 के बीच 50 लाख नौकरियां खत्म हुई हैं. मुख्य चुनावी मुद्दा होने के कारण क्लिंटन और ट्रंप का जोर उन अमेरिकी कंपनियों पर अधिक कर लगाने पर है, जो विदेशों में नौकरियां बढ़ा रही हैं. ऐसे में अमेरिकी कंपनियों के लिए भारत में आकर मैन्यूफैक्चरिंग और निवेश करने में मुश्किल आ सकती है, जो कि भारत सरकार के महत्वाकांक्षी ‘मेक इन इंडिया’ कार्यक्रम के लिए शुभ संकेत नहीं है.

हालांकि ट्रंप द्वारा कॉरपोरेट टैक्स बहुत कम करने से भारतीय निवेशकों को अच्छा अवसर मिल सकता है. रिपब्लिकन उम्मीदवार ने अपने घोषणापत्र में चीन के साथ व्यापार संतुलन पर ध्यान देने तथा चीन से लाखों नौकरियां वापस अमेरिका लाने का वादा किया है. चीन और मैक्सिको से संबंधित किसी भी कराधान से भारत भी प्रभावित होगी. सूचना तकनीक के क्षेत्र में शुल्क लगाने में दिक्कत के कारण भारत पर ट्रंप की इस नीति का असर चीन की तुलना में कम पड़ेगा और चीन में मैन्यूफैक्चरिंग सेक्टर में कमजोरी का कुछ लाभ भारत को हो सकता है.

पाकिस्तान और कश्मीर

डोनाल्ड ट्रंप ने पाकिस्तान को ‘दुनिया का संभवतः सबसे खतरनाक देश’ की संज्ञा दी है और ऐसे संकेत दिये हैं कि परमाणु शक्ति से संपन्न पाकिस्तान को काबू में रखने के लिए वे भारत के साथ काम कर सकते हैं. इससे अनुमान लगाया जा रहा है कि ट्रंप प्रशासन जम्मू-कश्मीर में पाकिस्तान-प्रायोजित आतंकवाद के मुद्दे पर भारत की समझ के अनुकूल रवैया अपना सकता है. दूसरी ओर हिलेरी क्लिंटन प्रशासन सामान्यतः ओबामा की नीति पर ही चलेगा, जिसमें भारत के साथ संबंध मजबूत करने के साथ दक्षिण एशिया में स्थिरता के लिए पाकिस्तान को साथ लेने की रणनीति शामिल है. हालांकि कश्मीर मुद्दे पर न तो ट्रंप ने और न ही हिलेरी क्लिंटन ने सीधे तौर पर कुछ कहा है, लेकिन ‘न्यूयॉर्क टाइम्स’ द्वारा जारी एक टेप में हिलेरी क्लिंटन पाकिस्तान के परमाणु हथियारों के जेहादियों के हाथ में पड़ने की आशंका जता रही हैं. इतना तो तय है कि दोनों में से चाहे जो भी राष्ट्रपति बने, पाकिस्तान पर आतंक को समर्थन न देने का दबाव बढ़ेगा, क्योंकि आतंकवाद की वैश्विक समस्या पर इस चुनाव में जोर-शोर से बहस की जा रही है.

बहरहाल, निष्कर्ष के तौर पर कहा जा सकता है कि कई मसलों में डोनाल्ड ट्रंप की नीतिगत अस्पष्टता और अमेरिका-केंद्रित दृष्टिकोण से अमेरिकी विदेश और आर्थिक नीति में फेरबदल के रुख को देखते ही उनके संभावित प्रशासन के बारे में अनिश्चितता का माहौल है. इसके बरक्स हिलेरी क्लिंटन के ओबामा प्रशासन की नीतियों पर ही चलने के आसार है. उनके द्वारा लाये जानेवाले बदलाव पर अभी कुछ कहना जल्दबाजी होगी, लेकिन नीतियों में कोई भी बड़ा बदलाव भारत के हितों को प्रभावित करने की क्षमता रखता है. इसलिए द्विपक्षीय संबंधों का भविष्य जितना नये राष्ट्रपति के रवैये पर निर्भर करेगा, उतना ही नयी परिस्थितियों को अपने हित में उपयोग कर पाने की भारत की कूटनीतिक और राजनीतिक क्षमता पर भी.

हिलेरी क्लिंटन

डेमोक्रेटिक पार्टी की तरफ से चुनाव लड़ रही 68 वर्षीय हिलेरी डायने रोड्हम क्लिंटन, यूएस के राष्ट्रपति चुनाव में खड़ी होनेवाली पहली महिला उम्मीदवार हैं. लॉ ग्रेजुएट हिलेरी अमेरिका की बेहद प्रभावशाली वकील भी हैं.

सफर

1973 में हिलेरी ने येल लॉ स्कूल से ग्रेजुएशन किया. यहीं हिलेरी पहली बार बिल क्लिंटन से मिली थीं.

1975 में हिलेरी ने बिल क्लिंटन से शादी कर ली.

1977 में अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति जिमी कार्टर ने इन्हें बोर्ड ऑफ द लीगल सर्विसेज कॉरपोरेशन में शामिल किया.

2000 में हिलेरी न्यूयॉर्क से यूएस सीनेट के लिए पहली बार और 2006 में दूसरी बार नामांकित हुईं.

2007 में उन्होंने पहली बार यूएस राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार के तौर पर अपने अभियान की शुरुआत की.

2009 में राष्ट्रपति बराक ओबामा ने हिलेरी को 67वां यूएस सेक्रेटरी ऑफ स्टेट नियुक्त किया.

2015 में उन्होंने 2016 में होनेवाले राष्ट्रपति चुनाव के लिए डेमोक्रेटिक पार्टी की ओर से दूसरी बार उम्मीदवार बनने की घोषणा की.

2016 में उन्होंने डेमोक्रेटिक प्राइमरी इलेक्शन में अपने मुख्य प्रतिद्वंद्वी सिनेटर बर्नी सैंडर्स को पीछे छोड़ यूएस के राष्ट्रपति पद की पहली महिला उम्मीदवार बनने का गौरव हासिल किया.

ताकत

अनुभवी राजनेता : हिलेरी एक अनुभवी राजनेता हैं. वे लंबे समय तक राजनीतिक कार्यकर्ता रही हैं. कानून की जानकार हिलेरी यूएस की प्रथम महिला सिनेटर और सेक्रेटरी ऑफ स्टेट रह चुकी हैं, इस नाते उन्हें पता है वाशिंगटन में किस तरह की चीजें होती हैं और उनसे कैसे निबटना है. उन्हें विदेश नीति की भी अच्छी समझ है.

अंतरराष्ट्रीय पहचान : अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी एक सक्षम राजनेता के तौर पर हिलेरी की पहचान है. अमेरिका से बाहर भी उनकी छवि अच्छी है और लोग उन्हें गंभीरता से लेते हैं.

प्रगतिशील राजनेता : डोनाल्ड ट्रंप के मुकाबले वे ज्यादा प्रगतिशील राजनेता हैं. वे सभी को साथ लेकर चलने में विश्वास रखती हैं. वे काफी मेहनती व ऊर्जावान भी हैं.

विचारों की स्पष्टता : देश के लिए कैसी नीतियां होनी चाहिए, इसे लेकर हिलेरी अधिक स्पष्ट हैं. इस संबंध में उनके पास एक विस्तृत योजना भी है. साथ ही वे यह भी जानती हैं कि इन योजनाओं को कैसे कार्यान्वित करना है.

अच्छी वक्ता व जुझारू राजनेता : हिलेरी अच्छी वक्ता भी हैं. वे अपना पक्ष रखना जानती हैं. आलोचना होने पर उत्तेजित नहीं होतीं. साथ ही वे जुझारू राजनेता भी हैं. अपने प्रतिद्वंद्वियों को जिस तरह से अब तक वो परास्त करती आयी हैं, वह उनके जुझारुपन को दर्शाता है.

कमजोरी

पारदर्शिता की कमी : हिलेरी का नाम इमेल, बेनगाजी सहित कई स्कैंडल्स में आ चुका है. इसे लेकर उनकी तरफ से दी गयी सफाई में पारदर्शिता का अभाव रहा है. यह अभाव उनकी जीत में अवरोध बन सकता है. कई स्कैंडल तो 1990 के दशक से ही उनके साथ जुड़े हुए हैं.

मीडिया रिलेशन : ऐसा माना जाता है कि हिलेरी अपने फायदे के लिए मीडिया का इस्तेमाल करती हैं. सैंडर्स के खिलाफ उन्होंने जिस तरह एक नामचीन अखबार का इस्तेमाल किया, उससे उनकी छवि खराब हुई है. राष्ट्रपति बनने के बाद भी अपने फायदे के लिए वे ऐसा करती रहेंगी, इसमें किसी को संदेह नहीं है.

वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था से जुड़ाव : यूएस में लोग वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था से क्षुब्ध हैं. ऐसे में हिलेरी का राजनीति से जुड़ा होना उनके खिलाफ भी जा सकता है. बहुत से लोगों का मानना है कि राष्ट्रपति बनने के बाद हिलेरी वर्तमान नीतियों को ही लागू करेंगी, जिससे यूएस का नुकसान होगा.

ईमानदार छवि का अभाव : हिलेरी की छवि को बहुत से लोग ईमानदार नहीं मानते हैं. उनका कहना है कि हिलेरी प्राइमरी और जनरल इलेक्शन के समय नीतियों में बड़े बदलाव को लेकर गंभीर दिख रही थीं, लेकिन जब वे ऑफिस गयीं तो इससे मुकर गयीं. ऐसा वे आगे भी कर सकती हैं.

विदेश नीति से नाराजगी : यूएस की विदेश नीति को लेकर भी लोग उनसे नाराज हैं. बहुत से लोगों का मानना है कि विश्व की ज्यादातर समस्याओं के लिए यूएस की विदेश नीति जिम्मेदार है. ऐसे में हिलेरी का राष्ट्रपति बनना और समस्या खड़ी कर सकता है.

उम्रदराज होना : हिलेरी क्लिंटन की उम्र 68 वर्ष है. इस उम्र में बीमारियां लगी रहती हैं. ऐसे में हिलेरी चार साल की अपनी अवधि में किस तरह प्रभावी रूप से काम कर पायेंगी, इस पर भी कुछ लोग सवाल उठा रहे हैं.

डोनाल्ड ट्रंप

रिपब्लिकन पार्टी की तरफ से चुनाव लड़ रहे 69 वर्षीय डोनाल्ड ट्रंप यूएस रीयल एस्टेट के बड़े व्यवसायी होने के अलावा टेलीविजन पर्सनालिटी व लेखक भी हैं. अपने बहुआयामी व्यक्तित्व के कारण वे हमेशा सुर्खियों में रहते आये हैं.

सफर

1986 में ट्रंप ने पेनसिल्वेनिया यूनिवर्सिटी के व्हाॅर्टन स्कूल ऑफ फाइनेंस से इकोनॉमिक्स में बैचलर डिग्री हासिल की थी.

1971 में ट्रंप ने अपने पिता की रीयल एस्टेट कंपनी- एलिजाबेथ एंड संस- को अपने हाथों में ले लिया, जिसे बाद में ट्रंप ऑर्गनाइजेशन नाम दिया गया.

1987 में ट्रंप की किताब ‘आर्ट ऑफ डील’ प्रकाशित हुई, जो 51 सप्ताह तक न्यूयॉर्क टाइम्स पर बेस्टसेलर बनी रही.

1990 में ट्रंप को फोर्ब्स के धनी व्यक्तियों की सूची से बाहर कर दिया गया.

2000 में ट्रंप ने पहली बार एक अनजानी सी रिफॉर्म पार्टी से यूएस राष्ट्रपति चुनाव के लिए नामांकन भरा, लेकिन दो प्राइमरी जीत के बाद वे इस दौड़ से बाहर हो गये.

2004 में यूएस टेलीविजन पर एक लोकप्रिय शो ‘द अप्रेंटिस’ टेलीकास्ट हुआ, जिसके प्रोड्यूसर और एंकर डोनाल्ड ट्रंप थे.

2007 में उन्हें हॉलीवुड हॉल ऑफ फेम से स्टार प्रदान किया गया.

2015 में ट्रंप ने रिपब्लिकन पार्टी के उम्मीदवार के तौर पर राष्ट्रपति चुनाव के लिए अपना नामांकन भरा.

ताकत

गैर राजनीतिक छवि : डोनाल्ड ट्रंप की छवि एक परंपरागत राजनीतिक उम्मीदवार से अलग एक आत्मनिर्भर उम्मीदवार की है. स्टीरियोटाइप राजनीतिक उम्मीदवार से थक चुके लोगों के लिए ट्रंप एक उम्मीद हैं. वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था में बदलाव चाहनेवाले लोग ट्रंप का समर्थन कर सकते हैं.

स्थापित बिजनेसमैन : ट्रंप एक स्थापित बिजनेसमैन हैं. इस कारण वे न सिर्फ वित्तीय रूप से आत्मनिर्भर हैं, बल्कि वित्तीय मामलों को लेकर जागरूक भी हैं. यूएस का एक बड़ा मतदाता वर्ग इस वजह से भी ट्रंप की तरफदारी कर सकता है कि वे यूएस की अर्थव्यवस्था को बेहतर करने में मददगार साबित होंगे.

जॉब क्रिएटर की छवि : अपने बिजनेस के माध्यम से ट्रंप ने बहुत से लोगों को रोजगार प्रदान किया है. उनकी यह छवि लोगों को पसंद आ रही है और उनका मानना है कि ओबामा की असफल आर्थिक नीतियों से अमेरिकी अर्थव्यवस्था को बाहर निकालने के लिए ट्रंप सबसे सही व्यक्ति होंगे.

विदेश नीति से अनभिज्ञता : विदेश नीति से अनभिज्ञ होना भी बहुत से लोगों की नजर में ट्रंप की विशेषता है. अमेरिकी नागरिकों का मानना है कि भले ट्रंप को विदेश नीति की जानकारी नहीं है, लेकिन कम-से-कम उनका रिकॉर्ड इस क्षेत्र में असफल होने का तो नहीं है. अगर वे राष्ट्रपति बनते हैं तो विदेश नीति के लिए वे कुछ सक्षम सहयोगियों का चुनाव कर सकते हैं और सफल हो सकते हैं.

उम्मीदवारी को लेकर गंभीरता : बहुत से लोगों का मानना है कि यूएस राष्ट्रपति चुनाव के लिए ट्रंप ही गंभीर उम्मीदवार हैं. पिछले आठ वर्षों में घरेलू और विदेश नीति में जो गिरावट आयी है, उसे ट्रंप ही सही कर सकते हैं. एक वे ही हैं जो अर्थव्यवस्था में सुधार कर सकते हैं और अमेरिकी नागरिकों को एक सुरक्षित माहौल दे सकते हैं.

कमजोरी

स्कैंडल्स में लिप्त होना : हिलेरी की तरह ही ट्रंप के साथ भी उनके बिजनेस को लेकर कई स्कैंडल्स जुड़े हैं. इसके अलावा भ्रष्टाचार के कई मामलों में भी उनका नाम शामिल है. इस वजह से उनकी दावेदारी कमजोर पड़ सकती है.

अल्पसंख्यकों द्वारा नापसंद : अल्पसंख्यकों, खासकर मुसलमानों, को लेकर उनके विद्वेषपूर्ण भाषण से सभी परिचित हैं. इससे न सिर्फ अल्पसंख्यक, बल्कि प्रगतिशील अमेरिकी नागरिक भी उन्हें नापसंद करते हैं. ऐसे लोगों का मानना है कि एक राष्ट्रपति के तौर पर वे अपनी नीतियों में ईमानदारी बरतने से चूक जायेंगे, जिससे देश एकजुट नहीं रह पायेगा.

विदेशों में अलोकप्रिय : यूएस के ज्यादातर विदेशी साझीदार ट्रंप को पसंद नहीं करते हैं. ज्यादातर तटस्थ देश ट्रंप को एक राजनीतिज्ञ मानने की बजाय बिजनेसमैन ही मानते हैं. राजनीतिज्ञ के तौर पर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्य न होना उनकी राह में रोड़ा बन सकता है.

परिपक्वता की कमी : ट्रंप की सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि जब भी उनकी आलोचना होती है, तो वे बहुत जल्द गुस्सा हो जाते हैं, जबकि हिलेरी बेहद सहज बनी रहती हैं. ट्रंप अपनी आलोचना से भावनात्मक रूप से आहत हो जाते हैं, यह दर्शाता है कि उनमें परिपक्वता की कमी है. विशेषज्ञों का कहना है कि एक राजनीतिज्ञ में आलोचना सहने की आदत होनी ही चाहिए.

मर्यादाओं को लांघ जाना : ट्रंप की एक और कमजोरी है कि वे अकसर अपने भाषणों में मर्यादा को लांघ जाते हैं. उनके बयानों से ऐसा लगता है कि अश्वेतों, महिलाओं और डिसेबल को लेकर उनके मन में कोई सम्मान नहीं है. अपने भाषणों में वे इन्हें लेकर सभी मर्यादाओं को लांघ चुके हैं. महिलाओं को लेकर उन पर कई आरोप भी लग चुके हैं.

हिलेरी के नेतृत्व में अमेरिकी परमाण्विक नीतियों का भविष्य

।। विजय शंकर ।।

पूर्व कमांडर इन चीफ, स्ट्रेटेजिक फोर्सेज कमांड ऑफ इंडिया

अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव के संबंध में हुए अधिकतर सर्वेक्षण बताते हैं कि 45वें राष्ट्रपति के रूप में हिलेरी क्लिंटन के चयन की संभावनाएं प्रबल हैं. लेकिन, इसका यह अर्थ कतई नहीं है कि अमेरिकी मतदाता हिलेरी के गुणों से प्रभावित हैं. सच तो यह है कि उनके सामने कोई उपयुक्त विकल्प ही नहीं है. सभी जानते-समझते हैं कि हिलेरी को सिर्फ एक कार्यकाल मिल सकेगा और वे कुछ नया कर पाने में विफल रहते हुए ओबामा की नीतियों पर ही चलने की कोशिश करती रहेंगी.

अपने कार्यकाल के आरंभ में ओबामा ने अमेरिकी सुरक्षा नीति में परमाण्विक हथियारों की भूमिका क्रमशः न्यून करते हुए ‘शीतयुद्ध मानसिकता की समाप्ति’ का अहम वादा किया था. लेकिन, इस मुद्दे पर अमेरिकी नीति में कोई बदलाव संभव न हो सका. इतना ही नहीं, ओबामा ने एक हजार अरब (एक ट्रिलियन) अमेरिकी डॉलर की लागत से अमेरिकी परमाण्विक शस्त्रागार के पुनर्निर्माण तथा उन्नयन की योजना भी घोषित कर दी. इस तरह की विरोधाभासी नीतियों का उत्तराधिकार पाने के अलावा परमाण्विक मामलों पर खुद हिलेरी की जगजाहिर किंकर्तव्यविमूढ़ता के मेल से शीतयुद्ध कालीन नीतियों की पुनर्वापसी की संभावनाएं ही अधिक होंगी.

अपने कार्यकाल के अंतिम महीनों में ओबामा ने परमाण्विक हथियारों के प्रथम प्रयोग के निषेध को अमेरिकी नीति के रूप में अपनाने की एकपक्षीय घोषणा पर भी विचार किया, पर वे ऐसा न कर सके. कांग्रेस में रिपब्लिकन पार्टी के दबदबे को देखते हुए अब हिलेरी द्वारा इस दिशा में अधिक कुछ कर पाने की संभावना नहीं बनती.

अमेरिकी परमाण्विक शस्त्रागार

तथ्य यह है कि अमेरिकी परमाण्विक शस्त्रागार से संबद्ध दो ऐसे मौलिक मुद्दे हैं, जिनके समाधान की बाबत अमेरिकी प्रशासन ने कोई सार्थक पहल नहीं की है. पहला यह कि पेंटागन आखिर इस शस्त्रागार के उन्नयन के लिए एक हजार अरब डॉलर की योजना क्यों आरंभ कर रहा है? जनवरी 2016 में हिलेरी इस व्यय को अर्थहीन करार दे चुकी हैं. दूसरा यह कि परमाण्विक निवारण (न्यूक्लियर डिटरेंस) के सिद्धांत क्या अब भी प्रासंगिक हैं? अमेरिका के साथ रूस के वर्तमान संबंध तथा चीन द्वारा अपने परमाण्विक शस्त्रागार के आधुनिकीकरण को देखते हुए हिलेरी प्रशासन द्वारा इन दोनों मुद्दों पर सार्थक पहलकदमी की कोई संभावना धूमिल ही दिखती है.

भारत-अमेरिकी एटमी करार का भविष्य

10 अक्तूबर, 2008 को संपन्न यह करार दोनों देशों के बीच चले आ रहे दशकों पुराने विरोध की समाप्ति तथा दोनों के सामरिक हितों के संवर्द्धन का प्रतीक था. हालांकि इस करार की पूरी संभावनाओं का दोहन अभी बाकी है, मगर इस पर हस्ताक्षर के पश्चात दोनों देशों की द्विपक्षीय सामरिक समझ में आये बदलावों के नतीजे भारत पर लागू कई प्रतिबंधों के खात्मे सहित अन्य कई घटनाक्रम के रूप में सामने आये हैं. इन बदलावों में भविष्य की अपार संभावनाएं सिमटी हैं.

संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत की स्थायी सदस्यता तथा परमाण्विक आपूर्तिकर्ता समूह (एनएसजी) में भारत के प्रवेश के पूर्ण समर्थन को हिंद-प्रशांत तथा भूमंडलीय सुरक्षा परिदृश्य में एक संतुलन तथा स्थायित्व लाने की बड़ी कवायद के रूप में देखा जा सकता है.

अमेरिका और भारत के बीच व्यापार

वस्तु और सेवाओं के क्षेत्र में अमेरिका अब भारत का सबसे बड़ा व्यापारिक साझीदार बन चुका है और भविष्य के लिए दोनों देशों ने पांच सौ अरब डॉलर के व्यापार का महत्वाकांक्षी लक्ष्य तय किया है. हाल के वर्षों में आतंकवाद विरोधी सहयोग के साथ ही सूचनाओं एवं खुफिया जानकारी के आदान-प्रदान का दायरा तेजी से बढ़ा है. सैन्य सहयोग के मामले में अमेरिका भारत का प्रमुख हथियार आपूर्तिकर्ता तो बन ही चुका है, लॉजिस्टिक सहमति पत्र जैसे करार एवं मिसाइल प्रौद्योगिकी नियंत्रण प्रणाली में भारत के प्रवेश या खासकर कश्मीर के मुद्दे पर भारत-पाकिस्तान के बीच मध्यस्थता से इनकार जैसी उपलब्धियां सीधे तौर पर परमाण्विक करार की ही प्रतिफल हैं.

हिलेरी यह साफ कर चुकी हैं कि सुरक्षा परिषद तथा एनएसजी में भारत की पूर्ण सदस्यता को उनके समर्थन का दायरा व्यापक है, जिसमें परमाण्विक, रासायनिक तथा जैविक हथियारों के निर्यात नियंत्रण से संबद्ध तीन प्रणालियां शामिल हैं.

शीतयुद्ध सोच की वापसी की भविष्यवाणी

संभावनाएं हैं कि हिलेरी प्रशासन को एक असहयोगी कांग्रेस, विरोधी पेंटागन तथा एक कमजोर कार्यकाल की चुनौतियों से दो-चार होना होगा. शायद इतिहास के पन्नों में हिलेरी केवल इसलिए याद की जा सकें कि उन्होंने अपने पूर्ववर्ती राष्ट्रपति की नीतियां लागू रखीं. पर उनके लिए यह भी आसान न होगा, क्योंकि पहले से कहीं अधिक हठधर्मी रूस और अत्यंत सशक्त चीन राजनय के नये नियमों के निर्माण पर आमादा हैं. शीतयुद्ध सोच की समाप्ति के सपने हवा हो चुके हैं और हिलेरी के लिए पूर्व नीतियों को आगे बढ़ा पाना भी काफी चुनौतीपूर्ण होने जा रहा है. शायद भारत के साथ सद्भावपूर्ण संबंधों को उनके द्वारा और सुदृढ़ करने से ही उनके संकटमोचन की कोई राह निकल सके.

(अनुवाद : विजय नंदन)

http://www.ipcs.org/ पर जारी लेख का संपादित अंश. साभार.

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